बीच चौराहे बेइज़्ज़त हुआ क्या मेरा आत्मसम्मान नही था पलट के देता उत्तर मैं भी पर दोनो के लिए कानून सामान नहीं था वो मारती गई , में सहता गया क्या गलती है मेरी दीदी ये मैं कहता गया वो क्रोध की आग में झुलस रही थी नारी शक्ति का सहारा लेकर मचल रही थी अगर कानून दोनो के लिए एक जैसा होता फिर बताता तुझे आत्मसम्मान खोना कैसा होता।
विधवा पर कविता का विषय अक्सर समाज की उन कठिनाइयों और चुनौतियों को दर्शाता है, जो एक महिला को अपने पति के निधन के बाद सहन करनी पड़ती हैं। ये कविताएँ उसकी आंतरिक पीड़ा, संघर्ष, समाज की कठोरता, और कभी-कभी उसके पुनर्जीवन और आत्म-सशक्तिकरण की भी कहानी कहती हैं।
विधवा पर कविता
जो वक्त से पहले हो जाती हैं विधवाएं
वे मांए जो वक्त से पहले हो जाती हैं विधवाएं वे कभी- कभी बन जाया करती हैं प्रेमिकाएं उनके अंदर भी प्रेम फ़िर से एक नए रंग में दाखिल होने लगता है लेकिन उनका ये बदला रूप चुभने लगता है ऐसे समाज ,परिवार और घर को जो सिर्फ़ करते हैं बातें सतही वे नहीं सहन कर पाते ऐसे बदलाव को जिसमें होती है उनकी छवि धूमिल जिसे गढ़ा जाता रहा है ख़्वाहिशों की अधमरी पीठ पर उन्हें चाहिए रहती ,सदा वो भोली गुड़िया जिसे अपने हिसाब से चलाया जा सके जब तक विधवाएं अपने गुज़रे पति की याद में आंसू बहाती हैं तब तक बेचारी ,अबला ,अकेली ,कैसे काटेगी ज़िंदगी अकेले बोलकर ज़ाहिर करते हैं संवेदनाएं लेकिन जब वे ख़ुद को संवारने, स्व जीने की करती हैं कोशिश तब दखता है दोगला रूप समाज का कुल्टा ,चरित्रहीन ,बेशर्म ,घर का नाश करने वाली डायन आदि अनगिनत नामों को अपने नाम के पर्याय से दर्ज़ करवा चुकी होती हैं विधवाएं
विभा परमार,पत्रकार थिएटर आर्टिस्ट। बरेली उत्तर प्रदेश।
विधवा
जीवन की राहों पर चली अकेली, उसका सहारा छिन गया, बस यादें ही सजीली। सपनों का संसार बिखर गया, जीवन का साथी जब बिछड़ गया।
सजी थी जिस बगिया में खुशियों की बहार, अब वहाँ सिर्फ़ दर्द का आलम है हर बार। समाज की बेड़ियों में जकड़ी, हर कदम पर सवालों से टकराती।
क्या उसकी हँसी अब गुनाह है? क्या उसकी जिंदगी का अब यही सरताज है? आँखों में आंसू, दिल में दर्द, फिर भी जीने का करती है हर रोज़ मर्द।
अपनों ने भी उसे त्याग दिया, उसके अस्तित्व को जैसे नकार दिया। पर वो फिर भी हिम्मत से लड़े, जीवन की इस कठिन राह पर बढ़े।
उसके दिल की गहराई में उमंग की लौ, आशा की किरण से भरी हो नई भोर। वो फिर से अपने पंख फैलाएगी, नए सपनों की उड़ान भरेगी।
समाज के तानों से ऊपर उठकर, अपने जीवन को नई दिशा देगी। विधवा नहीं, एक सशक्त नारी, जो अपनी ताकत से नया सूरज चढ़ाएगी।
यह कविता विधवा स्त्रियों की पीड़ा और संघर्ष को शब्दों में पिरोती है, साथ ही उनके आत्मविश्वास और पुनर्जागरण की उम्मीद को भी दर्शाती है।
डॉ. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक शिक्षक ने गुरु की गरिमा को तब शीर्षस्थ स्थान सौंपा जब वे भारत जैसे महान् राष्ट्र के राष्ट्रपति बने। उनका जन्म दिवस ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
“शिक्षक दिवस मनाने का यही उद्देश्य है कि कृतज्ञ राष्ट्र अपने शिक्षक राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के प्रति अपनी असीम श्रद्धा अर्पित कर सके और इसी के साथ अपने समर्थ शिक्षक कुल के प्रति समाज अपना स्नेहिल सम्मान और छात्र कुल अपनी श्रद्धा व्यक्त कर सके।
शिक्षक का दर्द
कहाँ गए वो दिन सुनहरे! शाला में प्रवेश करते ही, अभिवादन करते बच्चे प्यारे, श्यामपट को रंगीन बनाते, चाॅक से सनी उँगलियों को निहारते, बच्चों की मस्ती देखते, खुशी मनाते,खुशी बांटते, बच्चों संग बच्चे बन जाते, माँ बन बच्चों को सहलाते, गुरू बन फिर डांट लगाते, मित्र बन फिर गले लगाते, ज्ञान बांटते,मुश्किल सुलझाते, भविष्य के सपने दिखलाते, उन्हें सच करने की राह बतलाते, अनगिनत आशाएँ जगाते, भाईचारे का सबक सिखलाते। कहां गए वो दिन सुनहरे! कब आयेंगे वो दिन उजियारे? फिर आए वह दिन नया सुनहरा, फिर से खुले हमारा विद्यालय प्यारा। फिर से बजे शाला की घंटी प्यारी, कानों में गूँजे बच्चों की किलकारी।