अगर वह एक बार लौट कर आ जाते
तालाब के जल पर एक अस्पष्ट सा,
उन तैरते पत्तों के बीच
एक प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा,
तभी जाना… मेरा भी तो अस्तित्व है।
झुर्रियों ने चेहरे पर पहरा देना शुरू कर दिया था।
कुछ गड्ढे थे.
जो चेहरे पर अटके पड़े थें
जिस पर आँखों से गिरी कुछ बूंदें अपना बसेरा बनाए हुए थीं।
वह बूंदें पीले रंग की थीं।
पत्र शुष्क पड़े थें,
पुष्प झर चुके थें,
मेरी छाँव में कुछ पंछी पले थें,
पर खुलते ही वह आसमान में कहीं दूर उड़ गए थें।
हालांकि अब छाँव नहीं है,
पर फिर भी….
अगर वह एक बार लौटकर आ जाते;
अगर वह एक बार लौटकर
अपनी बाहों में मुझे समा लेते;
अगर वह एक बार आकर प्यार से
‘पिता’ कह देते
तो शायद….
पत्ते फिर उमड़ पड़ते;
कलियाँ फिर फूट पड़तीं;
शुष्क नब्ज़ में खुशियों का संचार होने लगता;
मुझमें चेतना आ जाती।
पर जड़ कमजोर हो चुकी है,
पैर टिक नहीं पा रहें,
अब लोगों के मुँह से भी
मेरे लिए दुआ के कुछ शब्द सुनायी पड़ते हैं.
“जीते जी सबका भला किया,
भगवान इसे अच्छी मौत दे।”
आज शायद भगवान ने उनकी सुन ली,
बच्चे पास थें; मेरे सामने।
उनके सामने एक ‘घर’ था;
जो वर्षों से उनका इंतजार कर रहा था,
‘बगीचे’ थें;
जो उनके आने के आँंखों में सपने संजोए हुए थें,
‘जमीन’ थी;
जो उनके कदम की आहट सुनने के लिए
कब से व्याकुल थी।
हाँ! आखिर उन्हें भी तो लौटकर एक दिन इन्हीं
अपनों के पास आना था।
उन्हें वह घर चाहिए था;
जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना महल बनवाना था।
उन्हें वह बगीचे चाहिए थे;
जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना कारखाना खड़ा करना था,
उन्हें वह जमीन चाहिए थी;
जिसके जरिए उन्हें करोड़ो कमाना था।
किनारे पर वहीं खाट पड़ी हुई थी,
लोगों से घिरा उसी खाट पर मैं लेटा हुआ था,
शायद उन्होंने मुझे देखा ही नहीं था,
जो कुछ समय पहले ही
अपनी जायदाद पाने की चाह में
अपनी जायदाद ही सौंप गया…।
-कीर्ति जायसवाल
प्रयागराज