Category: दिन विशेष कविता

  • शिक्षक का ज्ञान – अकिल खान

    डॉ. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक शिक्षक ने गुरु की गरिमा को तब शीर्षस्थ स्थान सौंपा जब वे भारत जैसे महान् राष्ट्र के राष्ट्रपति बने। उनका जन्म दिवस ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

    “शिक्षक दिवस मनाने का यही उद्देश्य है कि कृतज्ञ राष्ट्र अपने शिक्षक राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के प्रति अपनी असीम श्रद्धा अर्पित कर सके और इसी के साथ अपने समर्थ शिक्षक कुल के प्रति समाज अपना स्नेहिल सम्मान और छात्र कुल अपनी श्रद्धा व्यक्त कर सके।

    शिक्षक का ज्ञान

    kavita

    अशिक्षा रूपी अंधकार को करने दूर,
    फूंँक दिए चहुँ दिशाओं में शिक्षा का सूर।
    ज्ञान की दीपक से रोशन हुआ देखो सारा जहांँ,
    अज्ञानता ने सोचा अब मैं जाऊंँ तो जाऊंँ कहांँ।
    शिक्षा के प्रभाव से इंसान बना है महान।
    है पवित्र-अनमोल दान,शिक्षक का ज्ञान।

    शिक्षा से समाजिक कुरीतियों का करो दमन,
    श्रेष्ठ शिक्षा से नहीं होता अधिकारों का हनन।
    अब मिले शिक्षा सबको हर्षित है धरा-गगन,
    शिक्षा का महिमा है अपार करो गहन-मनन।
    मानव-उद्धार के लिए करो शिक्षा-दान,
    है पवित्र-अनमोल दान,शिक्षक का ज्ञान।

    5 सितम्बर को मनाओ शिक्षक दिवस – त्यौहार,
    डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का है ये उपकार।
    शिक्षक है मानव समाज-राष्ट्र का निर्माता,
    गुरू शिष्य को राष्ट्र रक्षा के लिए पुकारता।
    मै नित करूं शिक्षक का सहृदय गुणगान,
    है पवित्र-अनमोल दान, शिक्षक का ज्ञान।

    विद्यार्थी में न कोई गरीब है न कोई अमीर,
    सभी को दें समान शिक्षा शिक्षक का ज़मीर।
    मजबूर-लाचारों को देते हैं शिक्षक-शिक्षा,
    शिष्य करें उचित- अनुचित पर समीक्षा।
    एक आदर्श विद्यार्थी है शिक्षक की शान,
    है पवित्र-अनमोल दान,शिक्षक का ज्ञान।

    जीवन रूपी नाव का शिक्षक है खिवैया,
    सच्चा ज्ञान से पार कराते हमारी नैय्या।
    मुश्किल घड़ी में कर स्मरण गुरू का उपदेश,
    मिलती है शांति और समाप्त होते द्वेष-क्लेश।
    मैं लेखनी से नित करूं गुरू का बखान,
    है पवित्र-अनमोल दान,शिक्षक का ज्ञान।

    अशिक्षित मानव स्वयं का करता विनाश,
    ज्ञान की अज्ञानता से नित रहता हताश।
    कहता है अकिल शिक्षा का अलख जगाओ,
    राष्ट्र – रक्षा के लिए अशिक्षा को दूर भगाओ।
    शिक्षा ने लाया आविष्कारों का तूफान,
    है पवित्र-अनमोल दान,शिक्षक का ज्ञान।

    अकिल खान रायगढ़ जिला – रायगढ़ (छ.ग.) पिन – 496440.

