समय का चक्र
चिता की लकड़ियाँ,
ठहाके लगा रही थीं,
शक्तिशाली मानव को निःशब्द जला रही थीं!
रोकती रही मैं मगर सताता रहा
ताकत पर अपनी इतराता रहा!
भूल जाता बचपन में तुझे
खिलौना बन रिझाती रही,
थक जाता जब रो-रो कर
पलना बनकर झुलाती रही!
बुढ़ापे में असमर्थ हुआ तो
लाठी बनकर चलाती रही,
जीवन के संसाधनों में तेरे
हरदम काम आती रही!
देख समय का चक्र कैसे चलता है
निःसहाय हो मानव तू भी
एक दिन जलता है!
मेरी चेतावनी है,मुझे पलने दे,
पुष्पित,पल्लवित होकर फलने दे!
वृक्ष का मित्र बनकर
जीने का अधिकार दे,
प्यार से जीना सीख!
मुझे भी स्नेह,दुलार दे!
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