Category: हिंदी कविता

  • बज उठी रण-भेरी / शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

    बज उठी रण-भेरी / शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

    बज उठी रण-भेरी / शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

    shivmangal singh 'suman '
    शिवमंगल सिंह ‘सुमन ‘



    मां कब से खड़ी पुकार रही,

    पुत्रों, निज कर में शस्त्र गहो ।

    सेनापति की आवाज हुई,

    तैयार रहो, तैयार रहो।

    आओ तुम भी दो आज बिदा,

    अब क्या अड़चन, अब क्या देरी ?

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

    अब बढ़े चलो अब बढ़े चलो,

    निर्भय हो जय के गान करो।

    सदियों में अवसर आया है,

    बलिदानी, अब बलिदान करो।

    फिर मां का दूध उमड़ आया बहनें देतीं मंगल-फेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

    जलने दो जौहर की ज्वाला,

    अब पहनो केसरिया बाना ।

    आपस की कलह-डाह छोड़ो,

    तुमको शहीद बनने जाना ।

    जो बिना विजय वापस आये मां आज शपथ उसको तेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

  • सबकी प्यारी भूमि हमारी / कमला प्रसाद द्विवेदी

    सबकी प्यारी भूमि हमारी / कमला प्रसाद द्विवेदी



    सबकी प्यारी भूमि हमारी, धनी और कंगाल की।

    जिस धरती पर गई बिखेरी, राख जवाहरलाल की ।।

    दबी नहीं वह क्रांति हमारी, बुझी नहीं चिनगारी है।

    आज शहीदों की समाधि वह, फिर से तुम्हें पुकारी है।

    इस ढेरी को राख न समझो, इसमें लपटें ज्वाल की।

    जिस धरती पर… ॥१॥

    जो अनंत में शीश उठाएं, प्रहरी बन था जाग रहा।

    प्राणों के विनिमय में अपना, पुरस्कार है माँग रहा।

    आज बज गई रण की श्रृंगी, महाकाल के काल की।

    जिस धरती पर… ॥२॥

    जिसके लिए कनक नगरी में, तूने आग लगाई है।

    जिसके लिए धरा के नीचे, खोदी तूने खाई है।

    सगर सुतों की राख जगाती, तुझे आज पाताल की।

    जिस धरती पर… ॥३॥

    रण का मंत्र हुआ उद्घोषित, स्वाहा बोल बढ़ो आगे।

    हर भारतवासी बलि होगा, आओ चलो, चढ़ो आगे।

    भूल न इसको धूल समझना, यह विभूति है भाल की।

    जिस धरती पर… |४||

  • जीत मरण को वीर / भवानी प्रसाद तिवारी

    जीत मरण को वीर / भवानी प्रसाद तिवारी

    जीत मरण को वीर / भवानी प्रसाद तिवारी

    bhawani prasad tivari
    भवानी प्रसाद तिवारी



    जीत मरण को वीर, राष्ट्र को जीवन दान करो,

    समर-खेत के बीच अभय हो मंगल-गान करो।

    भारत-माँ के मुकुट छीनने आया दस्यु विदेशी,

    ब्रह्मपुत्र के तीर पछाड़ो, उघड़ जाए छल वेशी।

    जन्मसिद्ध अधिकार बचाओ, सह-अभियान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो, मंगल-गान करो।

    क्या विवाद में उलझ रहे हो हिंसा या कि अहिंसा ?

    कायरता से श्रेयस्कर है छल-प्रतिकारी हिंसा।

    रक्षक शस्त्र सदा वंचित है, द्रुत संधान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    कालनेमि ने कपट किया, पवनज ने किया भरोसा,

    साक्षी है इतिहास विश्व में किसका कौन भरोसा ।

    है विजयी विश्वास ‘ग्लानि’ का अभ्युत्थान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    महाकाल की पाद-भूमि है, रक्त-सुरा का प्याला,

    पीकर प्रहरी नाच रहा है देशप्रेम मतवाला ।

    चलो, चलो रे, हम भी नाचें, नग्न कृपाण करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    आज मृत्यु से जूझ राष्ट्र को जीवन दान करो,

    रण-खेतों के बीच अभय हो मंगल-गान करो।

  • आज सिंधु में ज्वार उठा है / अटल बिहारी वाजपेयी

    आज सिंधु में ज्वार उठा है / अटल बिहारी वाजपेयी

    “अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविता ‘आज सिंधु में ज्वार उठा है’ में राष्ट्रीयता, साहस और भारतीय संस्कृति की महत्ता को दर्शाया गया है। यह कविता हमें प्रेरित करती है कि हम अपने देश की अखंडता और गरिमा के लिए सदा तत्पर रहें। पढ़ें और जानें इस अद्भुत रचना के गूढ़ अर्थ।”

    आज सिंधु में ज्वार उठा है / अटल बिहारी वाजपेयी

    atal bihari bajpei
    अटल बिहारी वाजपेयी

    कुरुक्षेत्र के कण-कण से फिर, पांचजन्य हुंकार उठा है।
    शत-शत आघातों को सहकर, जीवित हिंदुस्तान हमारा,
    जग के मस्तक पर रोली-सा, शोभित हिंदुस्तान हमारा।
    दुनिया का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ है ?
    घर-घर में शुभ अग्नि जलाता, वह उन्नत ईरान कहाँ है ?

