रोटी पर कविता
पता नहीं
इसे रोटी कहूँ
या भूख या मौत
आईना या चाँद
मज़बूरी या ज़रूरी
कभी मैं रोटी के लिए
रोती हूँ
कभी रोटी
मेरे लिए रोती है
कभी मैं
भूख को
मिटाती हूँ
कभी भूख
मुझे मिटाती है
रोटी से सस्ती
होती है मौत
वह मिल जाती है
आसानी से
पर रोटी नहीं मिलती
रोटी आईना है
जिसमें दिखते हैं हम
पर रोटी में
हम नहीं होते
हमारा आभास होता है
खूबसूरत चाँद-सी
लगती है रोटी
पर होती है दूर
सिर्फ़ देख सकते हैं उसे
छू भी नहीं सकते
क्या करें साहब !
ज़िंदा तो रहना है
इसीलिए
रोटी मज़बूरी है
और ज़रूरी भी।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479