Author: कविता बहार

  • जलती धरती/ रितु झा वत्स

    जलती धरती/ रितु झा वत्स

    जलती धरती/ रितु झा वत्स

    JALATI DHARATI
    JALATI DHARATI

    विशुद्ध वातावारण हर ओर
    मची त्रास जलती धरती धूमिल

    आकाश पेड़ पौधे की क्षति हो
    रही दिन रात धरती की तपिश

    कर रही पुकार ना जाने
    कब बरसेगी शीतल बयार प्लास्टिक

    की उपयोग हो रही लगातार 
    दूषित हो रही हर कोना बदहाल

    जलती धरती सह रही प्रहार
    सूख रही कुंवा पोखर तालाब

    बूंद भर पानी की धरती को
    तलाश प्रकृति के बीच मची ये

    कैसा हाहाकार जलती धरती
    धूमिल आकाश बढ़ रही ये

    हरपल हुंकार धरती की पीड़ा
    स्नेहिल उद्गार मानव पर सदैव

    बरसाते दुलार उठो मनुज स्वप्न से
    सुनने धरती की पुकार

    श्यामल सुभाषित धरती सह
    रही कितनी अत्याचार “

    रितु झा वत्स
    बिहार जिला-सुपौल

  • ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    ईश्वर की दी धरोहर हम जला रहे हैं/मनोज कुमार

    JALATI DHARATI
    JALATI DHARATI

    ईश्वर की दी हुई धरोहर हम जला रहे हैं
    लगा के आग पर्यावरण दूषित कर रहे हैं
    काटे जा रहे हैं पेड़ जंगलों के,
    सुखा के इन्सान खुश हो रहा है
    आते – जाते मौसम बिगाड़ रहा है

    हरी- भरी भूमि में निरंतर रसायन मिला रहा है
    अपने ही उपजाऊ भूमि को बंजर कर रहा है
    धरती को आग लगा रहा है
    जीवन बुझा रहा है।

    हवाओं का रुख न रहा,
    मेघ, बरखा सब बदल रहा
    फसलों को अब कीट पतंगे चुनते हैं,
    उसपर रेशा- रेशा बुनते हैं
    अब खो गए सब वन सारे,
    जब धरती पे फूटे अँगारे
    अब चारों तरफ है गर्मी,
    रिमझिम कहाँ है बूँदों में?

    • मनोज कुमार गोण्डा उत्तर प्रदेश
  • दिवस पर्यावरण मना रहे हैं/मंजूषा दुग्गल

    दिवस पर्यावरण मना रहे हैं/मंजूषा दुग्गल

    दिवस पर्यावरण मना रहे हैं/मंजूषा दुग्गल

    दिवस पर्यावरण मना रहे हैं/मंजूषा दुग्गल

    जलाकर पेड़-पौधे वीरान धरती को बना रहे हैं
    इतनी सुंदर सृष्टि का भयावह मंजर बना रहे हैं
    काटकर जंगल पशु-पक्षियों को बेघर बना रहे हैं
    कर बेइंतहा अत्याचार हम दिवस पर्यावरण मना रहे हैं ।

    वैज्ञानिक उन्नति की राह पर हम कदम बढ़ा रहे हैं
    चाँद पर भी अब देखो वर्चस्व अपना जमा रहे हैं
    अपनी धरा का कर शोषण हम उपग्रहों पर जा रहे हैं
    उपेक्षित कर भूमंडल अपना हम दिवस पर्यावरण मना रहे हैं ।

    हवाओं का रुख़ मोड़कर तूफ़ानों को हम बुला रहे हैं
    प्रचंड गर्मी के वेग से जन -जन को देखो झुलसा रहे हैं
    नदी-नालों को गंदा कर भूमि प्रदूषण फैला रहे हैं
    प्रदूषित वातावरण बना दिवस पर्यावरण मना रहे हैं ।

    उपजाऊ भूमि को बना बंजर वृहत भवन हम बना रहे हैं
    वृक्षों से धरा वंचित कर नक़ली पौधों से घर सजा रहे हैं
    सुख-समृद्धि दिखाने को ढेर गाड़ियों का बढ़ा रहे हैं।
    खत्म कर हरियाली देखो हम दिवस पर्यावरण मना रहे हैं।

    मंजूषा दुग्गल
    पी जी टी हिन्दी
    एम एन एम पब्लिक स्कूल, जुंडला
    करनाल (हरियाणा)

  • धरती पर कविता/ डॉ विजय कुमार कन्नौजे

    धरती पर कविता/ डॉ विजय कुमार कन्नौजे

    धरती पर कविता/ डॉ विजय कुमार कन्नौजे

    JALATI DHARATI
    JALATI DHARATI

    जलती धरती तपन ज्वलन
    क्रोधाग्नि सा ज्वाला।
    नशा पान में चुर हो बनते पाखंडी है मतवाला।।

    काट वृक्ष धरा किन्ह नगन
    धरती जलती , तु हो मगन
    वाह रे मानव,खो मानवता
    क्या सृष्टि का है यही लगन।।

    जरा सोचो,कुछ कर रहम
    ना कीजिए प्रकृति दमन
    तेरा प्राण बसा है वहीं
    धरती पवन और गगन।।

    कैसा मानव है तुम,जो करते
    सृष्टि का दमन ।
    प्रकृति पुरुष प्राण तुम्हारा
    जरा कीजिए,कुछ तो शर्म।।

    चांद सितारे सुर्य देव हैं
    प्रकृति पुरुष प्रधान।
    मानवता में रहिए ,सदा
    तुम, विधि का‌ विधान।्

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