Category: दिन विशेष कविता

  • विश्व रंगमंच दिवस पर प्रियदर्शन की कविता

    World Theatre Day: विश्व रंगमंच दिवस हर साल 27 मार्च को मनाया जाता है. विश्व रंगमंच दिवस उत्सव एक ऐसा दिन है जो रंगमंच को समर्पित है.

    विश्व रंगमंच दिवस पर प्रियदर्शन की कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कुर्सियां लग चुकी हैं
    प्रकाश व्यवस्था संपूर्ण है
    माइक हो चुके हैं टेस्ट
    अब एक-एक फुसफुसाहट पहुंचती है प्रेक्षागृह के कोने-कोने में

    तैयार है कालिदास
    बस वस्त्र बदलने बाकी हैं
    मल्लिका निहारती है अपने बादल केश
    तनिक अंधेरे ग्रीन रूम के मैले दर्पण में
    बेचैन है विलोम
    अपने हिस्से के संवाद मन ही मन
    दुहराता हुआ
    और सिहरता हुआ अपने ही प्रभाव से
    खाली प्रेक्षागृह को आकर देख जाती है अंबिका
    अभी अंधेरा है मंच
    कुछ देर बाद वह यहीं सूप फटकारेगी
    और आएगी भीगी हुई मल्लिका
    लेकिन थोड़ी देर बाद

    अभी तो मंच पर अंधेरा है
    और सुनसान है प्रेक्षागृह
    धीरे-धीरे आएंगे दर्शक
    कुर्सियां खड़खड़ाती हुई भरेंगी
    बातचीत के कुछ टुकड़े उभरेंगे
    और सहसा मंद पड़ जाएंगे
    कोई पुरुष किसी का हाल पूछेगा
    कोई स्त्री खिलखिलाएगी
    और सहसा चुप हो जाएगी
    अपनी ही प्रगल्भता पर खुद झेंपकर

    नाटक से पहले भी होते हैं नाटक
    जैसे कालिदास बार-बार लौट कर जाता है
    मंच पर घूमता है ऑथेलो
    पुट आउट द लाइट
    पुट आउट द लाइट
    मैकबेथ अपनी हताशा में चीखता है
    बुझ जाओ नश्वर मोमबत्तियों

    प्रेक्षागृह की तनी हुई दुनिया में
    सदियां आती-जाती हैं
    दीर्घा की चौथी कतार की पांचवीं कुर्सी पर
    बैठी स्त्री छींकती है
    और सहसा एक कड़ी टूट जाती है

    सबके ऊपर से बह रहा है समय
    सब पर छाया है संवादों का उजास
    सबके हाथ सबके हाथों को छूते हैं
    नमी है और कंपकंपाहट है
    मंच पर ऑथेलो है
    मगर ऑथेलो के भीतर कौन है?
    कौन है जो उसे देख रहा है दर्शक दीर्घा से
    और अपने मन की परिक्रमा कर रहा है
    क्या वह पहचान रहा है
    अपने भीतर उग रहे ईर्ष्यांकुर को?

    सबका अपना एकांत है
    सबके भीतर बन गए हैं प्रेक्षागृह
    सबके भीतर है एक नेपथ्य
    एक ग्रीन रूम, जिसमें मद्धिम सा बल्ब जल रहा है
    और आईने पर थोड़ी धूल जमी है
    सब तैयार हैं
    अपने हिस्से के अभिनय के लिए
    सबके भीतर है ऑथेलो
    अपनी डेसडिमोना के क़त्ल पर विलाप करता हुआ
    विलोम से बचता हुआ कालिदास

    जो कर रहे हैं नाटक
    उन्हें भी नहीं है मालूम
    कितनी सदियों से चल रहा है यह शो
    तीन घंटों में कितने सारे वर्ष चले आते हैं
    जब परदा खिंचता है और बत्तियां जलती हैं
    तो एक साथ
    कई दुनियाएं झन्न से बुझ जाती हैं

  • गुलाब पुष्प पर कविता – हिमांशु शेखर

    गुलाब नहीं है पुष्प आज – हिमांशु शेखर

    गुलाब पुष्प पर कविता - हिमांशु शेखर

    कवि: डॉ हिमांशु शेखर

    ये प्रेम प्रतीक, इश्क आज,
    प्रेमी का है ये अश्क आज,
    उपयोगी ना है मुश्क आज,
    करना ना कोई रश्क आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    कोमलता के इतने भक्षक,
    दिखते सबमें केवल तक्षक,
    है खार बना इसका रक्षक,
    कांटों से ही ये चुस्त आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    है स्वेद रक्त ये माली का,
    तितली से पाए लाली का,
    भौरों की हर बदहाली का,
    इसमें केवल है रक्त आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    गुलकंद खाद्य विचित्र बने,
    इसकी सुगंध से इत्र बने,
    ऊर्जा इसकी चरित्र बने,
    मनमोहक है ये सत्व आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    प्रेमी दिल की है धड़कन,
    ये प्रेम पत्र सा आकर्षण,
    प्रेमी के चेहरे का दर्शन,
    प्रेमी गली की गश्त आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    है पुष्पगुच्छ में मूल यही,
    कर देता ये हर भूल सही,
    गलती सारी बन धूल बही,
    गलतफहमियां नष्ट आज,
    गुलाब नहीं है पुष्प आज।

    कवि: डॉ हिमांशु शेखर
    बंगला 05, नेकलेस एरिया,
    आर्मामेंट कालोनी, पाषाण,
    पुणे – 411021, भारत।
    मोबाइल: 919422004678
    ई-मेल : [email protected]

  • जनचेतना दिवश पर कविता

    जनचेतना दिवश पर कविता

    kavita

    लूटती जनता पर कविता

    जनता पूछती है सियासत के कद्रदानो से ,
    कहा थे जब लोग लूट मर रहे थे अस्पतालों में |

    ऑक्सीजन दवा नहीं मिली दवाखानो में ,
    लोग रोड पर तड़फते रहे अपनों को बचाने को |

    चेहरों पर सफ़ेद नकाब ओढ़े डाक्टर ,
    लगा यमराज ले जा रहा जैसे क़त्ल खानों को |

    शहर की हवाओ में फैली शवो की दुर्गन्ध ,
    मुर्द घाट में मुर्दे भी लगे अपनी बारी आने को |

    कुछ को कफ़न भी नसीब नहीं हुआ ,
    सुना है चोर ले गये अपने बिस्तर सजाने को |

    हम दफन हो गये नदी किनारे रेत में ,
    रिश्तेदार भी आ गये तेरेवी का खाना खाने को |

    नेताजी बिजी मीडिया वोटिंग के विज्ञापनों में ,
    भ्रस्टचारी लगे रहे भारत को विश्व गुरु बनाने को |

    बुद्धि में दुसित नफरती रसायन घुल चूका ,
    हम लगे अपना अपना धर्म जाति बचाने को |

    भाई हम बचेंगे तो देश बच पायेगा ,
    वरना कोई नहीं पूछेगा कंक्रीट के आशयानो को |

    पहले पैसा जमा करो प्राइवेट अस्पतालों में ,
    भगवान भरोसे फिर इलाज़ होगा दवाखानो में

    आओ मिलजुल कर कुछ करे अपनों के लिए ,
    इंसान को इंसान का सही मकसद समझाने को |

    जनता पूछती है …

    कमल कुमार आजाद

    जाति व्यवस्था पर कविता

    मैं लोगों से
    अक्सर सुनता हूँ
    कि जातीय बन्धन
    ढीले हो गए
    लेकिन मेरे शहर में
    जातियों ने
    हर चौंक पर
    कर लिया कब्जा
    हर धर्मशाला में
    कर लिया
    अपना निवास
    हर मौहल्ले को
    दे दिया अपना नाम
    जाति आधारित
    संस्थाएं
    संघर्षरत हैं
    अपना दबदबा
    कायम रखने के लिए
    मुझे लगता है
    जाति व्यवस्था
    और हो गई जटिल

    विनोद सिल्ला

    कीमत चुकानी पड़ेगी

    बोलोगे तो
    कीमत चुकानी पड़ेगी
    चुप रहोगे तो कीमत
    आने वाली
    पीढ़ियों को भी
    चुकानी पड़ेगी।
    बोलिए
    आवाज बुलंद कीजिए।
    अभी चुका दीजिए
    कीमत।
    उधार ठीक नहीं
    वरना
    छिकु-छिकु छियानवे होंगे।
    दो ब्याज के
    दो लिहाज के
    पूरे सौ
    हो जाएं।

    -विनोद सिल्ला

    नशा पर कविता

    देख शराबी की दशा,
    नशा करे मदमस्त।
    अपने तन की सुध नहीं,
    करता जीवन ध्वस्त।।

    नित्य शराबी मद्य का,
    करता है रसपान।
    लोग सदा निंदा करें,
    पाता जग अपमान।।

    पत्नी बच्चे हैं दुखी,
    देख शराबी चाल।
    नोंक झोंक घर में चले,
    मचता अजब धमाल।।

    नशा शराबी के लिए,
    श्रेष्ठ पेय है जान।
    उसके लत में डूबकर,
    खुद को कहे महान।।

    मन माने सब पी रहे,
    जग शराब भरमार।
    नशा शराबी जब तजे,
    करे जगत सत्कार।।

    मनोरमा चन्द्रा “रमा”

    शर्म करें गरीबी पर – मनीभाई ‘नवरत्न’

    बहुत गर्व है 
    अपने भारत पर 
    पर आओ,
    थोड़ा बहुत शर्म करें 
    गरीबों की गरीबी पर ।
    हल नहीं है ,
    सिक्का थमा देना 
    उन हाथों को,
    जिन्हें चाहिए रोटी ,
    जिनकी किस्मत है खोटी।
    तो कैसे मिलेगा इंसाफ?
    फुटपाथ में या गटर में 
    या फिर इंसानों के हेय नजर में ।
    चुंकि फुर्सत तो नहीं
    सभ्य समाज को
    शिक्षा स्वास्थ्य के घोटाले में
    अपनी तिजोरी भरना।
    सात पुरखों की चिंता में
    कर लिया है चारधाम।
    पर हाय रे भाग्य
    शुकुन ना मिला
    जो मिलता है सहज 
    दीन के कुटिया में।

    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

    विश्वास पर कविता

    सत्ताधीशों की आतिश से,
    जलता निर्धन का आवास।
    राज महल के षडयंत्रों ने,
    सदा छला जन का विश्वास।

    युग बीते बहु सदियाँ बीती,
    चलता रहा समय का चक्र।
    तहखानों में धन भर जाता,
    ग्रह होते निर्बल हित वक्र।
    दबे भूलते मिले दफीने,
    फलती मचली मिटती आस।
    राज महल के षडयंत्रों ने,
    सदा छला जन का विश्वास।

    सत्ता के नारे आकर्षक,
    क्रांति शांति के हर उपदेश।
    भावुक जन को छलते रहते,
    आखिर शासक रहते शेष।
    सिंहासन परिवार सदा ही,
    करते मौज रचाते रास।
    राज महल के षड़यंत्रों ने
    सदा छला जन का विश्वास।

    युद्ध और बदलाव सत्य में,
    शोषण का फिर नवल विधान।
    आता रहता भोला भावुक,
    भावि नाश से सच अनजान।
    विश्वासों की बलिवेदी पर,
    आस बिखरती उखड़ी श्वाँस।
    राजमहल के षड़यंत्रों ने,
    सदा छला जंन का विश्वास

    बाबू लाल शर्मा बौहरा ‘विज्ञ’

    सृजन पर कविता

    सृजन कर्म सूरज करे, सविता कह दें मान।
    चंद्र धरा की रोशनी, जग मण्डल की शान।।

    दूजी सृजक वसुंधरा, जिस पर निपजे जीव।
    सृजन करे जल संग से, बरसे अम्बर पीव।।

    उत्तम सृजक किसान है, भरता सब का पेट।
    अन्न फसल फल फूल से, चाहे वन आखेट।।

    कृष्ण राधिका रास भी, जिसे न आए रास।
    अश्व रास बिन वे मनुज, वन्य रास आभास।।

    प्रभु गुरु कवि माता सृजक, सृजे सत्य इंसान।
    शर्मा बाबू लाल जग, करे सृजन सम्मान।।

    बाबू लाल शर्मा,बौहरा, विज्ञ

    प्राण जाए तो जाए पर व्यंग्य कविता

    प्राण जाए तो जाए , फेर दारू तो मिल जाए !
    कइसे जल्दी जुगाड़ होही, कोई ये तो बताए !!

    अब्बड़ दिन म खुले हावे, दारू भट्टी के दुवारी !
    जी भर के मेहा पीहू, भले गारी दे मोर सुवारी !!
    लकर धकर सूत ऊठ के आंखी रमजत जात हे !
    खखाए कोलिहा कस उत्ता-धूर्रा, भीड़ में झपात हे !!
    धक्का-मुक्की करीस तहां, पुलिस के डंडा खात हे !
    मिलगे शीशी भीड़ भाड़ म , अब चखना ल सोरीयात हे !!
    नंगत के पीये दरुहा बाबू , उछरत बोकरत आए !
    प्राण जाए तो जाए , फेर दारू तो मिल जाए !!

    लटेपटे घर पहुंचे ,अऊ सुवारी ल चिल्लाए !
    बाहर निकल ये फलनिया, बोकरा असन नरीयाय !!
    छोटे बड़े के नइ हे चिनहारी, कुकुर कस ढोलगत हे !
    जे पात हे ते हा लाते लात भोकड़त हे !!
    मार खागे कुटकूट ले हाथ गोड़ टूटगे !
    देखत देखत फलाना हा जीनगी ले ऊठगे !!
    का बताव संगी मेहा ये दरुहा के कहानी !
    रोज पीयई म धन सिरागे, खुवार होगे जिनगानी ।।
    हरके बरजे माने नहीं, कोन येला समझाए !
    प्राण जाए तो जाए , फेर दारू तो मिल जाए !!

    दूजराम साहू “अनन्य

    नशा पर कविता

    नशा नाश की सीढ़ियाँ,सोच समझ इंसान।
    तन को करता खोखला,लेकर रहती जान।।

    बड़ी बुरी लत है नशा,रहिए इससे दूर।
    बेचे घर की संपदा,वह होकर मजबूर।।

    यह जीवन अनमोल है,मदिरा करें न पान।
    विकृत करे मस्तिष्क को,पीना झूठी शान।।

    नशा पान करके मनुज,स्वर्णिम जीवन खोय।
    अंग अंग फैले जहर,शीश पकड़ कर रोय।।

    बिता जवानी मौज में,घर को करे न याद।
    कलह बढ़ा परिवार में,धन जन हो बर्बाद।।

    सुकमोती चौहान रुचि

    मज़दूर

    कैसे लिखूं मैं तेरी परिभाषा?
     तेरा श्रम देख आंखों में पानी आता।
    कड़कती धूप, हड्डियों को चीरती सर्दी में भी 
    तेरे श्रम को विराम मिल ना पाता।
    तेरे खून पसीने से सवरी ये सारी धरा,
    न होता अगर तू, तो शायद ही कोई
     मकान या कारखाना बन पाता।

    तेरे तन पे लिपटी मिट्टी का एक- एक कण, 
    भरता तेरे कठिन श्रम का दम।
     सुबह सवेरे जब देखती हूं 
    खड़े लाइन में लगे मजदूर बंधुओं को,
    तो अपने ज़मीर पर एक बोझ सा हो जाता।
     दुआ जब भी मांगने बैठती हूं,
     वंदन तेरे श्रम को, नमन से
     शीश खुद की झुक जाता।

    तेरी रूखी सूखी रोटी देख कर,
     मेरे मन का हर गरूर टूट जाता।
    है वक्त की पुकार,
    चाहे साहूकार हो या सरकार,
     सब मिलकर लगाएं गुहार।
     मनरेगा जैसी सकीमें ,
    और भी करो तैयार ।

    न कोई दे कम वेतन, 
    न कोई करे तुम्हारा शोषण।
    फर्ज़ यह निभाना है,
    कर्ज़ हर मज़दूर का चुकाना है।
    ऋषि विश्वकर्मा की शुभाशीष का हो आग़ाज़,
    हर मज़दूर के जीवन में हो हर्ष और उल्लासI

    अरुणा डोगरा शर्मा

    संभालना आता है

    जब-तब
    जीवन में 
    निभाई होंगी 
    जिम्मेदारियाँ अपनी 
    संभाले होंगे 
    बहुत से रिश्ते 
    पर, क्या 
    कभी संभाला
    अपने आप को 
    औरों के लिए कभी….?
    सोच कर देखना,
    बड़ा 
    कोमल है हृदय 
    जो ठेस लगते ही 
    टूट जाता है 
    जोड़े से 
    न जुड़ा तो 
    कहाँ-कहाँ 
    भटकाता है 
    तंबाकू, ड्रग्स, मदिरा की 
    अंधी गलियों में 
    ले जाता है
    जिसमें भरमाया व्यक्ति 
    अलौकिक आनंद के जाल में 
    उलझता चला जाता है 
    रिश्ते, अपने 
    स्वास्थ्य कहीं दूर 
    छूटते जाते हैं 
    जो होते हैं साथ 
    दिखते हैं मित्र 
    पर होते हैं शत्रु 
    कहाँ कोई समझ पाता है… 
    चिकित्सालयों के चक्कर लगाते 
    जब थकने लगते हैं पाँव 
    बेबस होने लगते अपने 
    बिस्तर पर पड़े हुए 
    दिन लगने लगते हैं भार… 
    तब समझऔर सार-संभाल
    होते सब व्यर्थ,
    रहे हृदय 
    धड़कता अपने हिसाब से 
    बहे धमनियों में रक्त 
    सामान्य प्रवाह से 
    रहे काम करता अपना 
    लीवर ठीक-ठीक,
    बने न बोझ 
    किसी अपने पर,
    स्वस्थ रह कर 
    बाँट सके ख़ुशियाँ सबको 
    तो कहो 
    तंबाकू को 
    नहीं कोई स्थान अब तुम्हारा 
    हमारे जीवन में
    अब जियेंगे तुम्हारे बिना 
    अपनी शर्तों पर…
    तुम देखोगे 
    दूर से 
    हारे हुए स्वयं को।

