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  • कहां पर खो गया हिंदुस्तान?- शिवराज सिंह चौहान

    कहां पर खो गया हिंदुस्तान?

    खुदा खौफ खाए बैठे,
    भयभीत भये भगवान।
    ये कैसा हो गया हिंदुस्तान,
    कहां पे खो गया हिंदुस्तान।।

    कोख में बैठी बेटी भी,
    ये सोच सोच घबराए।
    जन्म से लेकर मरण तलक,
    सब नोच नोच कर खाएं।।
    चिंताओं से घिरी हुई,
    वो ढूंढ रही मुस्कान…..
    ये कैसा…..?

    लोलुप लंपट लवर लफंगे,
    वहसी व्याभिचारी।
    खुल्ले आम घूमते फिरते,
    जुल्मी अत्याचारी।।
    गली गली हर चौराहे पर,
    खड़े हुए हैवान….
    ये कैसा….?

    चिड़कलियों की चहक खो गई,
    कोयलिया की कूक।
    कुछ मुर्दा कुछ जिंदा लाशें,
    पूछे प्रश्न अचूक।।
    तेरे घर भी होगी मुझसी,
    बेटी बहन जवान….
    ये कैसा….?

    कहां गए वो कृष्ण कन्हैया,
    जो आकर चीर बढ़ाए।
    कहां गए वो राम लखन,
    जो असुरों को संहाये।।
    नामर्द यहां की सरकारें है,
    और न्याय निषप्राण….
    ये कैसा हो गया हिंदुस्तान?
    कहां पर खो गया हिंदुस्तान??

    :- *शिवराज सिंह चौहान*

    *नांधा, रेवाड़ी*
    *(हरियाणा)*

  • कुण्डलिया की कुण्डलियाँ- कन्हैया साहू ‘अमित’

    कुण्डलिया की कुण्डलियाँ।

    *******************************
    *कुंडलिया लिख लें सभी, रख कुछ बातें ध्यान।*
    *दोहा रोला जोड़ दें, इसका यही विधान।*
    *इसका यही विधान,आदि ही अंतिम आये।*
    *उत्तम रखें तुकांत, हृदय को अति हरषाये।*
    *कहे ‘अमित’ कविराज, प्रथम दृष्टा यह हुलिया।*
    *शब्द चयन है सार, शिल्प अनुपम कुंडलिया।*

    *रोला दोहा मिल बनें, कुण्डलिया आनंद।*
    *रखिये मात्राभार सम, ग्यारह तेरह बंद।*
    *ग्यारह तेरह बंद, अंत में गुरु ही आये।*
    *अति मनभावन शिल्प, शब्द संयोजन भाये।*
    *कहे ‘अमित’ कविराज, छंद यह मनहर भोला।*
    *कुण्डलियाँ का सार, एक दोहा अरु रोला।*
    *******************************

    ✍ *कन्हैया साहू ‘अमित’*✍

    © भाटापारा छत्तीसगढ़ ®
    सर्वाधिकार सुरक्षित सामग्री

  • बलात्कार पर कविता

    बलात्कार पर कविता

    हो रहे इन बलात्कारों का सबसे बड़ा जिम्मेदार।
    फिल्म, सीरियल मीडिया और विज्ञापन बाजार।

    अर्धनग्न तस्वीरों को मीडिया और इंटरनेट परोसता है।
    बालमन छुप-छुपकर इसमें ही अपना सुख खोजता है।

    फिल्मी गानें और नाच बच्चों को उकसाते हैं।
    विज्ञापन में नारी देह ही बार-बार दिखाते हैं।

    कमतर कपड़ों में दिखाते अश्लील आईटम डाँस।
    नैतिकता को छोड़ सिखाते, ऐसे करो रोमांस।

    सीरियलों में सुहागरात के सीन साझा करते हैं।
    प्रेगनेन्सी टेस्ट किट और बी.गेप भी सामने रखते हैं।

    माँ-बाप काम पर और बच्चा मोबाइल के साध होता है।
    पार्न साईड पर जाकर वह बच्चा जल्द जवानी ढ़ोता है।

    दादा-दादी के सीखों से जब बच्चा वंचित रहता है।
    बात-बात पर गंदी बात फिर वह मुँह पर रखता है।

    ऐसे सामाजिक माहौल में कौन बच्चा संस्कारी होगा?
    देख-देखकर दुनियादारी वही बालात्कारी होगा?

