“मदारी”
बँदरिया प्यारी,
एक मदारी,
लेकर आया|
तन लटा,
कपड़े फटे,
पेट धँसा,
फिर भी,
जबर्दस्ती मुस्कराया||
जेठ का महीना,
भरी दोपहरी,
चूता पसीना,
डमरू बजाकर,
बँदरिया नचाकर,
गया हार,
नहीं सोचा,
एक बार|
जेठ का महीना,
चूता पसीना,
नहीं सोचा, एक बार!
भरी दोपहरी,
बाबू शहरी|
नहीं दे पायेंगे अपनी जेब का,
सबसे छोटा भी सिक्का,
भूखे पेट को,
देकर धक्का,
हँसके निकल जायेंगे,
और हम यूँ ही ,
हाथ मलते रह जायेंगे||
©दिलीप कुमार पाठक “सरस”
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद