Blog

  • हार कर जीतना – पूनम दुबे

    हार कर जीतना – पूनम दुबे

    हार कर जीतना
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    सही तो है हार कर भी,
    मैं जीत रही हूं,
    तुम्हारे लिए कभी बच्चों,
    के लिए कभी परिवार ,
    के लिए मैं हार कर भी जीत ,
    रही हूं,
    क्या हुआ अगर मेरे आत्मसम्मान पर
    चोट लगती,
    है मेरे आंसुओं से क्या फर्क,
    पड़ता है ,बात तो ठहर
    जाती है ना, सबकी बात
    रह तो जाती है ना,

    मैं भी नदियों की तरह,
    हर बुराईयों को ,
    ईंट पत्थर कचरा गंदगी,
    और बहुत सी अच्छी ,
    बुरी बातों को समेटते हुए,
    आगे निकल जाती हूं,
    क्योंकि मुझे खुश रहना है,
    हार कर भी जीतना है,

    हां जब मैं तुम्हारे साथ,
    रहती हूं तुम्हारे प्यार के ,
    आगे सब भूल जाती हूं,
    आंखों की गहराई में ,
    सच का साथ लिए डूब जाती हूं,
    आंखें बयां कर देती है,
    जैसे तुमने संभाल लिया,
    शायद  औरत का हारना,
    उसकी जीत है ,
    क्योंकि उसकी हार में ,
    सारे रिश्ते सुरक्षित है,
    समाज परिवार दोस्त,
    यार सभी ,
    किसी का दिल ना टूटे
    मैं हार कर भी जीत रही हूं.

    श्रीमती पूनम दुबे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़

    कविताबहार की कुछ अन्य कविताएँ :बाबूलाल शर्मा के लावणी छंद

  • आखिर कब आओगे – रश्मि शर्मा

    आखिर कब आओगे – रश्मि शर्मा

    आखिर कब आओगे
    kavita bahar

    मुझे अकेला छोड़कर कहाँ जाओगे तुम,
    इन्हीं राहों में खड़ी हुँ कभी तो मिलोगे तुम।

    छोटी सी बात पर आंख फेर ली तुमने,
    कब तक यूँ मुझसे रूठे ही रहोगे तुम।

    रात भर जागती रही आंखे मेरी यहाँ,
    सपनों में न आकर मुझे सताओगे तुम।

    मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ,
    ये तो बताओ आखिर कब आओगे तुम।

    मेरी जिंदगी यूँ ही तन्हाइयों में गुजरी हैं,
    अब मिले हो तो क्या ऐसे रुलाओगे तुम।

    रश्मि शर्मा ‘इन्दु’

    कविताबहार की कुछ अन्य कविताएँ :चूहा पर बाल कविता

  • मुसाफिर पर कविता

     चल मुसाफिर चल-केवरा यदु “मीरा “

    जिन्दगी  काँटों भरी है चल मुसाफिर चल ।
    गिर गिर कर उठ संभल मुसाफ़िर चल ।

    लाख तूफाँ आये तुम रूकना नहीं।
    मंजिलों की चाह  है झुकना नहीं ।
    मंजिल तुझे मिल जायेगी आज नहीं तो कल।

    याद रख जो आँधियों से है टकराते ।
    मंजिल कदम चूमने उनके ही आते।
    गुनगुनाना कर मुस्कुरा कर ऐ मुसाफ़िर चल ।

    लक्ष्य अपना ले बना भटक मत
    ये माया की नगरी में अटक मत
    सुकून मिलता जाएगा चल मुसाफिर चल

    जिन्दगी काँटों भरी है चल मुसाफिर चल ।
    गिर गिर कर उठ संभल मुसाफ़िर चल ।

    केवरा यदु “मीरा “

  • साल पर कविता

    साल ही तो है

    कुछ को होगी ख़ुशी, कोई ग़म से भर जाएगा
    न जाने ये नया साल भी, क्या कुछ कर जाएगा

    कुछ अरमान होंगे पूरी इसमें उम्मीद है हमें
    और कुछ इस साल कि तरह ख़ुद में मर जाएगा

    टूटा है गर मोहब्बत तो, हो ही जाएगा दोबारा
    बस देखो एहतियातन वहाँ तज जहाँ तक नज़र जाएगा

    कुछ ना हुआ अच्छा तो उदास मत होना मेरे यारों
    साल ही तो है बारह महीनों में फिर गुज़र जाएगा

    – दीपक नायक “राज़” 

  • धर्म एक धंधा है

    धर्म एक धंधा है 

    गंगाधर मनबोध गांगुली “सुलेख “
            समाज सुधारक ” युवा कवि “

    क्या धर्म है ,क्या अधर्म है ?

    आज अधर्म को ही धर्म समझ बैठें हैं ।

    धर्म से ही वर्ण व्यवस्था ,
                                 समाज में आया है ।
    धर्म ही इंसान को ,
                   इंसान का दुश्मन बनाया है ।।01।।

    वर्ण व्यवस्था बाद में ,
                        जाति व्यवस्था में बदल गया ।
    मानव समाज को देखो ,
                      अपने आपमें बिखर गया ।।02।।

    समाज सुधारक पैदा हुए ,
                   समाज को सुधारने के लिए ।
    समाज के बुराइयों को ,
                   समाज से मिटाने के लिए ।।03।।

    आज शिक्षित इंसान भी,
                     अशिक्षित जैसा सो रहा है ।
    समाज की हालत देखकर ,
                 समाज सुधारक रो रहा है ।।04।।

    आज के इंसान में ,
                          इंसानियत नहीं है ।
    आज के मानव में ,
                           मानवता नहीं है ।।05।।

    लड़ रहे हैं हम ,
                      सिर्फ अपने आप से ।
    रूढ़िवाद, जातिवाद ,
                           और अंधविश्वास से ।।06।।

    सभ्यता और संस्कृति कहकर ,
                           बुराई को भी ढ़ो रहे हैं ।
    शिक्षित हैं फिर भी ,
                    अशिक्षित जैसे सो रहे हैं ।।07।।

    तर्क – वितर्क लगता नहीं कोई ,
                      फिर भी धार्मिक बंदा है ।
    धर्म तो एक धंधा है ,
                         मानव आज भी अंधा है ।।08।।

    सिर्फ नारा लगाते हैं लोग :—-

    हिन्दू , मुस्लिम, सिख ,ईसाई ।
                            आपस में हैं ,भाई – भाई ।
    तो आप ही बताइए ?
                      धर्म के नाम पर क्यो होता है लड़ाई ? ।।9।।

    मुझे तो लगता है :—

    तर्क – वितर्क लगता नहीं कोई ,
                                फिर भी धार्मिक बंदा है ।
    धर्म तो एक धंधा है ,
                        मानव आज भी अन्धा है ।।10।।

                       गंगाधर मनबोध गांगुली ” सुलेख “
                         समाज सुधारक ” युवा कवि “

                             9754217202