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  • जय हो तेरी बाँके बिहारी

    जय हो तेरी बाँके बिहारी

    माँखन तुमने बहुत चुराए,
    बांसुरी तुमने बहुत बजाए,
    गोपियों को तुम बहुत सताए,
    माँ को उलहन बहुत सुनाए,
    ऐसी लीला करके गिरधर,
    पावन कर दीए धरा हमारी,
    जाऊँ मैं तुझपे बलिहारी,
    जय हो तेरी बाँके बिहारी ।।


           बचपन में पुतना को मारे,
           कालिया नाग को भी उद्धारे
           अमिट कर दीए सुदामा की मित्रता,
           गुरु सांदीपनी की अनुपम पवित्रता,
           मथुरा पधारे कंश संहारे,
           कंश संहार कर हे प्रिय केशव,
           धन्य कर दीए मथुरा सारी,
           जय हो तेरी बाँके बिहारी ।।

    बड़ा हुए तो माखन छुटा ,
    गोपियों से भी नाता टुटा,
    याद में रोयें राधा प्यारी,
    बांसुरी का भी धुन था न्यारी,
    कहाँ छोड़ चले ओ माधव,
    याद कर रहीं सखी तुम्हारी,
    रास रचैया रास बिहारी,
    जय हो तेरी बाँके बिहारी ।।

          धृतराष्ट्र की सभा में देखो,
          दुराचारों का भीड़ है भारी,
          बीच सभा में ओ मोहन,
          खींच रहा है चीर हमारी,
          अब देर मत करो मदन मुरारी,
          बचाओ आकर लाज हमारी,
          लीलाधर गोवर्धनधारी ,
          जय हो तेरी बाँके बिहारी ।।

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

  • बहुत याद आता हैं बचपन का होना

    बहुत याद आता हैं बचपन का होना

    वो बचपन में रोना बीछावन पे सोना,,
    छान देना उछल कूद कर धर का कोना,,
    बैठी कोने में माँ जी का आँचल भिगोना,,
    माँ डाटी व बोली लो खेलो खिलौना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना।।

    बहुत याद आता हैं बचपन का होना


    गोदी में सुला माँ का लोरी सुनाना,
    कटोरी में गुड़ दूध रोटी खिलाना,,
    नीम तुलसी के पते का काढा पीलाना,,
    नहीं सोने पर ठकनी बूढ़ीया बुलाना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।।


    घर के पास में छोटी तितली पकड़ना,,
    वो तितली उड़ा फिर दूबारा पकड़ना,,
    लेट कर मिट्टीयो में बहुत ही अकड़ना,,
    अकड़ते हुए मा से आकर लीपटना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।।।


    दादा के कानधे चढ़ गाँव घर घुम आना,,
    रात में दादा दादी का किस्सा सुनाना,,
    छत पर ले जा चंदा मामा दीखाना,,
    दीखाते हुए चाँद तारे गिनाना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।।


    गाँव के बाग से आम अमरूद चुराना,,
    खेत में झट दूबक खीरे ककड़ी का खाना,,
    पकड़े जाने पर मा को उलहन सुनाना,,
    फिर गुस्से में माँ से मेरा पिट जाना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।।।


    दीन भर खेत में बाबू जी का होना,,
    इधर मैं चलाऊ शरारत का टोना,,
    गुरु जी का हमको ककहरा खिखाना,,
    दूसरे घर में जा माँगकर मेंरा खाना,,
    बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।
    हाँ बहुत याद आता हैं बचपन का होना ।।।

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

  • कुछ ऐसा काम कर दिखाये हम

    कुछ ऐसा काम कर दिखाये हम

    कुछ ऐसा काम कर दिखाये हम ।
    दुनियाँ को जन्नत सा बनाएँ हम ।।

    फिरकापरस्ती का जहर कम हो ।
    सबका मालिक एक बताएँ हम ।।

    कोई हिन्दू न कोई मुसलमान हो ।
    इंसान है इंसान ही कहलाएं हम ।।

    बस्तियाँ अब बहुत जला ली हमने ।
    झोपड़ी में एक दीपक जलाएँ हम ।।

    हवा भी इस कदर जहरीली हो गई ।
    खुले मैदान में सांस न ले पाएं हम ।।

    कर्म से ही अहिंसा बेमानी लगती है ।
    मन वचन से अहिंसा अपनाएं हम ।।

                         ‘ पंकज ‘

  • अपनी भाषा हिन्दी

    अपनी भाषा हिन्दी    

    गहरा संबंध है,
    सादगी और सौंदर्य में
    स्वाभाविकता और अपनत्व में।
    नकल में तो आती है,
    बनावट की बू।
    बोलने में सिकुड़ती है
    नाक और भौं।
    जो है, उससे अलग दिखने की चाह।
    पकड़ते अपनों से अलग होने की राह।
    मत सोचिये कि निरर्थक कहे जा रही,
    क्योंकि अब मैं अपनी बात पे आ रही।

    बात साफ है,
    हिन्दी और अंग्रेजी की,
    देशी और विदेशी की।
    दम लगा देते हैं एक का
    बोलने का लहजा सीखने में।
    कमी तो फिर भी रह ही जाती है,
    कुछ कहने में।
    हिंदी बोलने में उनके
    हर दो शब्द बाद अंग्रेजी है,
    लगता है बात शान से सहेजी है।

    पर अपनी भाषा का तो
    होता है निराला अंदाज ।
    बिना किसी बनावट के
    किया गया आगाज।
    बसे हैं इसमें अपने रीत रिवाज,
    बजते हैं इसी में हमारे हर साज।
    आती इसमें अपनी माटी की
    सौंधी गंध,
    बसती है इसमें माँ की रक्षा की सौगन्ध।
    पावन प्राणवायु सी
    जो करती श्वांसों का संचार
    मादक पुहुप सुरभि सी,
    करती जिजीविषा का प्रसार।
    परींदे के नूतन परों सी,
    जो भरते उन्मुक्त उड़ान।
    सप्त सुरों के साधन सी
    छिड़ता जीवन का राग।
    अदृश्य के आराधन सी
    सधता जिससे विराग
    हिंद की होती विश्व में
    हिंदी से ही पहचान।
    हिंदी से  ही पहचान।

    पुष्पा शर्मा”कुसम”

  • आओ मिलकर पेड़ लगाएं

    आओ मिलकर पेड़ लगाएं

    Poem on plantation || वृक्षारोपण पर कविता

    सूनी धरा को फिर खिलाएं
    धरती मां के आंचल को हम
    रंगीन फूलों से सजाएं
    आओ मिलकर पेड़ लगाएं।।

    न रहे रिश्तों में कभी दूरियां
    चाहे हो गम चाहे मजबूरियां
    मिलकर घर सब सजाएं
    आओ मिलकर पेड़ लगाएं।।

    वन की सब रखवाली करें
    सूखे लकड़ियो से काम चलाएं
    कैसे न खुश होंगी फिजाएं
    आओ मिलकर पेड़ लगाएं।।

    अगर करोगे वन विनाश
    बीमारियों का घर में होगा वास
    भू में स्वच्छ वातावरण बनाएं
    आओ मिलकर एक पेंड लगाएं।।

    क्रान्ति, सीतापुर, सरगुजा छग