पिता होने की जिम्मेदारी
दो बच्चों का पिता हूँ
मेरे बच्चे अक्सर रात में
ओढ़ाए हुए चादर फेंक देते है
ओढ़ाता हूँ फिर-फिर
वे फिर-फिर फेंकते जाते हैं
उन्हें ओढ़ाए बिना…
मानता ही नहीं मेरा मन
वे होते है गहरी नींद में
उनके लिए
अक्सर टूट जाती हैं
मेरी नींदें…
एक दिन
गया था गाँव
रात के शायद एक या दो बजे हों
गरमी-सी लग रही थी मुझे
नहीं ओढ़ा था चादर
मेरी आँखें मुंदी हुई थी
पर मैं जाग रहा था…
रात के अन्धेरे में
किसी हाथ ने ओढ़ा दिए चादर
उनकी पास आती साँसों को टटोला
पता चला वे मेरे पिता थे
गरमी थी
मगर मैंने चादर नहीं फेंकी
चुपचाप ओढ़े रहा
मैं महसूस कर रहा था
बच्चा होने का सुख…
और
पिता होने की जिम्मेदारी…
दोनों साथ-साथ..।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद