सार छंद विधान -ऋतु बसंत लाई पछुआई
सार छंद विधान- (१६,१२ मात्राएँ), चरणांत मे गुरु गुरु, ( २२,२११,११२,या ११११)
ऋतु बसंत लाई पछुआई,
बीत रही शीतलता।
पतझड़ आए कुहुके,कोयल,
विरहा मानस जलता।
नव कोंपल नवकली खिली है,
भृंगों का आकर्षण।
तितली मधु मक्खी रस चूषक,
करते पुष्प समर्पण।
बिना देह के कामदेव जग,
रति को ढूँढ रहा है।
रति खोजे निर्मलमनपति को,
मन व्यापार बहा है।
वृक्ष बौर से लदे चाहते,
लिपट लता तरुणाई।
चाह लता की लिपटे तरु के,
भाए प्रीत मिताई।
कामातुर खग मृग जग मानव,
रीत प्रीत दर्शाए।
कहीं विरह नर कोयल गाए,
कहीं गीत हरषाए।
मन कुरंग चातक सारस वन,
मोर पपीहा बोले।
विरह बावरी विरहा तन मे,
मानो विष मन घोले।
विरहा मन गो गौ रम्भाएँ,
नेह नीर मन चाहत।
तीर लगे हैं काम देव तन,
नयन हुए मन आहत।
काग कबूतर बया कमेड़ी,
तोते चोंच लड़ाते।
प्रेमदिवस कह युगल सनेही,
विरहा मनुज चिढ़ाते।
मेघ गरज नभ चपला चमके,
भू से नेह जताते।
नीर नेह या हिम वर्षा कर,
मन का चैन चुराते।
शेर शेरनी लड़ गुर्रा कर,
बन जाते अभिसारी।
भालू चीते बाघ तेंदुए,
करे प्रणय हित यारी।
पथ भूले आए पुरवाई,
पात कली तरु काँपे।
मेघ श्याम भंग रस बरसा,
यौवन जगे बुढ़ापे।
रंग भंग सज कर होली पर,
अल्हड़ मानस मचले।
रीत प्रीत मन मस्ती झूमें,
खड़ी फसल भी पक ले।
नभ में तारे नयन लड़ा कर,
बनते प्रीत प्रचारी।
छन्न पकैया छन्न पकैया,
घूम रही भू सारी।
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