संयुक्त राष्ट्र दिवस पर कविता
मैं पृथ्वी,
सुनाती हूं अपनी जुबानी
साफ जल, थल, वायु से,
साफ था मेरा जीवमंडल।
मानव ने किया तिरस्कार,
बर्बरता से तोड़ा मेरा कमंडल।
दूषित किया जल, थल, वायु को
की अपनी मनमानी ।
मैं पृथ्वी,
सुनाती हूं अपनी जुबानी।
उत्सर्जन जहरीली गैसों का,
औद्योगिकरण का गंदा पानी,
वन नाशन,अपकर्ष धरा का
निरंतर बढा़ता चला गया।
ऋषियो, मुनियों ने माना था,
मुझे कुदरत का सबसे बड़ा उपहार।
मुझसे ही तो जीवन था सबका साकार,
भूल रहा था मानव
जब अपना कर्तव्य व्यवहार।
जागरूक उसे करने के लिए,
तह किया संयुक्त राष्ट्र दिवस का वार।
किन्तु संपूर्ण विश्व के राष्ट्र
ना करना अब मुझे निराश,
आपके सहयोग से ही बंधेगी मेरी आस।
वन रोपण, भूमि संरक्षण,
आपसी भेदभाव में सबका योगदान।
संयुक्त होना ही तो ,
है अंतिम निदान,
आने वाली पीढ़ियों का सच्चा उद्यान।
अरुणा डोगरा शर्मा
मोहाली
८७२८००२५५५
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कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद