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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०अनिल कुमार वर्माके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    टोक्यो ओलंपिक में भारत की मुक्केबाज लवलीना, मीराबाई चानु, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, महिला हाकी टीम और तीरंदाज दीपिका कुमारी का शानदार प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि बेटियों को अवसर मिले तो वे सफलता के परचम फहरा सकती हंै। एक समय था ,जब इसी देश में लड़कियों को घर की दहलीज लांघने की मनाही थी। उन्हें समाज में कहीं भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता था। बालिकाओं को घर के काम की जिम्मेंदारी थी। कम उम्र में काम का बोझ डाल दिया जाता था। सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखी जाती थी। महिलाओं को सिर्फ चूल्हा चैका तक बाँध कर रखा जाता था। स्त्री के प्रति कुछ लोगों की सोच बहुत निम्न होती थी । वे स्त्री को अपने पैरों की जूती से अधिक कुछ नहीं मानते थे। हर युग में नारी को कठोर कष्ट के साथ जीना पड़ा है। कोमल अंग को कठिन जिम्मेदारी निभानी पड़ी है।
    नारी सत्ता को गंभीर परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है। देवतुल्य महापुरुषों ने स्त्री को जुए के दंाव तक में लगा दिया। मीरा के साथ अन्याय की इंतहा हो गई। यशोधरा को उसके पति ने रात को शयनकक्ष में ही छोड़ दिया। अहिल्या को पत्थर का श्राप मिला। सावित्री को यमराज से लड़ना पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि संसार में जितने भी लोग इतिहासपुरुष कहलाते है,उन सबके पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ रहा है। माताओं ने अपना सर्वस्व त्याग ,समर्पण से पुरुषों को दिशा दी है। महिलाएँ अपनी प्रतिभा,योग्यता को अपने प्रिय पुरुष पात्रों को देती रही है।
    नारियों को पुरुषों ने तरह तरह से ठगा है। अपने स्वार्थ सिद्धी के लिए कभी उसके सौन्दर्य के गुणगान गाए। तो कभी खुद कमजोर हुए तो नारी को काली, दुर्गा शक्तिस्वरुपा कहा। सच पूछों तो प्रकृति ने इन्हें सौन्दर्य से सजाया है। कोमलता, सरलता, मुस्कान, सुंदरता ही इनके असल श्रृंगार हैं। लेकिन कालांतर में चालाक नर ने महिलाओं को आभूषणों भंवरजाल में फाँस लिया । ये अलंकार बढ़ते बढ़ते इतना अधिक हो गए कि, आभूषणों के बोझ में चलना मुश्किल हो गया।जब चलना ही मुश्किल हो गया तो पुरुषों के साथ दौड़ना तो और भी कठिन हो गया । स्त्रीयों के पहनावे भी ऐसे रखे गए, जिसे पहनकर वे पुरुषों की भाँती काम नहीं कर सकती थी। साड़ी,धोती पहनकर दौड़ भाग का काम हो भी नहीं सकता। और ये आक्षेप भी सरलता से लगा दिए गए कि स्त्री पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकती।
    इतिहास सिद्ध है कि जब भी नारियों को मौका मिला है, उसने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हौसला दिखाया है। कैकयी की कथा से आप अवगत होंगे। युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ के प्राण उसने बचाए थे। रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती और अहिल्या बाई की बहादुरी में क्या किसी को शंका ळें स्त्री कमजोर नहीं होती । कमजोर उसे समाज बनाता है। बचपन से कन्या को कमजोर साबित किया जाता है। लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए। वो नहीं करना चाहिए। इस तरह के बेकार की बंधनों से बालिकाओं में बचपन से ही असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। वह खुद को कमजोर समझने लगती है। उनका आत्मविश्वास पल्लवित ही नहीं हो पाते ।
    स्त्रीयों की उपेक्षा करने में स्वयं महिलाओं ने भी कम योगदान नहीं दिया है। नारियों को ताने नारियां ही देती है। महिलाओं की बुराई सबसे अधिक महिलाएं ही करती है। सास बहु का विरोध करती है। बहु सास से मुक्ति चाहती है। जबकि यह वास्तविकता है कि दोनों ही स्त्री हैं। वे ये भूल जाती है कि कभी सास भी बहु थी । यह भी कि बहु भी आगे सास होगी।
    पहले भी परिस्थितियों ने जब ललनाओं को मौका दिया तो उसने अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मदालसा, मैत्रयी, गार्गी, लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, जैसे नाम इतिहास और वर्तमान में अनेकानेक हैं। समय के साथ स्थितियां बदली और अब पुरानी मान्यताएं या कहँँू पुरुषों की साजिशे खंडित होती गई। आचार, विचार और व्यौहार में जोरदार परिवर्तन होने लगा। शासन समाज से उपर हो गया । शासन ने नर नारी को बराबरी का दर्जा दिया तो इसका असर दिखने लगा। अवसर व काम की समानता ने नारी को सशक्त रुप दे दिया। अब वह अमरबेल नहीं। वो खुद दूसरों का सहारा बनती गई। आज की स्थिति में देखें तो महिलाएँ हर तरह से सक्षम है। पढ़ाई, में समानता है। रोजगार में बराबरी है। व्यवसाय में स्वतंत्रता है। धर्म, राजनीति, खेलकूद, सैन्यविभाग, कला, न्याय, चिकित्सा, संचार, अंतरिक्ष, शिक्षा, साहित्य, यातायात आदि पुरुष के लिए आरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों में भी महिलाओं ने वो मुकाम हासिल किया है, जो साबित करता है कि आभूषण श्रृंगार नहीं बल्कि बेड़ियां थी।

