ढूँढूँ भला खुदा की मैं रहमत
ढूँढूँ भला खुदा की मैं रहमत कहाँ कहाँ,
अब क्या बताऊँ उसकी इनायत कहाँ कहाँ।
सहरा, नदी, पहाड़, समंदर ये दश्त सब,
दिखलाए सब खुदा की ये वुसअत कहाँ कहाँ।
हर सिम्त हर तरह के दिखे उसके मोजिज़े,
जैसे खुदा ने लिख दी इबारत कहाँ कहाँ।
सावन में सब्जियत से है सैराब ये फ़िज़ा,
बहलाऊँ मैं इलाही तबीअत कहाँ कहाँ।
कोई न जान पाया खुदा की खुदाई को,
(ये गम कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ।)
अंदर जरा तो झाँकते अपने को भूल कर,
बाहर खुदा की ढूँढते सूरत कहाँ कहाँ।
रुतबा-ओ-जिंदगी-ओ-नियामत खुदा से तय,
इंसान फिर भी करता मशक्कत कहाँ कहाँ।
इंसानियत अता तो की इंसान को खुदा,
फैला रहा वो देख तु दहशत कहाँ कहाँ।
कहता ‘नमन’ कि एक खुदा है जहान में,
जैसे भी फिर हो उसकी इबादत कहाँ कहाँ।
सहरा = रेगिस्तान
दश्त = जंगल
वुअसत = फैलाव, विस्तार, सामर्थ्य
सिम्त = तरफ, ओर
मोजिज़े = चमत्कार (बहुवचन)
सब्जियत = हरियाली
सैराब = भरा हुआ
मसर्रत = खुशी
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया