Tag: #केतन साहू “खेतिहर”

यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०केतन साहू “खेतिहर” के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • शीत ऋतु (ठण्ड) पर कविता

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    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    शीत ऋतु का आगमन

    घिरा कोहरा घनघोर
    गिरी शबनमी ओस की बूंदे
    बदन में होने लगी
    अविरत ठिठुरन

    ओझल हुई आंखों से
    लालिमा सूर्य की
    दुपहरी तक भी दुर्लभ
    हो रही प्रथम किरण

    इठलाती बलखाती
    बर्फ के फाहे बरसाती
    शीत ऋतु का हुआ
    शनैः शनैः आगमन

    रजाई का होने लगा इंतजाम
    गर्म कपड़ों से लिपटे बदन
    धधकने लगी लकड़ियां
    अलाव तक खींचे जाते जन-जन

    होने लगी रातें लंबी
    कहर बरपाने लगा पवन
    दो घड़ी में होने लगा है
    ढलती शाम से मिलन

    इठलाती बलखाती
    बर्फ के फाहे बरसाती
    शीत ऋतु का हुआ
    शनैः शनैः आगमन

    – आशीष कुमार , मोहनिया बिहार

    सर्दी देखो आयी है

    चुभन शूल सी पवन सुहानी, अपने सँग में लायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    दिवस हुए अब छोटे-छोटे, लम्बी-लम्बी रातें हैं,
    मक्खी मच्छर रहित सकल घर, सर्दी की सौगातें हैं,
    प्यारी-प्यारी धूप सुहानी, हर मन को अति भायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    मूली गाजर सजे खेत में, धनिये की है महक बड़ी,
    फलियों के सँग मन हरषाती, सजती प्यारी मटर खड़ी,
    पालक- मेथी- राई -सरसों, भी सँग में लहरायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    वृक्षों के तन से देखो तो, झर-झर पत्ते झड़ते हैं,
    अरु मानव के अंग-अंग में, ढ़ेरों कपड़े सजते हैं,
    नदिया चुप-चुप ऐसे बहती, जैसे अति शरमायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    अद्भुत पुष्पों से धरती की, शोभा लगती प्यारी है,
    ऊँचे-ऊँचे गिरि शिखरों पर, बर्फ़ छटा अति न्यारी है,
    चहुँ दिशि देखो साँझ-सवेरे, धुन्ध अनोखी छायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आई है।।

    बन्द हो गये पंखे -कूलर, हीटर- गीजर शुरू हुए,
    दाँत बजें सबके ही किट-किट, ठण्डा पानी कौन छुए,
    सर्दी के डर से सबने ही, ली अब ओढ़ रजायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    कम्बल ओढ़े आग सेकते, मजे चाय के लेते हैं,
    गाजर- हलुआ गरम पकौड़े, मन को खुश कर देते हैं,
    गजक -रेवड़ी- मूँगफली भी, सबके मन को भायी है।
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    धनवान ले रहे मजे शीत के, निर्धन है लाचार हुआ,
    थर-थर काँपे गात हर घड़ी, क्यों यह अत्याचार हुआ?
    बेदर्दी मौसम तूने यह, कैसी ली अँगड़ायी है?
    तन में कम्पन अरु सिकुड़न ले, सर्दी देखो आयी है।।

    अंशी कमल
    श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड

    मौसमी धूप

    तन को है कितना भाती
    जाड़े की धूप गुनगुनी सी,
    मन मयूर को थिरकाती
    सर्दी की धूप कुनकुनी सी।

    चीर चदरिया कोहरे की
    धरती को छूती मखमल सी,
    ऐसे खिल जाती वसुंधरा
    जैसे कलिका कोमल सी।

    सूरज धीरे धीरे तपता
    धरा की ठंड चुरा ले जाता,
    यूं चुपके से बिना कहे ही
    सदियों की वो प्रीत निभाता।

    यही धूप कितना झुलसाती
    तन को निर्मम गर्मी में,
    मन को बहुत सताती है
    तपिश धूप की गर्मी में।

    सुबह सवेरे से छा जाती
    पांव पसारे वसुधा पर,
    सांझ ढले तक बहुत तपाती
    धरणी के अंतस्तल पर।

    मनभावन पावस में धरती
    खिलती नवल यौवना सी,
    जैसे लगे क्षितिज में गगन से
    मिलती किसी प्रियतमा सी।।

    स्वरचित शची श्रीवास्तव
    लखनऊ।

    शीत ऋतु

    ग्रीष्म ऋतु के ताप से तप कर आए हम,
    बरसातों की बौछारो से निकल कर आए हम।।

    शीत ऋतु की ठंडी हवाओ से खिल उठा है बदन,
    हरियाली है चारों ओर मौसम करे हमें मौन ।।

    खाने में आती है मिठास परिवार हो जाए संग,
    मिलकर बनाते मंगोड़ी, बड़ी,खजले, पापड़ का मौसम।।

    नया साल का होता आगमन फूलों में रहते हैं रंग,
    तरह तरह के रंग होते, स्वेटर चद्दर के संग।।

    ठंडी हवा के झोंको से, खिल उठता है मन,
    सिगड़ी में शेके आग सब मिल, परिवार रहता है संग।।

    सुबह-सुबह ओश की प्यारी बूंदे बिछ जाती चहू चोर,
    सुबह सुबह की प्यारी धूप शरीर में भरे उमंग।।

    संस्कार अग्रवाल

    जाड़ हा जनावथे

    सादा-सादा देख कुहरा आगे।
    खेत-खार मा धुंधरा छागे।

    रुख,राई कुहरा मा तोपागे हे।
    जईसे लागथे अंधरऊटी छागे हे।

    जुड़जुहा के दिन आगे।
    हाथ, गोड़ हा ठुनठुनागे।

    दांत हा किनकिनावथे।
    शरीर जन्मों घुरघुरावथे।

    अऊ जाड़ में चटके मोर गाल हे।
    बताना जी तुहर कईसे हाल हे।

    जीभ हा घेरी-बेरी होंठ ला चाटथे।
    मोर होंठ हा चटके-चटके लागथे।

    गोड़ हाथ में किश्म-किश्म के भेसलिन चुपरथे डोकरा।
    तभोच ले बाबा के हाथ गोड़ हा दिखथे खरभुसरा।

    पईरा, पेरवसी, छेना झिठी
    आनी-बानी के सकेल के लाथन।

    सुत उठ के बड़े बिहनिया ले,
    हमन जी भुर्री बारथन।

    शिताय पईरा ला काकी हा धुकना में धुकथे।
    मुड़ी ला नवा के कका हा आगी ला फुकथे।।

    नोनी हा लकर-लकर पईरा ला ओईरथे।
    सिताय पईरा हा गुगवा-गुगवा के बरथे।

    जल्दी बारव न रे तुहर से कईसे नई बरथे।
    काहथे बाबु हा जाड़ में हाथ गोड़ मोर ठुठरथे।

    बबा उठ गेहे खटिया ले।
    वो हा बड़े बिहनिया ले।

    आगी के अंगरा।
    मागथे डोकरा।।

    डोकरी हा काहथे में आगी बारे नईहव।
    जाड़ में जोड़ी गोरसी में छेना सुलगाये नईहव।

    मुंदहरा ले बिहनिया होंगे।
    बेरा टगागे, रोनिया होंगे।

    मुड़ी ले कंचपी अऊ शरीर ले न काकरो सेटर निकले हे।
    शहरिया बबा हा ठण्ठा ला देख के मार्निंग वाक में नई निकले हे।

    मोठ्ठा-मोठ्ठा बेलांकीट ओढ़े,तभोच ले जाड़ हा जनावथे।

    रात भर ये हाड़ा ला रहि-रहि के पुस के महिना हा कंपकपावथे।

    डोकरी-डोकरा बुढ्हा जवान माईपिल्ला सर्दियाये हे।

    अऊ नान-नान लईका मन
    के नाक ले रेमट बहाये हे।

    हाथ गोड़ सब ठन्ठा पड़गे।
    नाक,कान, ढढ्ढी सब ठुठरगे।

    हमर जईसे गरीब मनखे के जी ला लेवथे।
    एसो के जाड़ हा अबड़ लाहो लेवथे।

    कवि-बिसेन कुमार यादव’बिसु’

    शीत लहर

    भीतर तो सिहरन है तन में,
    बाहर बारिश बरस रही है।
    वृष्टि-सृष्टि दोनों ही मिलकर,
    महि अम्बर को सता रही है।।


    धरती अम्बर सिमट गए हैं,
    इक-दूजे से लिपट गए हैं ।
    बदली बनी हुई है चादर,
    मानों दोनों ओढ़ लिए हैं।।


    जीव-जंतु सब काँप रहे हैं,
    कठिन समय को भाँप रहे हैं।
    शीत लहर सी हवा चली है,
    अग्नि सुहानी ताप रहे हैं ।।


        केतन साहू “खेतिहर”
    बागबाहरा, महासमुंद(छग.)

