धूल-भरा दिन / अज्ञेय
धूल-भरा दिन / अज्ञेय पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा,पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा!मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है,हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है। पर यह धूली, मन्त्र-स्पर्श से मेरे अंग-अंग को छू करकौन सँदेसा कह जाती है … Read more