सुलोचना परमार उत्तरांचली की कविता
तो मैं क्या करूँ ?
आज आसमाँ भी रोया मेरे हाल पर
और अश्कों से दामन भिगोता रहा,
वो तो पहलू से दिल मेरा लेकर गये
और मुड़कर न देखा तो मैं क्या करूँ ?
उनकी यादें छमाछम बरसती रहीं
मन के आंगन को मेरे भिगोती रहीं
खून बनकर गिरे अश्क रुख़सार पर,
कोई पोंछे न आकर तो मैं क्या करूँ ?
में तो शम्मा की मानिंद जलती रही,
रात हो ,दिन हो, याके हो शामों सहर,
जो पतंगा लिपटकर जला था कभी,
चोट खाई उसी से तो मैं क्या करूँ ?
जब भी शाखों से पत्ते गिरे टूट कर
मैने देखा उन्हें हैं सिसकते हुए,
यूँ बिछुड़ करके मिलना है सम्भव नहीँ,
हैं बहते अश्कों के धारें तो मैं क्या करूँ ?
जिनको पूजा है सर को झुका कर अभी ।
वो तो सड़कों के पत्थर रहे उम्र भर,
बाद मरने की पूजा हैं करते यहाँ
है ये रीत पुरानी तो मैं क्या करूँ ?
वो मेरी मैय्यत में आये बड़ी देर से
और अश्कों से दामन भिगोते रहे
जीते जी तो पलट कर न देखा कभी,
वो बाद मरने के आये तो मैं क्या करूँ ?
सुलोचना परमार “उत्तराँचली”
रोटियां
पेट की आग बुझाने को
रहती हैं तैयार ये रोटियां।
कितने सहे थे जुल्म कभी
तब मिल पाई थी रोटियां।
सदियों से ही गरीब के लिए
मुश्किल थीं रोटियां ।
कोड़े मारते थे जमीं दार
तब मिलती थीं रोटियां ।
घरों में करवाई बेगारी
कागजों में लगवाए अंगूठे
तब जाके भीख में कही
मिलती थी रोटियां ।
अपनी आ न ,बान, शान
बचाने को कुछ याद है।?
राणा ने भी खाई थीं यहां
कभी घास की रोटियां ।
इतिहास को टटोलो
और गौर से देखो ।
गोरों ने भी हमको कब
प्यार से दी थी ये रोटियां ।
आज भी हैं हर जगह
कुछ किस्मत के ये मारे
जिनके नसीब में खुदा
लिखता नही ये रोटियां।
गोल, तंदूरी, रुमाली कई
तरह की बनती ये रोटियां ।
भूखे की तो अमृत बन
जाती हैं सूखी ये रोटियां ।
महलों में रहने वालों को
इसका इल्म नही होता।
कभी भूख मिटाने को ही
बेची जाती हैं बेटियां ।
सुलोचना परमार “उत्तरांचली “