सच बताना
सच बताना
बातें न बनाना
न मुंह चिढ़ाना
और हाँ!
मुझे नहीं पसंद तुम्हारा गिडगिडाना
कि मेरे मरने के बाद
तुम्हे मेरी सदा भी आएगी
कौन सी बात तुम्हे रुलाएगी
मुझे पता है
मेरे मरने के बाद भी
मैं थोडा बनी रहूंगी
जैसे रह जाती है
खंडहर होते मंदिर में
कभी गूंजी नूपुरों की झंकार
सुबह के चौंधियाते उजाले में
ठिठका चंद्रमा
रहूंगी तुम्हारे हाथ की
पिघलती आइसक्रीम में
जैसे पिघलती है उम्र
गल जाता है सब
मेरी अनुपस्थिति में भी
रहोगे तुम मेरे साथ
मुझे पता है मेरे जाने के बाद भी
मैं थोडा बनी रहूंगी
तुम्हारी हँसी में
रुलाई में
कल्पना में,
आंगन में,
कमरे में,
जैसे पलाश और अमलतास से झांकती है
कुसुमित पुरवायी.
मंजु ‘मन’