अहल्या अथवा अहिल्या सनातन धर्म की कथाओं में वर्णित एक स्त्री पात्र हैं, जो गौतम ऋषि की पत्नी थीं। कथाओं के अनुसार यह गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री थी।
अहिल्या (खण्डकाव्य)- सुकमोती चौहान रुचि
सघन वनों के बीच , बना इक आश्रम अनुपम ।
चहक रहे खगवृंद , क्षेत्र है पावन उत्तम ।
सरयू बहती पास , हंस तैराकी करते ।
अपनी भार्या संग , वहाँ ऋषि गौतम रहते ।
जो हैं सागर ज्ञान की , बही न्याय गंगा वहाँ ।
कोटि नमन भूखण्ड को , धर्म वेद पढ़ते जहाँ ।।1।।
मलय पवन की गंध , सदा सुरभित करती है ।
दुखी जनों के पीर , सदा पल में हरती है ।
खिली लताएँ डाल , तितलियाँ झूमे नाचें ।
भंवर गूँँजन नाद , कली कुंजन के ढाचें ।
हरा भरा वातावरण , सरसाते सुख स्वर्ग ये ।
गौतम पर्ण कुटीर से , निकली हुई निसर्ग ये ।।2।।
गौतम जी के साथ , अहिल्या सुंदर नारी ।
सुंदरता प्रतिमान , सती माता सुकुमारी ।
पति पग को संसार , मानती जो थी हरदम ।
हरपल आठों याम , चरण सेवी सी मरहम ।
रूप रंग सौंंदर्य शुचि , गुणी अहिल्या मात थी ।
हर गुण से सम्पन्न थी , इक अनुपम सौगात थी ।।3।।
रूप रंग को देख , खोजता अवसर कामी ।
कामातुर देवेन्द्र, काम का रोगी नामी ।
देख अकेली नारि , भेष ऋषि का कर धारण ।
मान किया वह भंग , पाप का बनकर कारण ।
गौतम महर्षि तब वहाँ , आये आश्रम में तभी ।
माता विस्मित थी बड़ी , कौन सत्य असली अभी ।।4।।
क्रोधित हुए महर्षि , कोप से संयम टूटा ।
दिये श्राप तत्काल , बूद्धि भी तत्क्षण छूटा ।
रह बनकर पाषाण , आचरण है जड़ जैसा ।
किया तुम्हीं ने पाप , अहिल्या तुमने वैसा ।
तब से माता पाषाण बन , सहती दुःख अपार है ।
भोग रही है श्राप को , फँसी वह मझधार है ।।5।।
वन का यह भू भाग , लगा खोने हरियाली ।
सूखे जीवन धार , लगे सब खाली – खाली ।
एक भूल की आज , व्यथा भारी दिखती है ।
ऐसा कारुण लेख , भाग्य खुद लिखती है ।
बना खंडहर आज है , कुटिया जो थी भव्य कल ।
जीर्ण शीर्ण अवशेष है , जो थी शाश्वत सुख महल ।।6।।
मिथिला की वह भूमि , दिखी जो अतीव निर्जन ।
लगता उजड़ा बाग , संपदा में जो निर्धन ।
टूटी पर्ण कुटीर , वहाँ पसरा सन्नाटा ।
बहे निराशा भाव , चुभा ज्यों कोई काँटा ।
उस आश्रम के पास ही , बड़ी शिला के रूप में ।
पड़ी अहिल्या मातु है , पीड़ा सहती धूप में ।।7।।
करती किससे बात , पड़ी एकाकी जीती ।
इस दुनिया का दंश , जहर जीवन का पीती ।
सहनशील थी नारि , शिकायत कभी न करती ।
असहनीय यह पीर , मौन होकर सब सहती ।
करे नहीं आरोप वह , भाग्य लेख वह समझती ।
जड़वत स्थिति में है पड़ी , पीड़ा पल – पल बरसती ।।8।।
खुद ही खुद से बात , बावरी सी करती है ।
करती खुद ही प्रश्न , खोज उत्तर भरती है ।
दुखी अहिल्या मातु , नहीं इसके सम कोई ।
पड़ी अकेली नार , भाग्य पर अपनी रोई ।