  • छत्तीसगढ़ के बघवा बैरिस्टर छेदीलाल ठाकुर

    छत्तीसगढ़ के बघवा-ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर

    छत्तीसगाढ़ी रचना
    छत्तीसगाढ़ी रचना

    छत्तीसगढ़ के गौरव रत्न ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर का जन्म अकलतरा के समीप ग्राम खटोला में गणेश चतुर्थी के दिन 1891 में हुआ । उनके पिता का नाम पचकोड़ सिंह व माता का नाम सोनकुंवर था। उनका परिवार राज परिवार था। जहां संपूर्ण सुख सुविधाओं के साथ वे पले बढ़े थे। प्राथमिक शिक्षा अलकतरा में प्राप्त किए. ठाकुर छेदीलाल के जन्म से पहले उनके दो पुत्रों का देहांत हो गया था।

    बालपन में बैरिस्टर साहब को बीमारियो से बचाने के लिए उनकी माँ सोनकुवर ने पुत्र के नाक और कान छिदवाया था। वहीं से उनका नाम छेदीलाल पड़ गया। बीमारी से मुक्ति के लिए उनके माता पिता ने देवी के मंदिर में ज्योति जलवाई थी। वे बचपन में बड़े शरारती थे। ठाकुर छेदिलाल बैरिस्टर की पहली पत्नी का नाम हीरादेवी और दूसरी पत्नी का नाम सुशीला था।

    शादी के 27 साल बाद भी उन्हें पहली पत्नी से संतान प्राप्त नहीं हुआ। चाचा दीवान साहब ने बनारस के परिचय सम्मेलन में उनके विवाह का प्रस्ताव रखा। 1857 क्रांति के नायक राणा बेनी माधव के पुत्र ने अपनी बेटी सुशीला देवी का हाथ बैरिस्टर साहब को सौंपा। उनकी पुत्री का नाम रत्नावली सिंह है। रत्नावली की दो पुत्रियां क्रमशः डा. मधुलिका सिंह और डा. स्वाती वंदना है। उनके पुत्र विजय प्रताप सिंह हैं। जिनके पुत्र अमित सिंह और अमर सिंह है।

    शिक्षा –

    प्रयाग के म्योर कालेज में इंटरमीडिएट करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए आक्सफोर्ड चले गए। आक्सफोर्ड में पढ़ाई के लिए जाते वक्त वे आलू खाया करते थे। वहाँ पर इतिहास में एम. ए. , एल. एल. बी. और बार एट ला की उपाधि प्राप्त की। वे हिन्दी,अंग्रेजी,उर्दू और संस्कृत की भाषा में निपुण थे। वे स्कालरशिप के पैसे से पढ़ने लंदन गए।

    आगे – लंदन में इंडिया हाउस नामक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े। साथ ही फ्रंास में बम निर्माण सीखा। उन्होंने हालेंड के स्वतंत्रता का इतिहास लिखा.1919 में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। जलियांवाला बांग हत्याकांड की जांच समिति के सदस्य रहे.
    1921 में बनारस वि.वि. में संस्कृत और 1922 में गुरुकुल कांगड़ी में इतिहास विषय में अघ्यापन कार्य भी किया। 1926 तक प्रयाग की सेवा समिति में संचालक के रुप में रहे। वे कानून के जानकार थे। वकालत के बाद सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। वे महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हुए।

    वे जगह जगह राष्ट्रीय विघालयो की स्थापना का प्रयास करते रहे. श्रमिकों में चेतना फैलाने के लिए 1927 से 1932 तक श्री वी. वी. गिरी के साथ बंगाल भनपुर रेलवे श्रमिक संघ के उच्च पदों को सुशोभित किया। बिलासपुर में जागृति जगाने के लिए उन्होंने रामायण मंच से राष्ट्रीय रामायण का अभिनव प्रयोग किया। शुरुआत में उनका झुकाव स्वराज दल में था, लेकिन बाद में गांधी जी से प्रभावित होकर कांग्रेस के सदस्य बन गए. 1932 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें 2500/ अर्थदंड देना पड़ा।

    1932 में आखिल भारतीय कांग्रस कमेटी के सदस्य तथा बाद में कांग्रस समिति के अध्यक्ष भी बने। मुंगेली के सतनामियों को राजनीति में लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 25 नवंबर 1933 में गांधीजी के बिलासपुर आगमन पर , वे स्वागत समिति के अध्यक्ष रहे. 1937 में अकलतरा से कांग्रेस का विधायक बने। 1939 में मंत्री पद से स्तीफा दे दिया. 1942 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर तीन वर्ष के लिए कारावास की सजा हुई. 1946 में संविधान सभा के सदस्य भी रहे।1950 से 1952 तक के लिए उन्हें अस्थायी सांसद के रूप में मनोनीत किया गया.


    महात्मा गांधी ने उन्हे मध्यप्रांत के मुख्यमंत्री बनने के लिए कहा था। जिसे ठाकुर जी ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। ऐसे ही उन्हे जबलपुर उच्चन्यायालय के पहले मुख्यन्यायधीश के पद को भी लेने से इंकार कर दिया। बैरिस्टर छेदीलाल को छत्तीसगढ़ का बघवा कहा जाता था। वे छत्तीसगढ़ के प्रथम बैरिस्टर माने जाते है। 1956 में हृदय घात से उनकी मृत्यु हुई.
    साहित्य- ठाकुर छेदीलाल ने विकास पत्रिका हिन्दी प्रेमी के नाम से केई लेख लिखे. वे माखनलाल चतुर्वेदी के कर्मवीर के संपादक रहे.


    रुचि –

    बैरिस्टर छेदीलाल बहुत शौकिन थे। उन्हें सूट बूट पसंद था। नई गाड़ियों को खरीदकर रखते थे। उनक शेवरलेट कार आज भी बिलासपुर के घर में रखी है। हिदायतउल्ला खान उनके ड्रायवर थे। उन्हें नागरा जूता, छड़ी, हुकका प्रिय था। वे संगीत में भी रुचि रखते थे, साथ ही तबला वादन करते थे. वे गुलाब का शौक रखते थे। उन्होंने गुलाब की कई प्रजातियां लंदन से मंगाई थी। उन्हें ठहाके मारकर हँसना पसंद था। उन्हें लिखना, पढ़ना और दूसरों की सहायता करना अच्छा लगता था। कुत्ता पालने का शौक भी रखते थे। वे शिक्षक, लेखक और इतिहासकार के रुप में जाने जाते हैं।

    छत्तीसगढ़ के बघवा बैरिस्टर छेदीलाल ठाकुर

    संकलन
    अनिल कुमार वर्मा, व्याख्याता

  • खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

    भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस प्रत्येक वर्ष 29 अगस्त को मनाया जाता है। 29 अगस्त को मनाने का कारण यह है कि इस दिन भारत के दिग्गज हॉकी प्लेयर मेजर ध्यान चन्द कुशवाहा का जन्म हुआ था। मेजर ध्यान चन्द को हॉकी का जादूगर कहा जाता है।

    खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

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    व्यस्तता की गहरी खाई में,
    भौतिकता की अंगड़ाई में,
    जहाँ अपना कोई न समझे,
    हो रहा जहाँ पर ठेलमठेल,
    देखो तब खेल कराते मेल।

    मानव को मानव से जोड़े,
    हाथ मिला विष नाता तोड़े,
    दूरी दिल की या हो मीटर,
    राह के रोड़े देते हैं ठेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    भावना भरी है भाईचारे की,
    जय हो ऐसे खेल प्यारे की,
    कटुता द्वेष सब भूल जाते,
    जब हो मैदां में रेलमरेम,
    देखो ना खेल कराते मेल।