    आज बाजारवाद में वहीं पुरुष साजिश की गंध आती है। जिसमें नारी को मात्र सौन्दर्य के साधन के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। सुंदरता की चिकनी बातें कहकर अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है। महिलाओं के सौन्दर्य को बाजारु बनाकर उसे सामान बेचने का तरीका निकाला जा रहा है। मजबूर, अतिमहात्वाकांछी, आत्माप्रशंसा की लालची महिलाएँ इस पुरुषप्रधान बाजार में स्वयं बिकने को तैयार हैं, जो स्त्री जाति के भविष्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है। सदपुरुषों को चाहिए कि वे इस प्रकार के कुचक्रों से स्त्रीयों को बचाए। साथ ही नारियों को किसी भी प्रकार के प्रलोभनों से बचना होगा। भौतिक सुखों के प्रति पागलपन छोड़ना होगा। वे अपना हक तो प्राप्त करें, लेकिन अपनी हद में भी रहे। तभी यह संसार सही दिशा में जा सकेगा। नारी चाहे वह किसी भी रुप में हो उसका सम्मान होना चाहिए। उसे कमजोर न मानते हुए अवसर की बारबरी दें। फिर देखिए जब मनुष्य के दोनों पहिए बराबर होगें तो संस्कार संस्कृति और संसार की कैसी प्रगति होगी।

    अनिल कुमार वर्मा
    सेमरताल, छत्तीसगढ़

  • उपन्यास गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    kavita

    उपन्यास  गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    हिन्दी के नवांकुर लेखक डा. आनंद कश्यप का प्रथम उपन्यास ” गांधी चौक ” केवल एक कहानी नहीं है. बल्कि छत्तीसगढ़ के संघर्षरत युवाओं की यथास्थिति का यथार्थ चित्रण है. चूंकि लेखक स्वयं एक प्रतियोगी हैं, तो उपन्यास में उन्होंने भावों के साथ अपनी आत्मा भी पिरो दी है.
    उपन्यास सपनो के बीज से शुरू होकर संबंधों के प्रोटोकॉल में समाप्त होता है. रचना का पात्र अश्वनी लोकसेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने वाले सभी ग्रामीण युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है. भीष्म जैसे अनेकानेक युवाओं ने अपना भविष्य संवारने के लिए अपने जीवन का बलिदान ही कर दिया.
    परीक्षा प्रणाली, अफसरशाही, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, दादागिरी, गरीबी ये सब हम युवाओं के लिए कठिन चुनौतियां हैं. अश्वनी और उनके जैसे सभी प्रतियोगी संघर्ष के प्रतीक है.
    सूर्यकांत समर्पण का चेहरा है. ये वो सच्चा प्रेमी है, जो नीलिमा शारीरिक सौन्दर्य से नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य से मोहित है. वह उसके प्रति इतना समर्पित है कि उसके कहने पर अपना व्यवहार ही नहीं खुद को बदल लेता है. सूर्यकांत आजकल की तरह दिखावा करने वाला प्रेमी नहीं है. उसका प्यार गहरा है. सूर्यकांत ने नीलिमा की श्वास के साथ अपनी श्वास मिला लिया है. जीना मरना सब उसी के लिए. प्यार की ताकत है कि अमीर बाप का बिगड़ैल बेटा भी सुधर जाता है. अच्छी संगत और प्रेम मिलकर प्यार ही नहीं कठिन परीक्षा भी पास कर लेते हैं. इसमें आनंद जी ने बहुत अच्छी बात कही है कि प्रेम के ईजहार के लिए भी कानून बनने चाहिए. कम से कम एक मौका बिना भय के प्रेम अभिव्यक्ति के लिए होना ही चाहिए.
    इस उपन्यास में युवा कठिन तैयारी भी करते दिख रहे हैं और लोक सेवा आयोग, गरीबी, अफसरशाही, भ्रष्टाचार से संघर्ष भी कर रहे हैं.
    अश्वनी, राजा, रामप्रसाद, नीलिमा अंततः सफल होते हैं क्योंकि वे हार नहीं मानते. लगातार प्रयास करते हैं. वे एक दूसरे का सहयोग करते हैं. एक दूसरे की ताकत बनते हैं. वास्तव में भीष्म आत्महत्या नहीं करता है. समाज, शासन और परीक्षा प्रणाली एक साथ उसकी हत्या करते है. प्रज्ञा के घरवाले उसे ताने देते हैं. वहीं नीलिमा के मां बाप उस पर भरोसा करते हैं. ये हमारे समाज की वास्तविक स्थिति है. सफल आदमी सबका सम्मानीय हो जाता है. भागीरथी जैसे सीधे साधे लोग आज भी परेशान हैं. पता नहीं उन्हें अश्वनी जैसा अफसर सच में मिलेगा भी या नहीं. अश्वनी का यह कथन कि पिता को पुत्र अग्नि देगा तो उसे मुक्ति मिल जाएगी, तो पुत्री के अग्नि देने पर तो पिता ईश्वर ही हो जाएंगे. अत्यंत हृदयस्पर्शी है.
    गांधी चौक उपन्यास का शीर्षक एकदम सटीक है. पूरी कहानी और पात्र गांधी चौक के आसपास रहकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है. भारत देश में गांधी जी संघर्ष के आदर्श हैं. इस उपन्यास को आदर्शवादी उपन्यास की श्रेणी में रखूंगा, क्योंकि उपन्यास के समापन के आते आते भीष्म को छोड़कर सभी पात्र अपने अपने सपनो को साकार कर लेते हैं. सूर्यकांत को अफसरी के साथ ही अपनी जीवन संगिनी भी मिल जाती है.
    उपन्यास के अंत में सभी साथी एक साथ बिलासपुर गांधी चौक के पूनम होटल में हंसी मजाक करते हैं. वे सिगरेट व शराब का लुत्फ़ भी उठाते हैं. सफल आदमी अगर धुम्रपान करें, शराब पिए तो वह भी उसके पद और सफलता का श्रृंगार होता है.
    आनंद कश्यपजी की यह रचना नई पीढ़ी के प्रतियोगियों के लिए औषधि का काम करेगा. युवाओं को नयी दिशा और उर्जा मिलेगी. समाज को सीख मिलेगी और शासन को सुधार का संदेश मिलेगा. प्रेम और पढ़ाई दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं सहयोगी हैं. पद पाकर लोग घमंडी भी हो जाते है, पर वक्त उसे सही रास्ता में ले आता है. समय से बड़ा कोई गुरु नहीं है.
    उपन्यास के पात्र, उसकी भाषा, छत्तीसगढ़ियापन, जिमीकांदा की सब्जी, गांव, तालाब, खेत, बिलासपुर के चौक चौराहे और महाविद्यालय सब हमें बिलासपुर और छत्तीसगढ़ से जोड़ते हैं. कुल मिलाकर यह उपन्यास सार्थक और सफल है. आनंद कश्यपजी को बधाई. लिखते रहिये.
    अनिल कुमार वर्मा
    व्यख्याता हिन्दी
    शा.उ. मा. वि. सेमरताल

  • हिंदी कविता – सौन्दर्य की देवी

    kavita

    ‘‘सौन्दर्य की देवी’’

    उपमा दूँ किससे मैं तेरी प्रिया।
    फूलों ने खुशबू भी तुमसे लिया।।
    कैसे कहूँ नैन कैसे चमकते।
    तारे भी इतने प्रकाशित न दिखते।।
    होठो की लाली बताऊँ मैं कैसे।
    सूरज ने रंग भी उधारी ली तुमसे।।
    हाथ कोमल है इतने कि कोई नहीं।
    मोती झरते आँसू से है रोई नहीं।
    कैसे कहूँ वाणी कितने मधुर है।
    सारी मधुरता तेरे ही अंश है।।
    चंचलता इतनी बताई न जाये।
    बिजली भी इतनी न आयी और जाये।।
    मादकता तुझमें छलकती है यारा।
    घुट भर नशा कर दे संसार सारा।।
    कैसे चले तू बताऊँ मैं कैसे।
    अप्सराओं ने चलना भी सीखा है तुमसे।।
    घूँघट गिरा दो तो अंधेरा जग में।
    हँस दो तो हँस देंगे कोई भी गम में।।
    कैसे कहूँ केश शोभाय कितने ।
    काली घटायें तेरे घुटने जितने।।
    बिना आभूषण के कितनी है सुंदर।
    परिया भी श्रृंगार फेके समुंदर।।
    गहराई इतनी है तुझमें ओ यारा।
    कोई नहीं है समुंदर भी खारा।।
    पीने से बढ़ती है वो प्यास हो।
    झूठा सभी बस तुम्हीं आस हो।।
    क्या नाम तुझे दूँ हो संतुष्टी मुझको।
    सौन्दर्य देवी कहूँ मैं तो तुझको।।

    अनिल कुमार वर्मा, सेमरताल

  • महिला सांसदों पर मार्शल बल का प्रयोग –

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    महिला सांसदों पर मार्शल बल का प्रयोग –

    लोकतंत्र पर कालिख पिछले दिनों लोकतंत्र के मंदिर माने जाने वाले संसद के उच्च सदन राज्य सभा में पिछड़ा वर्ग संबंधी बिल के संदर्भ में आयोजित सत्र के दौरान महिला सांसदो के साथ धक्कामुक्की की गई। छत्तीसगढ़ के कांग्रेस पार्टी की महिला सांसद फूलोदेवी नेताम और श्रेष्ठ सांसद के रुप में सम्मानित छाया वर्मा ने अपने बयान में कहा है कि राज्यसभा में सत्र के दौरान वे अपना पक्ष रखना चाहती थी। लेकिन सत्ता पक्ष ने हमारी आवाज दबाने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया। मार्शलो के बल पर महिला सांसदो की भी बोलती बंद करा दी गई। इतना ही नहीं उनके साथ मार्शलों ने बदसलूकी भी की। दोनों ही सांसद अपने साथ सरेआम संसद में हुई इस बुरे व्यवहार के के बारे में बताते हुए रो पड़ी। ऐसी घटना महाभारत के चीरहरण प्रकरण की याद दिलाता है। जो भरी सभा में द्रौपदी के साथ किया गया था। कोई भी महिला सासंद का अपमान होता है, तो यह अकेले उस महिला का अपमान नहीं है। यह उन सभी जनता का, मातृसत्ता का अपमान है, जिनका वे प्रतिनिधित्व कर रही है। महादेवी वर्मा लिखती है कि युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशक्ति के लिए ही दण्ड देता आ रहा है।

    भारत माँ के गालों पर कसकर पड़ा तमाचा है,
    रामराज में अबके रावण नंगा होकर नाचा है।

