“अटल बिहारी वाजपेयी की प्रसिद्ध कविता ‘आज सिंधु में ज्वार उठा है’ में राष्ट्रीयता, साहस और भारतीय संस्कृति की महत्ता को दर्शाया गया है। यह कविता हमें प्रेरित करती है कि हम अपने देश की अखंडता और गरिमा के लिए सदा तत्पर रहें। पढ़ें और जानें इस अद्भुत रचना के गूढ़ अर्थ।”
आज सिंधु में ज्वार उठा है / अटल बिहारी वाजपेयी
कुरुक्षेत्र के कण-कण से फिर, पांचजन्य हुंकार उठा है। शत-शत आघातों को सहकर, जीवित हिंदुस्तान हमारा, जग के मस्तक पर रोली-सा, शोभित हिंदुस्तान हमारा। दुनिया का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ है ? घर-घर में शुभ अग्नि जलाता, वह उन्नत ईरान कहाँ है ?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के, व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा, किंतु चीरकर तम की छाती, चमका हिंदुस्तान हमारा । हमने उर का स्नेह लुटाकर, पीड़ित ईरानी पाले हैं, निज जीवन की ज्योति जला, मानवता के दीपक वाले हैं।
जग को अमृत का घट देकर, हमने विष का पान किया था, मानवता के लिए हर्ष से, अस्थि-वज्र का दान दिया था। जब पश्चिम ने वन-फल खाकर, छाल पहनकर लाज बचाई, तब भारत से साम-गान का स्वर्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने, दिव्य ज्ञान का दान दिया था, अंबर के ललाट को चूमा, अतल सिंधु को छान लिया था। साक्षी है इतिहास प्रकृति का, तब से अनुपम अभिनय होता, पूरब में उगता है सूरज, पश्चिम के तम में लय होता।
विश्व-गगन पर गणित गौरव के, दीपक तो अब भी जलते हैं, कोटि-कोटि नयनों में स्वर्णिम, सपने उन्नति के पलते हैं। किंतु आज पुत्रों के शोणित से, रंजित वसुधा की छाती, टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित, बलिदानी पुरखों की छाती।
कण-कण पर शोणित बिखरा है, पग-पग पर माथे की रोली, इधर मनी सुख की दीवाली, और उधर जन-धन की होली। माँगों का सिंदूर, चिता की भस्म, बना हा हा खाता है, अगणित जीवन-दीप बुझाता, पापों का झोंका आता है।
तट से अपना सर टकराकर, झेलम की लहरें पुकारतीं, यूनानी का रक्त दिखाकर, चंद्रगुप्त को हैं गुहारतीं। रो-रोकर पंजाब पूछता, किसने है दोआब बनाया, किसने मंदिर-गुरुद्वारों को, अधर्म का अंगार दिखाया ?
खड़े देहली पर हो, किसने पौरुष को ललकारा, किसने पापी हाथ बढ़ाकर, भारत माँ का मुकुट उतारा ? काश्मीर के नंदन वन को, किसने है सुलगाया, किसने छाती पर, अन्यायों का अंबार सजाया ?
आँख खोलकर देखो ! घर में भीषण आग लगी है, धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने, दानव-क्षुधा जगी है। हिंदू कहने में शरमाते, दूध लजाते, लाज न आती, घोर पतन है, अपनी माँ को, माँ कहने में फटती छाती।
जिसने रक्त पिलाकर पाला, क्षण भर उसका वेश निहारो, उसकी सूनी माँग निहारो, बिखरे-बिखरे केश निहारो । जब तक दुःशासन है, वेणी कैसे बँध पाएगी, कोटि-कोटि संतति हैं, माँ की लाज न लुट पाएगी।
कविता का सारांश:
यह कविता भारत के गौरव और संस्कृति की महत्ता को दर्शाती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस रचना के माध्यम से भारत की ऐतिहासिक महानता, संघर्ष और बलिदान की भावना को उजागर किया है। वे विभिन्न देशों की स्थिति की तुलना करते हैं और भारत की अदम्य ताकत और जीवंतता का गुणगान करते हैं। कविता में विभाजन के दर्द, बलिदानों की कीमत और मातृभूमि के प्रति प्रेम का उल्लेख है, जो दर्शाता है कि हिंदुस्तान के लोग कभी भी अपनी संस्कृति और धर्म को नहीं भूलेंगे।