अंदर ही कुढ़ती रही , बोझ लिए अपने हृदय ।
क्षोभ निराशा ग्लानि के , मत में होता मन विलय ।।9।।
खुद ही पक्ष विपक्ष , साक्ष्य पीड़ा की खुद ही ।
दुख में रही कराह , किसी ने ली नहिँ सुध ही ।
स्वामी अंतर्ध्यान , अकेला मुझको छोड़े ।
जो थे जीवन ज्योति , वही मुझसे मुँह मोड़े ।
आत्म तत्त्व मेरा पृथक , सह दे वार्तालाप में ।
धैर्य बँधाता है सदा , मुझको करुण विलाप में ।।10।।
समझे ये संसार , बनी मैं केवल पाहन ।
रही नहीं मैं जीव , नहीं जीवन हो वाहन ।
माने सब निर्जीव , परे सुख दुख से मुझको ।
भूल गये सब लोग , शिला जो समझे मुझको ।
जड़ समझो मुझको नहीं , जीवित है संवेदना ।
मौन पड़ी सब भोगती , जागृत मेरी चेतना ।।11।।
मौसम का बदलाव , झेलती हूँ मैं भी नित ।
जगे भाव अनुभाव , हृदय में मेरे नियमित ।
बारिश की बौछार , भिगोता जाता मुझको ।
नहीं छावनी पास , कहूँ दुखड़ा मैं किसको ।
मन ही मन कुढ़ती रही , देखो मेरी हीनता ।
दुनिया स्वार्थी है बहुत , नहीं देखती दीनता ।।12।।
बहती आँसू धार, लगी झरने दो धारा।
घटे नहीं संताप, मिला कोई न सहारा।
पक्षी अभ्यारण्य, विरानी में डूबा है।
चींटी चले न एक, लगे दृश्य अजूबा है।
जाना मैंने है अब सखी, बदला रीत रिवाज है।
परित्याग का परिणाम भी, बड़ा भयंकर आज है।।13।।
बिन साथी के जीव, जिए ये जीवन कैसे।
बिन जल सारे पौध, सूखने लगते जैसे।
सभी शिला ही मान, भूलते मेरी पीड़ा।
जाती बन मैं पीस, संग ज्यों गेहूँ कीड़ा।
अबला हूँ हाँ सत्य ही, हाँ हूँ बेचारी बड़ी।
फिर भी हारी हूँ नहीं, हक पाने में हूँ अड़ी।।14।।
विहग न मारे पंख, तुहिण भी पास न उगती।
गई चींटियाँ भाग , नहीं दाना अब चुगती।
रंगत खोये पुष्प, भ्रमर बिन जियरा तरसे।
क्षय हो जीवन शक्ति, दुःख की बदली बरसे।
सहभागी बन पुष्प ये,डूबे मेरे शोक में।
वरना है मिलता कहाँ, अपनापन इहलोक में।।15।।
पंचभूत सिद्धांत , जगत में अगर न होती।
हवा गगन जल भूमि , आसरा सबका खोती ।
नियम बद्ध ये तत्व , सृष्टि में साथ सकारे ।
मैं हूँ जिंदा लाश , छोड़िए हाथ हमारे ।
सद मुक्ति मार्ग पथ तो मिले , आओ मेरे राम तुम ।
इंतजार अब होता नहीं , आओ मेरे धाम तुम ।।16।।
सदियों से हूँ कैद , शिला की इस सीमा में ।
तिल- तिल मरती रोज , समय गति की धीमा में।
अंग अकड़ते नित्य , पड़ी इक मुद्रा में स्थिर।
नित्य फूलती साँस , प्राण फिर भी मेरे चिर।
खड़ा कौन ऐसा अचल , जीव सृष्टि में है अहो।
मुझ सा है दुर्भाग्य में , बड़ा कौन जग में कहो।।17।।
मर्यादा के बंध , स्त्रियों के लिए बने हैंं ।
पुरुष हेतु है छूट , स्त्रियों के लिए तने हैं ।
दुख की है ये बात , न मुझको इसमें पड़ना ।
पति का ही आदेश , मुझे है पालन करना ।
शिला रूप मैं यत्र ही , इंतजार है राम का ।
वचन यही है नाथ का ,मान रखूँ पैगाम का ।।18।।
