गुलाब पर कविता
गुलाब- गुल की आभा
मैं हूँ अलबेला गुलाब,
नहीं झुकता आए सैलाब।
आँधी या हो तूफान,
या तपे सूरज घमासान।
कांटो को लपेटे बनाए परिधान,
यही तो है मेरी पहचान।
मुझसे पूछो कैसे पाएँ पहचान,
मुस्कुराकर ले सबसे अपना सम्मान।
चुभ जाऊँ अगर मैं भूलकर,
फिर भी चूमा जाऊँ झुककर।
सजूँ सजाऊँ हर मौके पर,
यही तो ईश कृपा है मुझपर।
मुरझा कर सुगंध दे जाऊँ,
हर पल परिसर को महकाऊँ।
अपने नाम का अर्थ बताऊँ,
गुल से फूल और आब से आभा बन जाऊँ।
तभी तो हूँ मैं परिपूर्ण,
मेरे अस्तित्व के बिना उपवन अपूर्ण।
हाँ मैं ही तो हूँ अलबेला गुलाब,
फूलों का सरताज जनाब!!
माला पहल ‘मुंबई’