    डा० भारती वर्मा बौड़ाई

    नशे की गिरफ्त में

    नशे की गिरफ्त में
    स्त्री पुरुष बच्चे बूढ़े
    क्लब रेस्तरां में
    परोसें जा रहे
    खनकती हाथों से
    शराब।
    रेल्वे स्टेशनों में
    नंग धड़ंग
    बालक
    सुलेशन लगाकर
    कपड़ो में सुंघ रहे हैं
    अहा…
    मद मस्त होकर।
    कुएँ के पार बैठ
    तंग गलियों में
    चार लोग बैठे
    भाँग चिलम के संग
    लगा रहे कस।
    नौजवान
    शान से
    उड़ा रहे 
    धुएं का छल्ला
    जेब में
    महंगी सिगरेट।
    बुजुर्ग
    खरीद कर
    या स्वयं द्वारा निर्मित
    पल पल
    फूंक रहे हैं
    बीड़ी पक पक।
    गुड़ाखू
    दांतो में
    मसूडों में,
    ले रहे असर में मजा
    पैखाना जाने से पहले
    है जरूरी।
    रगड़ कर खैनी
    उड़ाकर कुछ अंश
    दबा रहे होंठो में।
    चरस,अफीम,ब्राउनशुगर
    कफ शिरफ,इंजेक्शन
    टेबलेट,डोडा ताड़ी
    रम,बियर,सादा लाल
    दारू,गुटका।
    विवाह,षष्ठी कार्यक्रम
    हर जगह मांग रहे
    पार्टी और गटक रहे
    जहर।
    गाली,झगड़ा
    निरुत्साह,गरीबी,लूट
    हत्या,गुंडागर्दी
    धन दौलत की बर्बादी
    जवानी में मौत
    नशे की जड़
    नशा नशा नशा

    राजकिशोर धिरही

    मैं मजदूर हूं किस्मत से मजबूर हूं

    चांद की चाहत मुझमे भी है बहुत
    पर हैसियत से बहुत ही लाचार हूं
    कमाता रोज हूं  जीनेभर के लिए
    पर बचा कुछ नहीं पाता मेरे लिए
    बस पसीना बहा बहा कर चूर हूं
    मैं मजदूर हूं…………………….


    लोगों के महल मैं ही सजाता हूं
    पर पाप का एक नहीं कमाता हूं
    सादा जीवन उच्च विचार लेकर
    झोपड़ी में ही जीवन  बिताता हूं
    लोभ से सदा ही जी मैं चुराता हूं
    मैं मजदूर हूं…………………..


    मंदिर मस्जिद मै ही तो बनाता हूं
    पर मात्र इंसानियत धर्म जानता हूं
    पूजा पाठ करता नहीं मैं कभी भी
    बस परोपकार करना मैं जानता हूं
    इसलिए मैं तुच्छ समझा जाता हूं
    मैं मजदूर हूं……………………..


    खेतों में फसल को मैं ही उगाता हूं
    कीचड़ से लथपथ मैं सन जाता हूं
    मिटृटी ही हमारी मां है जानता हूं
    इसलिए बेटे का फर्ज निभाता हूं
    फिर भी मैं सदा गरीब ही रहता हूं
    मैं मजदूर हूं…………………….


    मैं भी बहुत ही मेहनत करता हूं
    खून पसीना एक कर कमाता हूं
    भूखे न रहें जगत में कोई इंसान
    इस हेतु निरक्षर ही रह जाता हूं
    इसलिए मैं अनाज को उगाता हूं
    मैं मजदूर हूं…………………..


    जग के हर त्यौहार मैं मनाता हूं
    समाज की हर रीत मैं निभाता हूं
    साक्षर नहीं पर शिक्षित जरूर हूं
    चाहूं तो आसमान भी मैं छू लूंगा
    पर सत्य पथ पर चलना चाहता हूं
    मैं मजदूर हूं…………………..

    क्रान्ति , सीतापुर,

    हम मजदूर कहलाते हैं

    झुग्गी,झोपड़ियों में रहते हैं
    ऊंची इमारतें बनाते हैं
    हम मजदूर कहलाते हैं!
    पत्थरों को तोड़ते
    खून पसीना बहाते हैं
    भूखे पेट कभी सूखी रोटी
    फिरभी मुस्कुराते हैं!
    जिस रोज पगार पाते हैं
    त्योहार हम मनाते हैं
    कल की कोई चिंता नहीं
    जीवन सरल बनाते हैं!
    एसी कार में आते हैं
    चार बातें सुना जाते हैं
    अंगोछे से पसीना पोंछ
    हम काम में जुट जाते हैं!
    हम मजदूर कहलाते हैं!
    हम मजदूर कहलाते हैं!