जीवन के उद्देश्य , बिना मुश्किल है जीना।
छोड़ दिया भरतार, निराशा पड़ता पीना।
तम मय ये संसार, लगे सब कुछ ही नश्वर।
प्राणनाथ के साथ, गया मेरा जीवन तर ।
छोड़ गये असहाय सब, फिर देखा मुड़कर नहीं।
ली सुधि न किसी ने कभी , जिक्र नहीं मेरा कहीं।।19।।
चूड़ी मेरे हाथ , माँग भी है सिंदूरी ।
सब सुहाग के चिन्ह , लगाने की मंजूरी ।
रुठा भाग्य अब हाय , परित्यक्ता कहलाऊँ ।
दूर गये प्राणेश , नहीं मैं दर्शन पाऊँ ।
नैन निहारे एक टक , जिस रास्ते थे तुम चले ।
पग रज आँखें चूमती , प्रियतम अब तो दिन ढले।।20।।
नीली पीली लाल , खनक चूड़ी का सुनकर ।
आँखें अपनी खोल , देखते थे तुम हँसकर ।
फूलों का श्रृंगार , तुम्हारे मन को भाते ।
सुखमय था दाम्पत्य , सुखद दिन साथ बिताते।
आँधी आई इक प्रिये , उजड़ गया तब घोसला।
क्षण भर में ही कर गया , मन मंदिर को खोखला।।21।।
जब है नार कुरूप , जगत ये मारे ताने ।
होती नहीं विवाह , कुलक्ष्णी उसको माने ।
जब है सुंदर नार , दृष्टि गंदी मन लाये ।
मान भंग का दंश , एक नारी ही पाये ।
नहीं किसी में सुख मिले , जीने को मजबूर है ।
हाय विधाता क्या कहूँ , किसका यहाँ कसूर है ।।22।।
जब होती हैं बाँझ , कहे मुख दर्शन मत कर ।
धात्री पर है भार , पेट इनका तू ही भर ।
दीर हुई गर नार , उसी को माने दोषी ।
छोड़ गई ससुराल , मान ली जाती रोषी ।
सब में नारी का दोष ही , दिखता हर इंसान को ।
होता वह नर निर्दोष है , भंग किया जो मान को।।23।।
छी छी करते लोग , घृणा सबकी मैं सहती ।
जीती हूँ अभिशप्त , नहीं कुछ भी मैं कहती ।
कहो विधाता तात , दिये किस्मत हो कैसी ।
जो रहती निर्दोष , सज़ा पाती वह ऐसी ।
और सज़ा इतनी कठिन , सदियाँ जाती है गुजर ।
पूरी दुनिया दोष दे ,जाय देखते ही मुकर ।।24।।
हाय विधाता रीत , बनाई कैसी तुमने ।
अग्नि परीक्षा नित्य , स्त्रियों को आतुर भुनने ।
श्राप शीश पर धार , मैं बनी हूँ इक पत्थर ।
अंधा हुआ समाज , पड़ी हारी मैं थककर ।
लज्जित करती तंत्र है , जो नारी है भोगिता ।
बेशर्मी पर्दा उठा , न्यायालय संयोगिता ।।25।।
मुझसे गलती एक, हुई थी अनजाने में।
हुआ नहीं है न्याय, सुनाई नहिँ थाने में ।
मैं अबला अनजान, गलत मुझको ही समझे ।
उँगली का ये वार, देख मुझमें ही उलझे।
पुरुष प्रधान समाज ये , नारी को ही दोष दे ।
करके तर्क वितर्क ये , नारी को ही रोष दे ।।26।।
पति परेश्ववर रूप , पास आया जो मेरे ।
समझी निज भरतार , हूबहू रूप उकेरे ।
मैं पति सेवी नार , मना भी कैसे करती ।
जीवन के आधार , बिना मैं कैसे रहती ।
पर्दा उठा रहस्य से , आत्म ग्लानि से भरी ।
मेरे मुख पढ़ते अगर , नहीं वचन कहते खरी ।।27।।
दुख की यह है बात , मुझे प्रिय समझ न पाये ।
करना था विश्वास , मगर कर आप न पाये ।
सिद्ध जितेन्द्रिय आप , क्रोध को जीत न पाये ।
यही पक्ष कमजोर , आप जो समझ न पाये ।
