Tag: *ग्रामीण परिवेश पर आधारित कविता

  • थके हुए हैं पाँव दूर बहुत है गाँव

    थके हुए हैं पाँव दूर बहुत है गाँव

    थके हुए हैं पाँव दूर बहुत है गाँव

    थके हुए हैं पाँव दूर बहुत है गाँव

    थके हुए हैं पाँव, दूर बहुत है गाँव,

    लेकिन हमको चलना होगा |

    ढूंढ रहे हम ठाँव, लगी जिंदगी दाँव,

    ठोकर लगे, संभलना होगा |

    कर्मभूमि को अपना समझा,

    जन्मभूमि को छोड़ दिया |

    वक़्त पड़ा तो दोनों ने,

    हमसे रिश्ता तोड़ लिया |

    यहाँ मिली ना वहाँ मिली,

    बुरे वक़्त में छाँव |

    दूर बहुत है गाँव……………

    ना गाडी, न कोई रेल,

    पैदल हमको चलना होगा |

    अजब जिंदगी के हैं खेल,

    आज नहीं, तो कल क्या होगा ?

    खेल-खेल में हम सबका,

    उलट गया है दाँव |

    दूर बहुत है गाँव……………

    – उमा विश्वकर्मा, कानपुर, उत्तरप्रदेश

  • हमर गंवई गाँव

    हमर गंवई गाँव

    1 आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव
    गड़े नही अब कांटा खोभा
    तुंहर कुँवर पांव
    आबे आबे सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    2 गली गली के चिखला माटी
    वहु ह अब नंदागे।
    पक्की सड़क पक्का नाली
    हमरो गांव म छागे।
    लइका मन बर स्कूल खुलगे
    जगाथे गाँव के नाव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गांव ।।

    3 नरवा खड़ म मील बनाहे
    बज -बजाथे खड़ ह।
    गोला गोला  पेड़ कटवाहे
    दिखे नहीं कोयली ह।
    कुँआ बउली कोन पूछे अब
    बोर खनागे गाँव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    4 पहिली के जंगल ह छटागे
    बघुवा भालू ह भगागे
    गाय गरु के चारा ह सिराथे
    गउ ठान ह सकलागे
    नई मिले अब छपरी छानी
    नईहे खदर के छाँव ।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    5 मिलजुल के हमर गाँव मनाथे
    जम्मों तीज तिहार।
    भेदभाव ह घुरूवा म पटागे
    आथे सबके  काम।
    खेलत कमावत दिन ह पहाथे
    रतिया मया के छाँव।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू ते
    हमर गंवई गॉव।।

    माधुरी डड़सेना
    नगर पंचायत भखारा
    छ .ग.

  • सुंदर सा मेरा गाँव

    सुंदर सा मेरा गाँव

    यही सुंदर सा मेरा गाँव
    पले हम पाकर सबका प्यार।
    यहाँ बनता नहीं धर्म तनाव
    यहीं अपना सुखमय संसार।
    बजे जब यहाँ सुबह के चार
    करें जब नृत्य विपिन में मोर।


    दिशा पूरब सिंदूर उभार
    निशा की गोद तजे  जब भोर।
    कृषक उठकर बैलों को खोल
    लिए अब चलें जहाँ गोआर।
    सुनो तब झंकृत घंटी बोल
    बँधे जो गले करें झंकार ।


    यहाँ पनघट में देख कतार
    लटे उलझीं और बिखरे केंश।
    कहीं कोई न दिखे श्रृंगार
    बहन या माँ सब सादे वेश।
    करें फुरसतिया स्वप्न विचार
    रहीं कुछ पहने वस्त्र संभाल।


    हुई क्या रात में यही  सार
    बता औ पूछ रहे वो हाल ।
    खुला अब मंदिर का भी द्वार
    बजाएंगे पंडित जी शंख।
    उगा सूरज अब रंग निखार
    उड़े खग नभ फैलाकर पंख।

    सुनील गुप्ता केसला रोड

    सीतापुर सरगुजा छत्तीसगढ