    जीवन की इस लघुता में,
    भौतिकता की पंगुता में,
    प्यार से सबको गले लगाएं
    आओ मिलकर खेले खेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    ★★☆★★★☆★★★★
    अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    टोक्यो ओलंपिक में भारत की मुक्केबाज लवलीना, मीराबाई चानु, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, महिला हाकी टीम और तीरंदाज दीपिका कुमारी का शानदार प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि बेटियों को अवसर मिले तो वे सफलता के परचम फहरा सकती हंै। एक समय था ,जब इसी देश में लड़कियों को घर की दहलीज लांघने की मनाही थी। उन्हें समाज में कहीं भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता था। बालिकाओं को घर के काम की जिम्मेंदारी थी। कम उम्र में काम का बोझ डाल दिया जाता था। सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखी जाती थी। महिलाओं को सिर्फ चूल्हा चैका तक बाँध कर रखा जाता था। स्त्री के प्रति कुछ लोगों की सोच बहुत निम्न होती थी । वे स्त्री को अपने पैरों की जूती से अधिक कुछ नहीं मानते थे। हर युग में नारी को कठोर कष्ट के साथ जीना पड़ा है। कोमल अंग को कठिन जिम्मेदारी निभानी पड़ी है।
    नारी सत्ता को गंभीर परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है। देवतुल्य महापुरुषों ने स्त्री को जुए के दंाव तक में लगा दिया। मीरा के साथ अन्याय की इंतहा हो गई। यशोधरा को उसके पति ने रात को शयनकक्ष में ही छोड़ दिया। अहिल्या को पत्थर का श्राप मिला। सावित्री को यमराज से लड़ना पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि संसार में जितने भी लोग इतिहासपुरुष कहलाते है,उन सबके पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ रहा है। माताओं ने अपना सर्वस्व त्याग ,समर्पण से पुरुषों को दिशा दी है। महिलाएँ अपनी प्रतिभा,योग्यता को अपने प्रिय पुरुष पात्रों को देती रही है।
    नारियों को पुरुषों ने तरह तरह से ठगा है। अपने स्वार्थ सिद्धी के लिए कभी उसके सौन्दर्य के गुणगान गाए। तो कभी खुद कमजोर हुए तो नारी को काली, दुर्गा शक्तिस्वरुपा कहा। सच पूछों तो प्रकृति ने इन्हें सौन्दर्य से सजाया है। कोमलता, सरलता, मुस्कान, सुंदरता ही इनके असल श्रृंगार हैं। लेकिन कालांतर में चालाक नर ने महिलाओं को आभूषणों भंवरजाल में फाँस लिया । ये अलंकार बढ़ते बढ़ते इतना अधिक हो गए कि, आभूषणों के बोझ में चलना मुश्किल हो गया।जब चलना ही मुश्किल हो गया तो पुरुषों के साथ दौड़ना तो और भी कठिन हो गया । स्त्रीयों के पहनावे भी ऐसे रखे गए, जिसे पहनकर वे पुरुषों की भाँती काम नहीं कर सकती थी। साड़ी,धोती पहनकर दौड़ भाग का काम हो भी नहीं सकता। और ये आक्षेप भी सरलता से लगा दिए गए कि स्त्री पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकती।
    इतिहास सिद्ध है कि जब भी नारियों को मौका मिला है, उसने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हौसला दिखाया है। कैकयी की कथा से आप अवगत होंगे। युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ के प्राण उसने बचाए थे। रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती और अहिल्या बाई की बहादुरी में क्या किसी को शंका ळें स्त्री कमजोर नहीं होती । कमजोर उसे समाज बनाता है। बचपन से कन्या को कमजोर साबित किया जाता है। लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए। वो नहीं करना चाहिए। इस तरह के बेकार की बंधनों से बालिकाओं में बचपन से ही असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। वह खुद को कमजोर समझने लगती है। उनका आत्मविश्वास पल्लवित ही नहीं हो पाते ।
    स्त्रीयों की उपेक्षा करने में स्वयं महिलाओं ने भी कम योगदान नहीं दिया है। नारियों को ताने नारियां ही देती है। महिलाओं की बुराई सबसे अधिक महिलाएं ही करती है। सास बहु का विरोध करती है। बहु सास से मुक्ति चाहती है। जबकि यह वास्तविकता है कि दोनों ही स्त्री हैं। वे ये भूल जाती है कि कभी सास भी बहु थी । यह भी कि बहु भी आगे सास होगी।
    पहले भी परिस्थितियों ने जब ललनाओं को मौका दिया तो उसने अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मदालसा, मैत्रयी, गार्गी, लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, जैसे नाम इतिहास और वर्तमान में अनेकानेक हैं। समय के साथ स्थितियां बदली और अब पुरानी मान्यताएं या कहँँू पुरुषों की साजिशे खंडित होती गई। आचार, विचार और व्यौहार में जोरदार परिवर्तन होने लगा। शासन समाज से उपर हो गया । शासन ने नर नारी को बराबरी का दर्जा दिया तो इसका असर दिखने लगा। अवसर व काम की समानता ने नारी को सशक्त रुप दे दिया। अब वह अमरबेल नहीं। वो खुद दूसरों का सहारा बनती गई। आज की स्थिति में देखें तो महिलाएँ हर तरह से सक्षम है। पढ़ाई, में समानता है। रोजगार में बराबरी है। व्यवसाय में स्वतंत्रता है। धर्म, राजनीति, खेलकूद, सैन्यविभाग, कला, न्याय, चिकित्सा, संचार, अंतरिक्ष, शिक्षा, साहित्य, यातायात आदि पुरुष के लिए आरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों में भी महिलाओं ने वो मुकाम हासिल किया है, जो साबित करता है कि आभूषण श्रृंगार नहीं बल्कि बेड़ियां थी।

