मन की जिद ने इस धरती पर कितने रंग बिखेरे
दिन गुजरे या रातें बीतीं ,रोज लगाती फेरे।
मन की जिद ने इस धरती पर, कितने रंग बिखेरे।
कभी संकटों के बादल ने, सुख सूरज को घेरा।
कभी बना दुख बाढ़ भयावह ,मन में डाले डेरा।
जिद ही है जिसने धरती पर ,एकलव्य अवतारा।
जिद ही थी जिसने रावण को ,राम रूप में मारा।
जिद ही थी जो अभिमन्यु था, चक्रव्यूह में दौड़ा।
जिद थी जिसने महायुद्ध में,नियम ताक पर छोड़ा।
जिद ही थी जो एक सिकंदर,विश्वविजय को धाया।
जिद ही थी जो महायुद्ध की, मिटी घनेरी छाया।
जिद के आगे युद्ध हो गए ,लाखों इस धरती पर।
जिद के आगे विवश हुए हैं ,सदियों से नारी नर।
लक्ष्मीबाई पद्मावत हो, या दुर्गा या काली।
अन्याय जहाँ जिद कर बैठी,हत्या तक कर डाली।
अपना तो संस्कार यही है ,जिद पूरी करते हैं।
प्रेम याचना में पिघले तो, झोली ही भरते हैं।
अन्यायअनीति जिद में किंतु,हमको कभी न भाये।
ऐसी जिद पर शत्रु हमसे, हर पल मुँह की खाये।
जिद के आगे प्राण-पुष्प भी ,भेंट चढ़ा देते हैं।
और अगर जिद कर बैठे हम ,सिर उतार लेते हैं।
सुनील गुप्ता केसला रोड सीतापुर
सरगुजा छत्तीसगढ