    डॉ. पुष्पा सिंह ‘प्रेरणा’

    घर का बादशाह मजदूर हो गया

    पेट की आग में मजबूर हो गया
    घर का बादशाह मजदूर हो गया।
    मना रहे अवकाश मजदूर दिवस
    उसे आज भी काम मंजूर हो गया
    दो जून की रोटी की जुगाड़ में ही
    मजबूर अपने घर से दूर हो गया।
    दिवस मनाएंगे सब एसी कमरों में
    वो तो धूप में ही मसरूर हो गया।
    बच्चों के दे रोटी,पानी पी सो गया
    भूख में चेहरा उसका बेनूर हो गया।
    इक मजदूर कितना मजबूर प्रियम
    थकान मिटाने नशे में चूर हो गया।

    पंकज प्रियम

    नींव की ईंट

    उस श्रमिक का
    चोटी से चला पसीना
    तय करके सफर
    पूरे बदन का
    पहुंचा एड़ी तक
    मिले चंद रुपए
    उसकी मेहनत पर
    किसी ने
    दलाली कमाई
    किसी ने
    आढ़त कमाई
    चमकीले चेहरों ने
    की मसहूरी
    चला लाखों का व्यापार
    श्रमिक रहा
    जस का तस
    दब गया बन कर
    अर्थव्यवस्था की
    नींव की ईंट

    विनोद सिल्ला

    हां मैं तो मजदूर हूं

    हां मैं तो मजदूर हूं, मेहनत के नशे में चूर हूं ,
    कहने वाले कुछ भी कहे मैं समझूं खुद को नूर हूं ,

    थकना कभी न जानू में आगे ही बढ़ता रहता हूं ,
    गर्मी हो या दिन जाडे़ का सब कुछ सहता रहता हूं ,
    मैं जो रूका तो सुन लो ये धरती भी थम जाएंगी ,
    पूल कभी तो बड़ी इमारत हर दम गढ़ते रहता हूं ,
    करूं सदा कर्तव्य का पालन समझो ना मजबूर हूं ,
    मैं हां ……………..


    चीर के पाषाणो को जल की धारा बहा मैं सकता हूं,
    पतझड़ के मौसम में भी फूल खिला मैं सकता हूं,
    नामुमकिन का शब्द नहीं मेरे शब्दों के भंडार में ,
    उजड़ी बस्ती को यारों फिर से बसा मैं सकता हूं ,
    अपनी बाजू पर है भरोसा समझो ना मगरूर हूं ।
    हां मैं तो ……………….


    छोटी सी दुनिया है मेरी जीवन सीधा साधा है ,
    नहीं किसी से शिकवा मुझ को रोटी मिले जो आधा है,
    नहीं चाहिए हीरे मोती रब ने दिया जो प्यारा है ,
    राम ह्रदय में बसते हैं मुख में कान्हा राधा है ,
    खाता हूं मेहनत की रोटी घोटालों से दूर हूं ।
    हां मैं तो……………..

    जागृति मिश्रा

    इही मोर जिनगानी

    सबके बनाथंव महल अटारी
    मोर घर खपरा छान्ही ।
    मँय मजदूर ईंटा गिलाव के
    इही मोर जिनगानी ।।


    जाड़ लागे न घाम लागे
    कमाथंव बारो महीना ।
    पानी मा भीगत रहिथंव
    गर्मी मा छुटे  पसीना ।


    पापी पेट खातिर कमाथंव
    पीके पसिया  पानी ।
    इही मोर जिनगानी ।
    रोज रोज के ईंटा उठई में


    हाथ मा परथे फोरा ।
    जेठ बइसाख महीना मा
    पाँव  ला जरे भोंभरा ।
    काबर अइसन बनाय बिधाता
    तँयहा मोर  जिनगानी ।
    इही मोर जिनगानी ।।


