राजनीति बना व्यापार जी
देखो आज इस राजनीति क
कैसे बना गया ये व्यापार जी ,
लोक-सेवक अब गायब जो हैं
मिला बड़ा उन्हें रोज़गार जी !
राजनीति अब स्वार्थ- नीति है
कर रहे अपनों का उपकार जी,
कुर्सी में चिपके रहने की लत
बस एक ही इनका आधार जी !
चमचा बनो व जयकारा लगाओ
फ़लफूल रहा है ये बाज़ार जी,
छुट-भैये नेता पीछे झंडा उठाये
इस धंधे का है ख़ूब पगार जी !
कुछ नही करते तो नेता बनो
या नेता के अच्छे चाटुकार जी,
जनता, देश से न कोई मतलब
बस बन तो जाये सरकार जी !
कई पीढ़ियों के भर लिए ख़ज़ाने
सोना-चांदी है इनका आहार जी,
इन बंगलों में खूब गुलछर्रे उड़ाते
वो ‘वोटर’ बीच फँसे मझधार जी !
— *राजकुमार ‘मसखरे’*