    पुलिस और सरकार के खिलाफ आवाज उठाकर क्या होगा?
    चौक-चौराहों पर संवेदना में मोमबत्तियाँ जलाकर क्या होगा?

    रोकना है तो इन सब बाजारवाद को रोको।
    अपनी सारी ताकत इनके खिलाफ ही झोंको।

    सजग रहें कि हमारी भी बेटी और बेटा है।
    कहीं इन्हें भी तो उसी सर्प ने नहीं लपेटा है।

    *कन्हैया साहू ‘अमित”*✍
    भाटापारा छत्तीसगढ़

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  • अपराधी इंसान पर कविता- R R Sahu

    अपराधी इंसान पर कविता

    सभी चाहते प्यार हैं,राह मगर हैं भिन्न।
    एक झपटकर,दूसरा तप करके अविछिन्न।।

    आशय चाल-चरित्र का,हमने माना रूढ़।
    इसीलिए हम हो गए,किं कर्तव्य विमूढ़।।

    स्वाभाविक गुण-दोष से,बना हुआ इंसान।
    वही आग दीपक कहीं,फूँके कहीं मकान।।

    जन्मजात होता नहीं,अपराधी इंसान।
    हालातों से देवता या बनता हैवान।।

    भय से ही संभव नहीं,हम कर सकें सुधार।
    होता है धिक्कार से,अधिक प्रभावी प्यार।।

    प्रेम मूल कर्तव्य है,वही मूल अधिकार।
    नहीं अगर सद्भावना,संविधान बेकार।।

    भूले-भटकों को मिले,अपनेपन की राह।
    ईश्वर धरती को सदा,देना प्यार पनाह।

    ————-R.R.Sahu
  • तुम धरा की धुरी -एल आर सेजु थोब ‘प्रिंस’

    तुम धरा की धुरी

    8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 March International Women's Day
    8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 March International Women’s Day

    नारी तुम धरा की धुरी
    तुम बिन सृष्टि अधूरी
    मूरत तुम नेह स्नेह, वात्सल्य
    तुम ममतामयी, तुम करुणानिधि ।

    माँ, बहन, बेटी और पत्नी
    तुम हर रूप की अवतारी
    चली हर कदम पुरुष के साथ
    बन जीवन रथ की धुरी ।

    त्याग व प्रेम की सूरत सी
    तुम मूरत हो प्यारी
    तुम से शुरू तुम पर ही खत्म
    तुम हो इस भू पर बगिया क्वारी ।

    तुम छली गई बार बार हर बार
    दबी तुम ठरके की ठेकेदारी से
    जब चाहे अस्मिता कुचलते रहे
    तुल्य समझ स्व भोग की वस्तु से ।

    वेदना व पीड़ा सहकर भी
    दर्द आँचक में समेटकर
    चली तुम पुरुष के संग संग
    पद चिन्हों को तराश कर ।

    अजीब विडंबना हैं हे नारी
    तुम भव भव से हारी
    एक हाथ पूजें धन लक्ष्मी को
    दूसरा हाथ गृहलक्ष्मी पर भारी ।

    करते रहे तुम कन्यापूजन
    कोख़ की कन्या का अंत भारी
    लूटते रहे अस्मत बालिकाओ की
    नभ पर गूंजी चित्कार दर्द भरी ।

    कोई नहीं समझा पीड़ परायी
    नारी तेरी बस यही हैं कहानी
    जीवन की विभीषिका में
    युगों से जौहर तुम रचाती रही ।

    नारी तुम नारायणी, तुम ही हो दूर्गा
    चलो तुम करके सिंह सवारी
    वध करो तुम महिषासुर का
    एक बार बन जाओ माँ काली ।

    वार करो तुम प्रहार करो
    अबला से बन जाओ सबला
    बचाओ अपने आत्म सम्मान को
    सर्वनाश कर दो उन जालिमों का ।।

    ✍एल आर सेजु थोब ‘प्रिंस’