देश की आभा
स्वार्थ के वश सब अपनी सोचे ,
देश की है किसको चिंता ।
एक स्वार्थ से सब स्वार्थ सधेंगे,
सोचो तुम जो हो जिन्दा ।
बाग ही गर जो उजड़ गया तो ,
फूल कहाँ रह पायेगा ।
गुलशन भले ही आज सजा हो ,
पतझड़ में मुरझाएगा ।
एक-एक से मिलकर हम अब ,
सवा अरब के पार हुए ।
एक पेट और हाथ है दो , फिर भी,
पूर्ण आबाद न आज हुए ।
माना यह कि दो सौ बरसों की ,
हमने गुलामी भी सही ।
पर सत्तर बरसों की आजादी ,
कम भी तो होती नहीँ ।
कहीँ चूक तो हमसे हुई ना ,
सोचो फिर चिंतन करके ।
आजादी की हाला पीकर ,
होश हमारे हुए फुर्र से ।
आजादी मिलने भर से न ,
लक्ष्य हमें मिल पायेगा ।
दौड़ में जो हम सुसुप्त हुए तो ,
कछुआ जीत ही जायेगा ।
देखो फिर से’ उगते सूर्य ‘(जापान) को,
देशों में जो मिसाल बना ।
कोप न जाने कितने सहकर ,
आबाद (विकसित) सम्भल
कर आज बना ।
राष्ट्रभक्ति का वो ही जज्बा , गर ,
देश-जन न ला पायेगा ।
लघु पड़ोसी होते हुए भी ,
कोई भी आँख दिखाएगा ।
अब भी समय है लोकतन्त्र की ,
ज्वाला और प्रज्वलित करो ।
एक-एक कर सब मिलकर ही ,
देश को फिर संगठित करो ।
राष्ट्र यज्ञ में एक आहुति ,
हर-जन की जब भी होगी ।
देश की आभा फिर हो सोने सी ,
उन्मुक्त गगन का हो पंछी ।
✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज)*