    दू ठी लइका  दाई ददा ला
    बनी कर करके खवाथंवं।
    मोर सुवारी संग मा जाथे
    दिन बुड़त घर आथंव ।


    आके घर में  बुता करथे
    भरे बर जाथे पानी ।।
    इही मोर जिनगानी ।।


    एक मंजिल दू मंजिला
    घर ला मँय बनाथंवं ।
    किसम किसम के अँगना
    दुवारी  मिही हा सिरजाथँवं ।


    छिटका  कुरिया मोर हावय
    जिंहा चुहत रहिथे  पानी ।
    मँय मजदूर ईंटा गिलाव के
    इही मोर जिनगानी ।।


    इही मोर जिनगानी ।।
    केवरा यदु “मीरा “

    राजिम


  • जिन्दगी पर कविता – पुष्पा शर्मा

    जिन्दगी का मकसद

    जिन्दगी पर कविता - पुष्पा शर्मा
    kavita bahar

    रोज सोचती हूँ।
    जिन्दगी का मकसद
    ताकती ही रहती हूँ
    मंजिल की लम्बी राह।

    सोचती ही रहती हूँ
    प्रकृति की गतिविधियाँ,
    जो चलती रहती अविराम।
    सूरज का उदय अस्त
    रजनी दिवस का निर्माण।

    रात का अंधियारा करता दूर
    चाँद की चाँदनी का नूर।
    तारों की झिल मिल रहती
    अँधेरी रातों का भय हरती।

    शीतल समीर संग होता सवेरा,
    परीन्दों के कलरव ने सृष्टि को घेरा।
    सुमन की सुरभियों का भार
    तरु शाखाओं का आभार।
    सभी की गति चलती अविराम।
    नहीं लेती थकने का नाम।

    फिर मनुज का जीवन कितना?
    बहुत है कार्य, कर सके जितना।
    परहित  जीवन लगे तमाम
    आखिर है अनन्त विश्राम।

    पुष्पा शर्मा“कुसुम”

  • आज भी बिखरे पड़े हैं – गंगाधर मनबोध गांगुली

    आज भी बिखरे पड़े हैं – गंगाधर मनबोध गांगुली

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


            गंगाधर मनबोध गांगुली ” सुलेख “
               समाज सुधारक ” युवा कवि “

    कल तक बिखरे पड़े थे ,
               आज भी बिखरे पड़े हैं ।
    अपने आप को देखो ,
                 हम कहाँ पर खड़े हैं ।।01।।

    बट गये हैं लोग ,
                  जाति और धर्म पर ।
    गर्व करते रहो ,
                  मूर्खतापूर्ण कर्म पर ।।02।।

    महापुरुषों के महान कार्य,
                    लोगों को नजर नहीं आ रहे हैं ।
    जो जिस जाति में पैदा हुए ,
                     सिर्फ वही दिवस मना रहे हैं ।।03।।

    हर कोई कहता है,
                यह हमारा नहीं ,उनका कार्यक्रम है ।
    महापुरुषों की महानता ,
                     उनकों दिखता बहुत कम है ।।04।।

    आजादी सिर्फ नाम के रह गए,
                        गुलामी के कगार पे खड़े हैं ।
    कल तक बिखरे पड़े थे,
                          आज भी बिखरे पड़े हैं ।।05।।

    जातिवाद बढ़ रहा है ,
                        महापुरुषों को भी बाट रहे हैं ।
    किसे यहाँ अपना कहें,
                 जो अपनों का गला काट रहे हैं।।06।।

    हमारी स्थिति वैसी कि वैसी है ,
                            आज भी रास्ते पे पड़े हैं ।
    कल तक बिखरे पड़े थे,
                            आज भी बिखरे पड़े हैं ।।07।।

    गंगाधर मनबोध गांगुली