    जाड़ पर कविता

    अबड़ लागत हे जाड़ संगी
    हाड़ा कपकपात हे।
    आँखि नाक दुनो कोती ले
    पानी ह बोहात हे।।
    अंगेठा सिरा गे भुर्री बुझागे
    रजाई के भीतरी खुसर के
    नींद ह भगागे।।


    संम्पन्नता के स्वेटर ह
    गोदरी ल् बिजरात हे
    गरीब मर के सड़क म
    इंसानियत शरमात हे
    कोनो के थाली म सीथा नई हे
    कोनो महफ़िल म वो फेकात हे
    कोनो जगह पानी नई हे
    कोनो जगह मदिरा बोहात हे
    तिल तिल के मरत इंसानियत ह
    त कोनो रास रंग मनात हे

    अविनाश तिवारी

    शीत में निर्धन का वस्त्र -अखबार

    काया काँपे शीत से, ओढ़े तन अखबार।
    शीत लहर है चल रही, पड़े ठंड की मार।
    पड़े ठंड की मार, नन्हा सा निर्धन बच्चा।
    शीत कहाँ दे चैन, नींद से लगता कच्चा।
    कहे पर्वणी दीन, दीन पर आफत आया।
    देख बाल है निरीह, ठंड से कांपे काया।।

    मानवता है गर्त में, सिमट गया संसार।
    कौन सुने निर्धन व्यथा, कौन बने आधार।
    कौन बने आधार, राह पर बच्चा सोया।
    सोया खाली पेट, भूख को अपना खोया।
    कहे पर्वणी दीन, बाल की देख विवशता।
    कैसा है संसार, शर्म में है मानवता।।

    खोया बचपन राह में, मिला नहीं सुख चैन।
    देख दृश्य करुणा भरा, बहे अश्रु है नैन।
    बहे अश्रु है नैन, देख कर कागज तन में।।
    ऐसा मिला आघात, नहीं है उष्ण बदन में।।
    कहे पर्वणी दीन, रूठ कर किस्मत सोया।
    हृदय बना पाषाण, सड़क पर बचपन खोया।।

    पद्मा साहू “पर्वणी” शिक्षिका
    जिला राजनांदगांव
    खैरागढ़ छत्तीसगढ़

    शीत ऋतु का अंदाज

    शीत ऋतु की ठंडी हवाएं,
    लगता मानो शरीर को चीर के निकल जाए।
    ठिठुरते-कांपते शरीर में भी दर्द हो जाता,
    जब सर्दी का पारा ऊपर चढ़ जाता।

    कंबल रजाई ओढ़ कर काम कोई कैसे करें?
    हीटर के आगे से हटने का मन ना करें ।
    हाथ सुन्न और पैर भी सुन्न हुआ जाता,
    बाहर जाने के नाम से ही दिल घबरा जाता ।

    पैरों में जुराब,कानों पर स्कार्फ सुहाता,
    कपड़ों की तहो में शरीर गोल मटोल बन जाता।
    गरम-गरम खाने से उठता धुआं अच्छा लगता,
    जरा भी ठंडा खाना बेस्वाद लगता।

    ठंडे पानी में हाथ डालने से भी भय लगता,
    रजाई में बैठ मूंगफली,रेवड़ी खाने का मजा आ जाता।
    दिन कब शुरू, कब खत्म हो जाता?
    घड़ी की घूमती सुईयों की तेजी का पता नहीं चलता।

    एक फायदा इस मौसम का बस यही नजर आता,
    बिना बिजली के भी आराम से सोया जाता।
    लगता है जल्द ही यह ऋतु निकल जाए,
    अब तो कड़कड़ाती सर्दी सहनशक्ति के पार हुई जाए।


    -पारुल जैन

    सर्दियों का है मिजाज

    मौसम की रंगत सर्दियों का है मिजाज।
    घनघोर है कोहरा प्रकति का है लिबास।
    देख तेरा बदलता ,आसमान का नजारा।
    लग गई जोरो से ठिठुरन,मानुष बेचारा।


    उड़ने लगी परिंदे आसमान में,
    मछली तैरने लगी समुद्र तल में।
    नभ की पक्षी ,जल की रानी,
    नहीं लगती ठंड इनको सारी।

    चलने लगी है हवाएं,सागर भी लहराए।
    बागों में खिली फूल,देखकर मन भाए।
    बढ़ती रातों की ठंड तनबदन कसमसाए।
    सुबह की जलती अंगेठिया दिल गुदगुदाए।

    कवि डीजेंद्र कुर्रे (भंवरपुर बसना)

    जाड़ा कर मारे ( सरगुजिहा गीत ) 

         
    जाड़ा कर मारे, कांपत हवे चोला
    बदरी आऊ पानी हर बइरी लागे मोला।
    गरु कोठारे बैला नरियात है,
    दूरा में बईठ के कुकुर भुंकात हवे,
    आगी तपात हवे गली गली टोला,
    जाड़ा कर मारे………


    पानी धीपाए के आज मै नहाएन
    चूल्हा में जोराए के बियारी बनाएन
    आज सकूल नई जाओ कहत हवे भोला
    जाड़ा कर मारे……


    बाबू हर कहत हवे भजिया खाहूं
    नोनी कहत है छेरी नई चराहूं
    संगवारी कहां जात हवे धरीस हवे झोला,
    जाड़ा कर मारे………….


    मधु गुप्ता “महक”