प्रकृति का प्रचंड रूप

प्रकृति का प्रचंड रूप



हे मनुज!
तेरी दानव प्रवृत्ति ने
खिलवाड़ धरा से बार बार किया।
फिर भी शांत रही अवनि
हर संभव तेरा उपकार किया।
तेरी लालसा बढ़ती गई
जो वक्त आने पर उत्तर देगी।
मत छेड़ो सोई धरती को
प्रचंड रूप धर लेगी।।

इसने चीर अपना दामन
तुम्हें अन्न धन का भंडार दिया।
सुर असुरों को पालने वाली
बराबर सबको ममता, प्यार दिया।
कोख में रखती हर अंकुर को
स्नेह आंचल में भर लेती।
मत जला पावन आंचल
प्रचंड रूप धर लेगी।।

घन इसकी केश-लटाएं
अम्बर चुनरी सी फैले।
दरख़्त रूपी हाथ काटकर
कर लिए तुने जीवन मैले।
इसका क्रोध भूकंप,जवाला है
जब चाहे उभर लेगी।
महामारी, सूखे, बाढ़ से,
प्रचंड रूप धर लेगी।।

जो वरदान मिले हैं मां से
स्वीकार कर सम्मोहन कर ले।
जितनी जरूरत उतना ही ले
उचित संसाधन दोहन कर ले।
बसा बसेरा जीव, पक्षियों का..
मां है माफ कर देगी।
चलना उंगली पकड़ धरा की वरना
प्रचंड रूप धर लेगी।।

रोहताश वर्मा ” मुसाफिर “

पता – 07 धानक बस्ती खरसंडी, नोहर
हनुमानगढ़ (राजस्थान)335523

शिक्षा – एम.ए,बी.एड हिन्दी साहित्य।

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