    आज बाजारवाद में वहीं पुरुष साजिश की गंध आती है। जिसमें नारी को मात्र सौन्दर्य के साधन के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। सुंदरता की चिकनी बातें कहकर अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है। महिलाओं के सौन्दर्य को बाजारु बनाकर उसे सामान बेचने का तरीका निकाला जा रहा है। मजबूर, अतिमहात्वाकांछी, आत्माप्रशंसा की लालची महिलाएँ इस पुरुषप्रधान बाजार में स्वयं बिकने को तैयार हैं, जो स्त्री जाति के भविष्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है। सदपुरुषों को चाहिए कि वे इस प्रकार के कुचक्रों से स्त्रीयों को बचाए। साथ ही नारियों को किसी भी प्रकार के प्रलोभनों से बचना होगा। भौतिक सुखों के प्रति पागलपन छोड़ना होगा। वे अपना हक तो प्राप्त करें, लेकिन अपनी हद में भी रहे। तभी यह संसार सही दिशा में जा सकेगा। नारी चाहे वह किसी भी रुप में हो उसका सम्मान होना चाहिए। उसे कमजोर न मानते हुए अवसर की बारबरी दें। फिर देखिए जब मनुष्य के दोनों पहिए बराबर होगें तो संस्कार संस्कृति और संसार की कैसी प्रगति होगी।

