जलती धरती/शिव शंकर पाण्डेय
न आग के अंगार से न सूरज के ताप से।।
धरा जल रही है, पाखंडियों के पाप से।।
सृष्टि वृष्टि जल जीवन सूरज।
नार नदी वन पर्वत सूरज।।
सूरज आशा सूरज श्वांसा।
सूर्य बिना सब खत्म तमाशा।
सूर्य रश्मि से सिंचित भू हम
जला रहे हैं खुद आपसे।
धरा जल रही है पाखंडियों के पाप से।।
सूरज ही मेरी जिन्दगी का राज है।
सूरज हमारे सौरमंडल का ताज है
भूमि बांट कर गगन को बांटा।
मानवता पर मारा चांटा।।
मरी हुई मानवता को भी
टुकड़ों टुकड़ों में मैं काटा।
आज मर रहे हैं हम उसी के अभिशाप से।
धरा जल रही है पाखंडियों के पाप से।
बम गोली बारूद बनाया
मानव मानव पर ही चलाया
एक दूसरे को भय देकर
मारा काटा और भगाया
जिसने सारी सृष्टि बनाई
उसको भी मैंने ही बांटा है खुद अपने आप से।
धरा जल रही है पाखंडियों के पाप से।।
वन पर्वत नद नदी उजाड़ा
प्राणवायु में जहर उतारा।
होड़ मचाकर हथियारों से
सुघर सृजन का साज बिगाड़ा।
सृजनहार भी दुःख का अनुभव
आज कर रहा आपसे।
धरा जल रही है पाखंडियों के पाप से।।
शिव शंकर पाण्डेय यूपी