ऋतुराज बसंत- शची श्रीवास्तव
पग धरे धीर मंथर गति से
ये प्रकृति सुंदरी मदमाती,
ऋतुराज में नवयौवन पाकर
लावण्य रूप पर इतराती।
ज्यों कोई नवोढ़ा धरे कदम
दहलीज पर नए यौवन की,
यूं धीरे धीरे तेज़ होती है
धूप नए बसंत ऋतु की।
पीली सरसों करती श्रृंगार
प्रकृति का यूं बसंत ऋतु में,
अल्हड़ सी ज्यूं कोई बाला
सज धज बैठी अपनी रौ में।
अमराई से महक उठी हैं
तरुण आम की मंजरियां,
कैसे कूके मीठी कोयल
बिखराती संगीत लहरियां।
भौरे ने छेड़ा मधुर गीत
सुना जब आया है मधुमास,
पुहुप सब रहे झूम हो मस्त
छेड़ प्रेम का अमिट रास।
प्रेयसी मगन मन में बसंत
छाए मधु रस ज्यों रग रग पर,
अभिसार की चाह जगाए रुत
ऐसे में करो न गमन प्रियवर।।
ऋतुराज बसंत- शची श्रीवास्तव