शांत अगर रहते प्रिये , तभी समझते विवशता ।
तभी नजर आती तुम्हें , मेरी क्या थी विषमता ।।28।।
पति की इच्छा मात्र, सदा ही आज्ञा जाना।
उनके सेवा कार्य, सदा सर्वोपरि माना ।
फिर भी दोषीदार , जगत ये मुझको माने ।
इक पल में सब खत्म , हुए अपने बेगाने ।
डोरी ही विश्वास की , इतनी जब कमजोर है ।
करे गर्व फिर भी पुरुष , धिक धिक कैसा चोर है ।।29।।
देते अगर न श्राप , न इतनी होती निंदा ।
नहीं घृणित मैं पात्र , नहीं मैं पाहन जिंदा ।
नारी के श्रद्धेय , नाथ मेरे तुम होते ।
सबसे आदरणीय , नमित मन भाव पिरोते ।
होता संत स्वभाव ये, आभूषण होता क्षमा।
क्रोध शमन करते अगर , मानसपट में हो जमा ।।30।।
मेरी बस थी चाह , मुझे तुमसे जाने जन ।
आप बने पहचान , चाहता था मेरा मन ।
इस अवसर का लाभ , नहीं क्यों आप उठाये ।
बनकर भगवन आम, कोप क्यों व्यर्थ दिखाये ।
बहते रहते नैन हैं , दोषी न तुम्हें मानती ।
मेरे प्रति जो सोचते, तुम्हें हितैषी जानती ।।31।।
बैठे बैठे नित्य , सोचती बातें नाना ।
कैदी का यह दुःख , महा भीषण है जाना ।
खालीपन का और , दुःख खलता जाता है ।
कुंठा हीनता भाव , क्रोध खुद पर आता है ।
मन के भावों का सामना , नित करती रहती यहाँ ।
कोई मेरा साथी नहीं , दुखड़ा बाँटू मैं जहाँ ।।32।।
पावस ऋतु का मेह , मुझे नहला पाता है ।
सालों का यह धूल , झड़ाकर ही जाता है ।
धन्यवाद हे मेह , लाख करती हूँ तेरी ।
भूख प्यास के दुःख , बुझाती जाती मेरी ।
चातक सा जीवन हुआ , केवल तुम हो आसरा ।
आते चलकर पास तुम , सीमित मेरा दायरा ।।33।।
मेरी बाँयी आँख , सखी क्यों फड़के सहसा ।
मिले शुभे संकेत , अचानक ये मन हरषा ।
रे मन कह तो बात , हुआ इतना क्यों खुश तू ।
तुझे मिला क्या रत्न , कि पाया है क्या सुख तू ।
कहती माता निज नजर , शनैः उठाने जब लगी ।
देखी दो कोमल चरण , नमन भाव मन में जगी ।।34
मातु अहिल्या पास , खड़े दो कुंवर भ्राता ।
परम दिव्य है रूप , देख सुख मन ये पाता ।
कोटि सूर्य की तेज , लगे उनके मुख मंडल ।
देह जनेऊ धार ,देत संदेशा मंगल ।
ठाठ राजसी राम का , धनुष बाण है संग में ।
सिद्ध पुरुष रघुवर लगे , कोटि कला है अंग में ।।35।।
सूर्य वंश के सूर्य , पधारे उस कानन में ।
लिए भाव संतोष , चमक अद्भुत आनन में ।
पग धारे श्रीराम , पाँव रज पाहन वारे ।
प्रगट भई इक नार , रूप रमणी अवतारे ।
प्रभु ने देखा नैन निज , पाहन नारी रूप धर ।
सम्मुख उनके है खड़ी , अपने दोनों जोड़ कर ।।36।।
लगे पूछने राम , कौन हो हे देवी! तुम ।
कहाँ तुम्हारा धाम , हुई क्या घर से तुम गुम।
कहिए सब वृत्तांत , खोलिए अपनी वाणी।
कहने का अधिकार , कहे निश्चय हर प्राणी।
परिचय अपना दीजिए , सहायता क्या हम करें ।
देवी कल्याणर्थ सब , शूल आपके हम वरें ।।37।।
कौन कहाँ से आप , कहो आई हो देवी !
