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पखवाड़े में सिमटी हिंदी

पखवाड़े में सिमटी हिंदी

पखवाड़े में सिमटी हिंदी,
 बेबस और लाचार सी,
 अपनों से अपमान है सहती,
 अपनों को ही पुकारती।
 जो अपनी ही माता को,
 माता कहने से शरमाता हो,
 जो निज राष्ट्रभाषा को खुलकर,
 बोलने से कतराता हो,
आने वाली उनकी पीढ़ी,
 अस्तित्व को नहीं स्वीकारती।
अपनों से अपमान है सहती,
 अपनों को ही पुकारती।
 मैं जिनकी बोली जिनकी भाषा,
 उनको ही मेरा मान नहीं,
 सम्मान और अपमान का जिनको,
 लेश मात्र भी ज्ञान नहीं,
 ऐसे निर्लज्ज नपुंसक जन को,
 आज हुं मैं धिक्कारती।
 अपनों से अपमान है सहती,
 अपनों को ही पुकारती।
 स्वाभिमान गर लेश मात्र भी,
 बचा हो मेरे लाल तो सुन,
 रच- बस जा अपनी भाषा संग,
 बता जगत को इसके गुण,
 गुंजेगा धरती से नभ तक,
 जय जय जय मां भारती।
 अपनों से अपमान है सहती,
 अपनों को ही पुकारती।
                           रचना-सरोज कुमार झा।

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