भूकंप – त्रासदी पर कविता

भूकंप – त्रासदी


कुदरत के कहर के आगे,
नतमस्तक हो बेबस हैं हम।
चाहकर भी कुछ कर ना सके,
संवेदना जैसे शून्य हुई।
प्रकृति का यह रौद्र रूप
देख हृदय उद्वेलित है।
कुछ कहने को शब्द नहीं,
मर्मांहत हैं निःशब्द अभी।

ब्रम्हमुहूर्त की सुखद नींद में,
ब्रम्हलीन हो गए जीव जो।
वे तो सुखी आजाद हो गए।
किंतु।
इस भयानक विपदा से,
बचे हुवों का क्या होगा।
अपनों को खोकर,
आर्तनाद हृदय से,
कैसे जीवन उबरेगा।
उजड़ गया आशियाना जिनका,
अपने भी जिनके चले गए।
हे ईश्वर! उनको शक्ति देना,
इस पीड़ा से उबर सकें।

पीपल के सूखे पत्ते सी,
ढह गई इमारत सारी।
मलबे में तब्दील हुई,
मानव की कारीगारी।
हाहाकार मचा चहुँओर,
तांडव मौत का नाच रहा।
ऐसे में एक नन्हा जीवन,
मलबे से बाहर झाँक रहा।
इक नन्ही किलकारी गूंजी,
और बच्चे का जन्म हुआ।
चिरनिद्रा में खो गयी माँ।
नवजीवन को दुनिया देकर।
हे भगवन इतनी कृपा करो
ये विनती प्रभु स्वीकार करो।
इस मासूम को माँ की गोद मिले,
इक आँचल इसके सर पर हो।

वहाँ डटे जो कर्म वीर ,
उन्हें बारम्बार प्रणाम मेरा।
देवदूत या जीवन रक्षक,
चाहे जो दें नाम इन्हें।
अपने जीवन को ताक में रख,
अनुपम,अतुलनीय काम करें।
विनती है ईश्वर से अब बस,
और नहीं,अब और नहीं।
ये विनाश थम जाए यहीं।
अब और नहीं अब और नहीं।


श्रीमती विजिया गुप्ता “समिधा”
दुर्ग – छत्तीसगढ़

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