हार कर जीतना – पूनम दुबे
सही तो है हार कर भी,
मैं जीत रही हूं,
तुम्हारे लिए कभी बच्चों,
के लिए कभी परिवार ,
के लिए मैं हार कर भी जीत ,
रही हूं,
क्या हुआ अगर मेरे आत्मसम्मान पर
चोट लगती,
है मेरे आंसुओं से क्या फर्क,
पड़ता है ,बात तो ठहर
जाती है ना, सबकी बात
रह तो जाती है ना,
मैं भी नदियों की तरह,
हर बुराईयों को ,
ईंट पत्थर कचरा गंदगी,
और बहुत सी अच्छी ,
बुरी बातों को समेटते हुए,
आगे निकल जाती हूं,
क्योंकि मुझे खुश रहना है,
हार कर भी जीतना है,
हां जब मैं तुम्हारे साथ,
रहती हूं तुम्हारे प्यार के ,
आगे सब भूल जाती हूं,
आंखों की गहराई में ,
सच का साथ लिए डूब जाती हूं,
आंखें बयां कर देती है,
जैसे तुमने संभाल लिया,
शायद औरत का हारना,
उसकी जीत है ,
क्योंकि उसकी हार में ,
सारे रिश्ते सुरक्षित है,
समाज परिवार दोस्त,
यार सभी ,
किसी का दिल ना टूटे
मैं हार कर भी जीत रही हूं.
श्रीमती पूनम दुबे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़
कविताबहार की कुछ अन्य कविताएँ :बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद