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  • भ्रूणहत्या-कुण्डलिया छंद


    भ्रूणहत्या-कुण्डलिया छंद

    साधे बेटी मौन को, करती  एक गुहार।
    जीवन को क्यों छीनते ,मेरे सरजनहार।
    मेरे सरजनहार,बतायें गलती मेरी।
    कहँ भू पर गोविंद , करे जो रक्षा  मेरी।
    “कुसुम”कहे समझाय  , पाप   जीवन भर काँधे।
    ढोवोगे दिन रैन ,दुःख यह मौनहि  साधे।

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • पथ की दीप बनूँगी

    पथ की दीप बनूँगी

    प्रिय तुम न होना उदास तेरे पथ की दीप बनूँगी ।
    फूल बिछा कर पग पर तेरे काँटे सदा वरण करूँ गी ।।
    तेरे पथ की दीप बनूँगी।

    ना  मन  हो  विकल  न उथल पुथल ।
    मनों भाव अर्पित कर अधर की मुस्कान बनूँगी ।

    तेरे पथ की दीप बनूँगी।

    जिन्दगी में कभी गम के बादल भी छाये ।
    प्रिय थाम लो हाथ मेरा तपन मैं हरूँगी ।

    तेरे पथ की दीप बनूँगी ।

    खुशी हो  या गम संग  हँस कर जियें ।
    विष वरण कर अमृत तेरे हाथ मैं  धरूँगी ।

    तेरे पथ की दीप बनूँ गी ।

    जिन्दगी के सफर में थक भी जाओ कभी ।
    कदमों पे तेरे प्रिय मैं हथेली धरूँगी ।

    तेरे पथ की दीप बनूँगी ।

    बनाया है रब ने इक दूजे के लिये ।
    आखरी  साँस तक तुमको तकती रहूँगी ।

    तेरे पथ की दीप बनूँगी।
    फूल बिछा कर पग पर तेरे काँटे सदा वरण करूँगी ।

    केवरा यदु “मीरा “

  • भावी पीढ़ी का आगामी भविष्य

    भावी पीढ़ी का आगामी भविष्य


    हमें सोचना तो पड़ेगा।
    परिवार की परंपरा
    समाज की संस्कृति
    मान्यताओं का दर्शन
    व्यवहारिक कुशलता
    आदर्शों की स्थापना।
    निरुद्देश्य तो नहीं!
    महती भूमिका है इनकी
    सुन्दर,संतुलित और सफल
    जीवन जीने में।


    जो बढता निरंतर
    प्रगति की ओर
    देता स्वस्थ शरीर ,
    सफल जीवन और सर्वहितकारी चिन्तन।
    हम रूढियों के संवाहक न बने।
    कुरीतियों की हामी भी क्यों भरें।


    बचें छिछले ,गँदले गड्ढों के कीचड़ से।
    अपनाये नवीन उन्नत्त विचार,
    संग अद्यतन नूतन आविष्कार।
    पर छोड़ें नहीं ,
    हमारे पुरुखों के चरित्रों की
    हीरक, मणिमुक्तामाल।
    जिसके बलबूते पर बनी हुई
    आज भी हमारी विशिष्ट पहचान।


    फिर क्षेत्र कोई भी हो
    सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक।
    सभी स्थानों पर अपेक्षित है
    हमारे व्यवहार की शालीनता।
    हमारी मान्यताओं, आदर्शों की जीवन्तता।
    मर्यादाओं की महानता
    हमें सोचना तो पड़ेगा ।
    भारत की भावी पीढी का
    आगामी भविष्य।

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • एक बार लौट कर आ जाते

    अगर वह एक बार लौट कर आ जाते

    तालाब के जल पर एक अस्पष्ट सा,
    उन तैरते पत्तों के बीच
    एक प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा,
    तभी जाना… मेरा भी तो अस्तित्व है।
    झुर्रियों ने चेहरे पर पहरा देना शुरू कर दिया था।
    कुछ गड्ढे थे.


    जो चेहरे पर अटके पड़े थें
    जिस पर आँखों से गिरी कुछ बूंदें अपना बसेरा बनाए हुए थीं।
    वह बूंदें पीले रंग की थीं।
    पत्र शुष्क पड़े थें,
    पुष्प झर चुके थें,
    मेरी छाँव में कुछ पंछी पले थें,
    पर खुलते ही वह आसमान में कहीं दूर उड़ गए थें।
    हालांकि अब छाँव नहीं है,
    पर फिर भी….


    अगर वह एक बार लौटकर आ जाते;
    अगर वह एक बार लौटकर
    अपनी बाहों में मुझे समा लेते;
    अगर वह एक बार आकर प्यार से
    ‘पिता’ कह देते
    तो शायद….
    पत्ते फिर उमड़ पड़ते;
    कलियाँ फिर फूट पड़तीं;
    शुष्क नब्ज़ में खुशियों का संचार होने लगता;
    मुझमें चेतना आ जाती।
    पर जड़ कमजोर हो चुकी है,
    पैर टिक नहीं पा रहें,
    अब लोगों के मुँह से भी
    मेरे लिए दुआ के कुछ शब्द सुनायी पड़ते हैं.


    “जीते जी सबका भला किया,
    भगवान इसे अच्छी मौत दे।”
    आज शायद भगवान ने उनकी सुन ली,
    बच्चे पास थें; मेरे सामने।
    उनके सामने एक ‘घर’ था;
    जो वर्षों से उनका इंतजार कर रहा था,
    ‘बगीचे’ थें;
    जो उनके आने के आँंखों में सपने संजोए हुए थें,
    ‘जमीन’ थी;
    जो उनके कदम की आहट सुनने के लिए
    कब से व्याकुल थी।


    हाँ! आखिर उन्हें भी तो लौटकर एक दिन इन्हीं
    अपनों के पास आना था।
    उन्हें वह घर चाहिए था;
    जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना महल बनवाना था।
    उन्हें वह बगीचे चाहिए थे;
    जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना कारखाना खड़ा करना था,
    उन्हें वह जमीन चाहिए थी;
    जिसके जरिए उन्हें करोड़ो कमाना था।
    किनारे पर वहीं खाट पड़ी हुई थी,
    लोगों से घिरा उसी खाट पर मैं लेटा हुआ था,
    शायद उन्होंने मुझे देखा ही नहीं था,
    जो कुछ समय पहले ही
    अपनी जायदाद पाने की चाह में
    अपनी जायदाद ही सौंप गया…।


    -कीर्ति जायसवाल
    प्रयागराज

  • प्रातःकाल पर कविता

    प्रातःकाल पर कविता

    प्रातःकाल पर कविता

    morning

    श्याम जलद की ओढ
    चुनरिया प्राची मुस्काई।
    ऊषा भी अवगुण्ठन में
    रंगों संग नहीं आ पाई।

    सोई हुई बालरवि किरणे
    अर्ध निमीलित अलसाई।
    छितराये बदरा संग खेले
    भुवन भास्कर छवि छाई।

    नीड़ छोड़  चली अब तो
    पंछियों की सुरमई पाँत।
    हर मौसम में  रहें कर्मरत
    समझा जाती है यह बात।

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”