वृद्ध आश्रम पर कविता
आंखों में आंसू और
हर जगह उजाला से छाया |
जब वो नन्हा सा बालक
इस दुनिया में आया ||
दिन भर का थका भी
मैं भागा चला आता |
क्योंकि सो ना जाए वो
मेरा लाडला दुलारा ||
उसके बोल सुनकर
मैं खील उठाता दोबारा |
अभिमान है वो मेरा
मेरी आंखों का तारा ||
आज २५ का हो गया वो
घर लौट आया |
डिग्री के साथ अपनी
बीवी भी ले आया ||
उसकी खुशी में हमने
सब कुछ स्वीकारा |
आखिरी इकलौता ही
तो है सहारा हमारा ||
जिंदगी की रफ्तार
भी थम सी गई है |
रिटायरमेंट पत्र जो
आज हाथ में मेरे आया ||
सारा वक्त आज से
परिवार को समर्पित |
आराम करने का अब
मौका है मैंने पाया ||
न जाने अगले ही दिन
उसके तेवर क्यों है बदले |
वो बोला पिताजी आप
बस चाय पियो पड़े -पड़े ||
आज अपने ही घर में
मुझे पराया सा लगा |
इज्जत ना दीखी मेरी क्योंकि
अब पैसा हि ना बचा ||
मेरी पत्नी भी आज
फूट फूट कर रोई |
बोली बहु करे मनमानी
सुकून भी नसीब ना होई ||
वो बोला चलो पिताजी
आज घूमने है चलते |
बैग भी पैक कर ली है
हम बिताएंगे कुछ घंटे ||
आज राह भी मुझे
अनजानी सी लगी |
दिल में एक अलग ही
बेचैनी सी जगी ||
गाड़ी रोक उसने
हमारी झोली भी फेकी |
और बोला दोनो मत आना
कभी उस राह उस गली ||
मैं चकित सा रह गया
उस दृश्य को स्वप्न माना |
अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर
सामने देखा जो नजारा ||
जहां बहुत सारे निस्वार्थ लोग
खुद को कोस रहे थे |
कभी भी ऐसी औलाद ना हो
ऐसा बोल रहे थे ||
वह दुनिया ही अलग थी
जहां सब धोखा खा चुके थे |
क्योंकि वह वृद्ध आश्रम था
जहां सारे बेबस बुजुर्ग आ चुके थे ||
रमिला राजपुरोहित