    दीप बुझे पश्चिमी गगन के, व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा,
    किंतु चीरकर तम की छाती, चमका हिंदुस्तान हमारा ।
    हमने उर का स्नेह लुटाकर, पीड़ित ईरानी पाले हैं,
    निज जीवन की ज्योति जला, मानवता के दीपक वाले हैं।

    जग को अमृत का घट देकर, हमने विष का पान किया था,
    मानवता के लिए हर्ष से, अस्थि-वज्र का दान दिया था।
    जब पश्चिम ने वन-फल खाकर, छाल पहनकर लाज बचाई,
    तब भारत से साम-गान का स्वर्गिक स्वर था दिया सुनाई।

    अज्ञानी मानव को हमने, दिव्य ज्ञान का दान दिया था,
    अंबर के ललाट को चूमा, अतल सिंधु को छान लिया था।
    साक्षी है इतिहास प्रकृति का, तब से अनुपम अभिनय होता,
    पूरब में उगता है सूरज, पश्चिम के तम में लय होता।

    विश्व-गगन पर गणित गौरव के, दीपक तो अब भी जलते हैं,
    कोटि-कोटि नयनों में स्वर्णिम, सपने उन्नति के पलते हैं।
    किंतु आज पुत्रों के शोणित से, रंजित वसुधा की छाती,
    टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित, बलिदानी पुरखों की छाती।

    कण-कण पर शोणित बिखरा है, पग-पग पर माथे की रोली,
    इधर मनी सुख की दीवाली, और उधर जन-धन की होली।
    माँगों का सिंदूर, चिता की भस्म, बना हा हा खाता है,
    अगणित जीवन-दीप बुझाता, पापों का झोंका आता है।

    तट से अपना सर टकराकर, झेलम की लहरें पुकारतीं,
    यूनानी का रक्त दिखाकर, चंद्रगुप्त को हैं गुहारतीं।
    रो-रोकर पंजाब पूछता, किसने है दोआब बनाया,
    किसने मंदिर-गुरुद्वारों को, अधर्म का अंगार दिखाया ?

    खड़े देहली पर हो, किसने पौरुष को ललकारा,
    किसने पापी हाथ बढ़ाकर, भारत माँ का मुकुट उतारा ?
    काश्मीर के नंदन वन को, किसने है सुलगाया,
    किसने छाती पर, अन्यायों का अंबार सजाया ?

    आँख खोलकर देखो ! घर में भीषण आग लगी है,
    धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने, दानव-क्षुधा जगी है।
    हिंदू कहने में शरमाते, दूध लजाते, लाज न आती,
    घोर पतन है, अपनी माँ को, माँ कहने में फटती छाती।

    जिसने रक्त पिलाकर पाला, क्षण भर उसका वेश निहारो,
    उसकी सूनी माँग निहारो, बिखरे-बिखरे केश निहारो ।
    जब तक दुःशासन है, वेणी कैसे बँध पाएगी,
    कोटि-कोटि संतति हैं, माँ की लाज न लुट पाएगी।

    कविता का सारांश:

    यह कविता भारत के गौरव और संस्कृति की महत्ता को दर्शाती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस रचना के माध्यम से भारत की ऐतिहासिक महानता, संघर्ष और बलिदान की भावना को उजागर किया है। वे विभिन्न देशों की स्थिति की तुलना करते हैं और भारत की अदम्य ताकत और जीवंतता का गुणगान करते हैं। कविता में विभाजन के दर्द, बलिदानों की कीमत और मातृभूमि के प्रति प्रेम का उल्लेख है, जो दर्शाता है कि हिंदुस्तान के लोग कभी भी अपनी संस्कृति और धर्म को नहीं भूलेंगे।

  • मर्द का दर्द / डॉ विजय कुमार कन्नौजे

    मर्द का दर्द / डॉ विजय कुमार कन्नौजे


    नारी बिना ना मर्द हैं
    मर्द का एक दर्द है।
    एक अनजाने कन्या लाकर
    पालने पोसने का कर्ज है।

    सिर झुका विनती नार को
    हाथ जोड़ अर्ज है।
    जन्म दाता माता पिता का
    जिंदगी भरे कर्ज है।

    मर्द का एक दर्द है।।

    पाप कर्म किया है मर्द
    बच्चन पालना फर्ज है
    माता पिता पत्नी सहित
    बच्चों का कर्ज है।
    मर्द का एक दर्द है।।

    भू गगन जल अग्नि वायु
    इनका भी अर्ज है।
    देश भक्ति कर्तव्य पालन
    मर्द का एक दर्द है।।

    संस्कार संस्कृति सभ्यता
    मानवता का धर्म है।
    कर्त्तव्य कठिन जीवन में
    मर्द का एक दर्द है।।

    जन्म से मौत तक मर्द का
    भंयकर कर्ज है।
    उऋण होना इस कलयुग में
    मर्द का एक दर्द है।।

    मिल जाती यदि नार सुशील
    महौषधि तर्ज है।
    नर नारी मिल द्वी कर्ज चुकाते
    दर्द मिटाने अर्ज है।।