    हम गर्व करते हैं कि भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारी संस्कृति कहती है कि ”यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः“। हम नारी को माँ कहते हैं। हमारे नेता महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं। महिला आरक्षण के चर्चे होते हैं। सबका साथ सबका विकास का नारा लगाया जाता है। वहीं संसद में महिला सांसदो के साथ अभद्रता का व्यवहार किया जाता है। यह उस कहावत को चरितार्थ करता है जिसमें कहा गया है कि हाथी के दांत खाने का और होता है, दिखाने का और होता है। अभी अभी ओलंपिक में अपना नाम और देश का नाम रौशन करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया गया। भाषण में महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ी बड़ी बांते कहीं जाती है, मगर वास्तविकता कुछ और ही है।
    देश का संसद लोकतंत्र का मंदिर होता है। करोड़ों लोगों के कल्याण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विषयों पर वहाँ गंभीर चर्चे होने चाहिए। किंतु वहाँ उन मुद्दों प्राथमिकता दी जाति है, जिनसे सत्ताधीन दलों का स्वार्थ जुड़ा होता है। भरपूर बहुमत प्राप्त दल के लोग लोकतांत्रिक सत्ता में रहते हुए यह भूल जातें हैं कि, वे पाँच साल के लिए चुने गए हैं। वे अपने संख्या बल का प्रयोग विपक्षियों को डराने, धमकाने, हराने, बदनाम करने, बेईज्जत करने और अपने हितों के लिए कानूनी बदलाव करने के लिए करते हैं।

    आज के समय में देश में कुछ अतिमहत्वपूर्ण विषय हैं जिन पर संसद में सकारात्मक चर्चा और सुधार होनी चाहिए। मँहगाई की आग भयावह हो गई है। खाने के तेल की कीमत दोगुना से भी ज्यादा हो गया है। पेट्रोल और डीजल दोनों के मूल्य खून से भी कीमती लगते है। गैस के सिलेंडर हजारी हो गया है। कुछ डेढ़ होशियार लोग कहते है कि मँहगे पेट्रोल खरीदना देशभक्ति है। ये वहीं लोग हैं, जो खुद विपक्ष में रहते थे तो मँहगाई के विरोध में संसद का सत्र रुकवा देते थे। ये वे ही हैं जो मँहगाई के विरोध में धरना, रैली और चक्काजाम कर देते थे। आज जब वे सत्ता में है तो वे जो करें सब अच्छा ही है। कोई विरोध करें तो मार्शल बुलाकर संसद से ही बाहर कर दिए जाते हैं। वे सभी सामान जिनका उत्पादन फैक्ट्री या कंपनी करती है, उनके कीमत आसमान छू रहे हैं। ऐसा लगता है कि उन उत्पादकों पर सरकार का कोई लगाम ही नहीं है। ऐसा लगता है कि सरकार केवल किसानों और अपने कर्मचारियों पर शिकंजा कसना चाहती है।

    कोरोना काल में भारतीय स्वास्थ्य विभाग, अस्पताल, दवाई की बदहाली भी शासन को बेहतरी लगती है। ये नेताओ का दोष नहीं है। दरसल सत्ता की आँखों का चश्मा ही कुछ ऐसा होता है कि उसमें सब कुछ अच्छा ही अच्छा दिखता है। मंत्री और बड़े नेताओं के आगमन से पहले ही रातोरात सड़क बना दिए जाते हैं। जहाँ कल तक वीरान था, वहाँ पौधे नहीं सीधे पेड़ ही लगा दिए जाते हैं। ऐसे में सड़कांे की कमी या रास्तों के गड्ढे सरकार को कहाँ दिखेंगे।

    जनतंत्र की सफलता के लिए विपक्ष का होना जरुरी है। सत्ता को चाहिए कि विपक्ष के सही सलाह को माने। उनकी बातों को सुने। सरकार की बुराई को सुने और बरदाश्त भी करें। आज स्थिती ऐसी नहीं है। आज तो शासन का विषयगत विरोध करने वाले को भी सीधे राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता है। लोकतंत्र के चौथे आधार समाचार और पत्रकारों के यहाँ छापे डलवाए जा रहे हैं । क्या सरकार को भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के घर का पता मालूम नहीं।

    क्या पता फिर अवसर मिले ना मिले योजनाओं के नाम बदले जा रहे है। जबकि नाम नहीं काम बदलने चाहिए। एक अरब की आबादी वाला भारत ओलंपिक में मात्र सात मेडल पाकर प्रसन्न है। ठीक है, पर सच में क्या हमें बहुत खुश होना चाहिए। मुझे लगता है कि हमें खेल के क्षेत्र में उन छोटे छोटे देशों से सीखने की आवश्यकता है, जो हमसे बहुत छोटे होकर भी पदक तालिका में हमसे बेहतर है।
    किसानों की आमदनी दुगना करने का लालीपाप देने वाले लोगों के लिए पिछले एक साल से आंदोलन कर रहे किसानो का मुद्दा भी कोई मायने नहीं रखता। बेरोजगारी, बिकते सरकारी उघोग, भ्रष्टाचार, जमाखोरी, प्राईवेट हास्पिटलों – स्कूलों की लूट ये कोई मुद्दा नहीं हैं । इस देश में सबसे बड़ा मुद्दा है – जाति, धर्म, मंदिर, चुनाव, खरीद फरोख्त, विज्ञापनबाजी, ड्रामेबाजी, ढकोसला, जनता को बहलाने के नए नए मुद्दे, आदि।

    माँ सरस्वती के भक्त, सती, सावित्री, मदालसा, मैत्रैय, पुष्पा, रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती और जीजाबाई जैसे देवियों की आराधना करने वाले इस देश के संसद में महिलाआंे के साथ अन्याय होता है तो बांकी जगह पर हालात कैसे होंगे, ये चिंतनीय है। महिला सशक्तिकरण की बात करने वालों को व्यवहार में भी नारी का सम्मान करना चाहिए। विपक्ष को भी केवल विरोध के लिए विरोध नहीं करना चाहिए। वहीं सत्ता पक्ष चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो उन्हें विपक्ष का मान रखना चाहिए। साथ ही संसद में उन्हीं विषयों पर चर्चा हो, कानून बने जो देश के हित के लिए सर्वोपरी है। क्योंकि संसद की कार्यवाही का एक एक मिनट भी बेशकीमती होता है। संसद देश का वो चौपाल है, जहाँ प्रेम, सौहाद्र और नेकी हो। जिसमें करोड़ों लोगों को न्याय मिले। किसी भी स्थिती में संसद को अखाड़ा नहीं बनने दिया जाए।

    अनिल कुमार वर्मा, सेमरताल

  • छत्तीसगढ़ दर्शन

    छत्तीसगढ़ दर्शन

    छत्तीसगाढ़ी रचना
    छत्तीसगाढ़ी रचना


    टिकली अस बलरामपुर ,
    जिंहा सुग्घर ताता पानी।
    सूरजपुर म कुदरगढ़ी हे,
    कोरिया ले हसदो पानी।


    नागलोक जशपुर कुनकुरी,
    सीताबेंगरा सजे सरगुजा।
    जामवंत पेंड्रा मरवाही ,
    कोरबा म कोईला दूजा।


    कबरा गूफा रायगढ़ वाला,
    जांजगीर म दमउदहरा।
    बिलासा माई के बिलासपुर,
    मुंगेली मदकु दीप हे गहरा।


    कूशियार अस मीठ कवर्धा,
    गिधवा ह उड़थे बेमेतरा,
    चलौ बलौदा गुरु धाम ए,
    महासमुंद नदी के धारा।


    राजधानी हे रायपुर सुग्घर,
    दुरुग ज्ञान के झंडा ए।
    नाच गान वादन नाटक के,
    राजनांदगाँव ह हण्डा ए।


    धमतरी के मकुट सिहावा,
    बालोद के दिल्लीराजहरा।
    घटारानी वो गरियाबंद के,
    कांकेर दूधनदी हे गहरा।


    कोण्डागाँव म जटायुशीला,
    अबुझमाड़ नारायणपुर म।
    इंदिरावती हमर गंगा ए,
    बहे बस्तर मिले बिजापुर म।


    डंकिनी शांकिनी दंतेश्वरी,
    जब्बर लोहा हे दंतेवाड़ा।
    चाँदी के बिछिया सुकमा।
    जिंहा झीरमघाटी जगरगुड़ा।

    रचना – अनिल कुमार वर्मा
    सेमरताल