अपराधी इंसान पर कविता- R R Sahu
अपराधी इंसान पर कविता
सभी चाहते प्यार हैं,राह मगर हैं भिन्न।
एक झपटकर,दूसरा तप करके अविछिन्न।।
आशय चाल-चरित्र का,हमने माना रूढ़।
इसीलिए हम हो गए,किं कर्तव्य विमूढ़।।
स्वाभाविक गुण-दोष से,बना हुआ इंसान।
वही आग दीपक कहीं,फूँके कहीं मकान।।
जन्मजात होता नहीं,अपराधी इंसान।
हालातों से देवता या बनता हैवान।।
भय से ही संभव नहीं,हम कर सकें सुधार।
होता है धिक्कार से,अधिक प्रभावी प्यार।।
प्रेम मूल कर्तव्य है,वही मूल अधिकार।
नहीं अगर सद्भावना,संविधान बेकार।।
भूले-भटकों को मिले,अपनेपन की राह।
ईश्वर धरती को सदा,देना प्यार पनाह।