बनकर तुम पाषाण , रही बन किसकी सेवी ।
लगती बड़ी कुलीन , वेष भी सात्विक धारी ।
तपस्विनी जस आप , हुई किस कारण नारी ।
कौन गौत्र कुल जात है , कौन तुम्हारा तात है ।
कहो तुम्हें जो ज्ञात है , सत्य कहो क्या बात है ।।38।।
करके उन्हें प्रणाम , अहिल्या माता भोली ।
सुनकर प्रभु की बात , मधुर वाणी से बोली ।
सुनें व्यथा रघुनाथ , नमन मेरा स्वीकारें ।
कर मेरा उद्धार ,आप ही मुझे उबारें ।
भाग्योदय मेरा हुआ , मुझे आप दर्शन दिये ।
मुझे पाप से मुक्त कर , सुगति मुझे भगवन दिये ।।39।।
हे रघुवर श्रीराम , नारि मैं हूँ बेचारी ।
जग के पालनहार , ब्रह्म की राजदुलारी ।
हे प्रभु दीनानाथ , एक दुखिया मैं नारी ।
गौतम ऋषि भरतार , प्रेम जिनका मैं हारी ।
पति की दासी हूँ बड़ी , सुनो अहिल्या नाम है ।
जंगल बीच कुटीर यह , मेरा पावन धाम है ।।40।।
छलिया का छल एक , ग्रहण जीवन में आया ।
उजड़ा सुखी गृहस्थ , दिलाया पाहन काया ।
कहा न मुझसे जाय , आप खुद अंतर्यामी ।
त्रिकाल दर्शी आप , दूर करते हो खामी ।
पाकर पावन धूलि मैं , मुक्त हुई उस श्राप से ।
अनजाने जो हो गया , महा घृणित उस पाप से ।।41।।
इस जीवन से मुक्ति , दीजिए हे नारायण ।
चाहूँ अब मैं मोक्ष , करें प्रभु दोष निवारण ।
पतित पावनी भक्ति , कभी मानव मत भूलो ।
अपनाकर आदर्श , मर्म को तुम भी छू लो ।
हे प्रभुवर परमात्म में , मेरा देह विलीन हो ।
चाहे पापी हो महा , चाहे कोई दीन हो ।।42।।
राम कहे सुन बात , आप हो महान देवी ।
याद करेंगे लोग , आप ऐसा पति सेवी ।
सदा पाक हो आप , रखो मत शंका कोई ।
जितनी गंगा नीर , पाक उतनी ही होई ।
सभी आपका नाम भी , लेंगे अति सम्मान से ।
आप सदा नमनीय हो , देवी निज कुर्बान से ।।43।।
परमात्म में विलीन , अहिल्या माता होकर ।
पाई कृपा अनन्य , भक्ति की बेली बो कर ।
ऋषि मुनि करें न प्राप्त , वही पदवी पाई है।
दिये स्वयं आशीष , जनार्दन श्री साईं है ।
रुचि आत्मा वह दिव्य थी , जग करता है नमन ।
कथा परम नमनीय है , करे जगत में ये अमन ।। 44।।
उनको करूँ प्रणाम , पंचकन्या कहलाते ।
उनमें से है एक , अहिल्या देवी माते ।
जिनका नाम महान , लिए श्रद्धा से जाते ।
पूजनीय नारित्व , पाक रखती सब नाते ।
मिली मुझे है प्रेरणा , अनुपम पावन शास्त्र से ।
धुल जाते सब पाप हैं , जिनके सुमिरन मात्र से ।।45।।
मैं मूरख खल काय , महा अज्ञानी नासी ।
रुचि मेरा है नाम , पंचकन्या की दासी ।
करो नाथ उद्धार , तुच्छ मैं प्राणी पतिता ।
शरण लीजिए नाथ , चरण रज दे दो शुचिता ।
गंदी नाली की नीर हूँ , आप कहो तो मैं बही ।
आप प्रेरणा सागर प्रभो , एक बूँद भी मैं नहीं ।।46।।
सुकमोती चौहान “रूचि”