    अनिल कुमार वर्मा
    सेमरताल, छत्तीसगढ़

  • उपन्यास गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    kavita

    उपन्यास  गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    हिन्दी के नवांकुर लेखक डा. आनंद कश्यप का प्रथम उपन्यास ” गांधी चौक ” केवल एक कहानी नहीं है. बल्कि छत्तीसगढ़ के संघर्षरत युवाओं की यथास्थिति का यथार्थ चित्रण है. चूंकि लेखक स्वयं एक प्रतियोगी हैं, तो उपन्यास में उन्होंने भावों के साथ अपनी आत्मा भी पिरो दी है.
    उपन्यास सपनो के बीज से शुरू होकर संबंधों के प्रोटोकॉल में समाप्त होता है. रचना का पात्र अश्वनी लोकसेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने वाले सभी ग्रामीण युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है. भीष्म जैसे अनेकानेक युवाओं ने अपना भविष्य संवारने के लिए अपने जीवन का बलिदान ही कर दिया.
    परीक्षा प्रणाली, अफसरशाही, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, दादागिरी, गरीबी ये सब हम युवाओं के लिए कठिन चुनौतियां हैं. अश्वनी और उनके जैसे सभी प्रतियोगी संघर्ष के प्रतीक है.
    सूर्यकांत समर्पण का चेहरा है. ये वो सच्चा प्रेमी है, जो नीलिमा शारीरिक सौन्दर्य से नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य से मोहित है. वह उसके प्रति इतना समर्पित है कि उसके कहने पर अपना व्यवहार ही नहीं खुद को बदल लेता है. सूर्यकांत आजकल की तरह दिखावा करने वाला प्रेमी नहीं है. उसका प्यार गहरा है. सूर्यकांत ने नीलिमा की श्वास के साथ अपनी श्वास मिला लिया है. जीना मरना सब उसी के लिए. प्यार की ताकत है कि अमीर बाप का बिगड़ैल बेटा भी सुधर जाता है. अच्छी संगत और प्रेम मिलकर प्यार ही नहीं कठिन परीक्षा भी पास कर लेते हैं. इसमें आनंद जी ने बहुत अच्छी बात कही है कि प्रेम के ईजहार के लिए भी कानून बनने चाहिए. कम से कम एक मौका बिना भय के प्रेम अभिव्यक्ति के लिए होना ही चाहिए.
    इस उपन्यास में युवा कठिन तैयारी भी करते दिख रहे हैं और लोक सेवा आयोग, गरीबी, अफसरशाही, भ्रष्टाचार से संघर्ष भी कर रहे हैं.
    अश्वनी, राजा, रामप्रसाद, नीलिमा अंततः सफल होते हैं क्योंकि वे हार नहीं मानते. लगातार प्रयास करते हैं. वे एक दूसरे का सहयोग करते हैं. एक दूसरे की ताकत बनते हैं. वास्तव में भीष्म आत्महत्या नहीं करता है. समाज, शासन और परीक्षा प्रणाली एक साथ उसकी हत्या करते है. प्रज्ञा के घरवाले उसे ताने देते हैं. वहीं नीलिमा के मां बाप उस पर भरोसा करते हैं. ये हमारे समाज की वास्तविक स्थिति है. सफल आदमी सबका सम्मानीय हो जाता है. भागीरथी जैसे सीधे साधे लोग आज भी परेशान हैं. पता नहीं उन्हें अश्वनी जैसा अफसर सच में मिलेगा भी या नहीं. अश्वनी का यह कथन कि पिता को पुत्र अग्नि देगा तो उसे मुक्ति मिल जाएगी, तो पुत्री के अग्नि देने पर तो पिता ईश्वर ही हो जाएंगे. अत्यंत हृदयस्पर्शी है.
    गांधी चौक उपन्यास का शीर्षक एकदम सटीक है. पूरी कहानी और पात्र गांधी चौक के आसपास रहकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है. भारत देश में गांधी जी संघर्ष के आदर्श हैं. इस उपन्यास को आदर्शवादी उपन्यास की श्रेणी में रखूंगा, क्योंकि उपन्यास के समापन के आते आते भीष्म को छोड़कर सभी पात्र अपने अपने सपनो को साकार कर लेते हैं. सूर्यकांत को अफसरी के साथ ही अपनी जीवन संगिनी भी मिल जाती है.
    उपन्यास के अंत में सभी साथी एक साथ बिलासपुर गांधी चौक के पूनम होटल में हंसी मजाक करते हैं. वे सिगरेट व शराब का लुत्फ़ भी उठाते हैं. सफल आदमी अगर धुम्रपान करें, शराब पिए तो वह भी उसके पद और सफलता का श्रृंगार होता है.
    आनंद कश्यपजी की यह रचना नई पीढ़ी के प्रतियोगियों के लिए औषधि का काम करेगा. युवाओं को नयी दिशा और उर्जा मिलेगी. समाज को सीख मिलेगी और शासन को सुधार का संदेश मिलेगा. प्रेम और पढ़ाई दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं सहयोगी हैं. पद पाकर लोग घमंडी भी हो जाते है, पर वक्त उसे सही रास्ता में ले आता है. समय से बड़ा कोई गुरु नहीं है.
    उपन्यास के पात्र, उसकी भाषा, छत्तीसगढ़ियापन, जिमीकांदा की सब्जी, गांव, तालाब, खेत, बिलासपुर के चौक चौराहे और महाविद्यालय सब हमें बिलासपुर और छत्तीसगढ़ से जोड़ते हैं. कुल मिलाकर यह उपन्यास सार्थक और सफल है. आनंद कश्यपजी को बधाई. लिखते रहिये.
    अनिल कुमार वर्मा
    व्यख्याता हिन्दी
    शा.उ. मा. वि. सेमरताल