यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०केवरा यदु मीरा के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .
सुन कान्हा मेरी याद तुमको आती तो होगी। ओ पूनम की रात तुम्हें रुलाती तो होगी । सुन कान्हा—–
तान छेड़ बंशी की तुम मुझे बुलाये थे। बाहों में बाँहे डाले तुम रास रचाये थे। वो पायल की रुन झुन तुम्हें बुलाती तो होगी । सुन कान्हा मेरी याद तुमको आती तो होगी ।।
बैठ कदंब के छाँव तुम बंशी बजाते थे। राधे राधे की धुन में तुम मुझे बुलाते थे । राधा राधा नाम तुम्हें याद तड़पाती तो होगी। सुन कान्हा मेरी याद तुमको आती तो होगी ।।
वो तिरछी नजर का जादू तुम ड़ाल गये मोहन। तन से दिल अरु जान निकाल गये मोहन । मेरे दिन की धड़कन तुम्हें सुनाती तो होगी । सुन कान्हा मेरी याद तुम को आती तो होगी ।
तुम कह के गये कान्हा मैं लौट के आऊँगा। आकर मुरली की मधुर तान सुनाऊँगा। वो वादे वो कसमें याद दिलाती तो होगी । सुन कान्हा मेरी याद तुमको आती तो होगी ।।
मैं हुई बावरी श्याम इक बार चले आओ। भले चले जाना बस झलक दिखा जाओ। तुम भूल गये वो प्रीत तुम्हें रिझाती तो होगी । सुन कान्हा मेरी याद तुमको आती तो होगी । ओ पूनम की रात तुम्हें रुलाती तो होगी ।। सुन कान्हा मेरी—-
केवरा यदु “मीरा “ राजिम
ओ मेरे मन मीत
ओ मेरे मन मीत प्रीत तुम याद बहुत ही आते हो । आने को कह गये आ जाओ क्यों रुलाते हो ।
जब से दूर गये हो मुझसे जीवन में उल्लास नहीं । सपने सारे बिखर गये जिन्दगी में सुवास नहीं । अब लगता है ह्रदय के टुकड़े होकर बिखर गये । बीती यादें ही बाकी है सपने तितर बितर गये। आँखों में तुम ही तुम हो निंदिया मेरी उड़ाते हो।।
आने को कह गये-
तुम सरहद पर जा रहे थे आँख मेरी भर आई। मुझसे पहले फर्ज वतन का मैं कुछ न कह पाई। मैं ठगी सी देख रही थी हाय ये कैसी जुदाई । वो गुनगुनाना मुस्कुराना याद बहुत तुम आते हो ।।
आने को कह गये–
जा रहा हूँ प्रिय अब होली में ही आऊँगा । ये लो ये अँगूठी रख लो उसी समय पहनाऊँगा । कभी उदास न होना तुम घोड़ी में चढ़ कर आऊँगा। सैनिक की बनोगी संगिनी ड़ोली में बिठा ले जाऊँगा। राह देखती बैठी हूँ तुम क्यों न अभी तक आते हो ।।
आने को कह गये–
आये प्रिय तुम होली में तिरंगे में लिपट कर आये हो । मुझ पर क्या बीती मैं क्या कहूँ अँगूठी जो पकड़ाये हो। मेंहदी न रचेगी हाथों में न ही ड़ोली सजाऊँगी। सौ जन्मों तक इंतजार करूँगी तुम्ही से माँग भराऊँगी ।। क्यों न लौट कर आये प्रिय नैनों में तुम्ही समाये हो।।
प्रियतम कितने प्यारे हो,मेरी आँखों से पूछो। पढ़ लो इन अँखियों में बस एक नजर देखो। बसे हो श्वांस श्वांस में न बिछुडे जन्मसात में, आरजू है मेरी ,रखें निज हाथ,हाथ में।
है नेह तुमसे कितना , कैसे तुम्हें बताऊँ । धड़कन में तुम बसे, दिल चीर कर दिखाऊँ। मेंहदी से रचो हाथ मे,बिंदी से सजो माथ में। बसे हो श्वांस श्वांस में,न बिछुडे जन्मसात में,
मांगा जो मैंने विधि से,वैसा सजना है पाया। मेरे प्राण मेरे साथी,बस मेरे मन है भाया। जियेंगे साथ साथ में,लेकर हाथ हाथ में। बसे हो श्वांस श्वांस में न बिछुडे जन्मसात में
तुम्ही मेरी खुशियाँ हो,तुम्ही मेरी बन्दगी हो। पलकों में छुपाया है,तुम्ही मेरी जिन्दगी हो। रहना नैनों के पास में,मिले हो सौगात में । बसे हो श्वांस श्वांस में न बिछुडे जन्मसात में
आरजू है दिल की, जब जब जनम मिले । मेरे मीत संग मुझको सौ सौ जनम मिले। रहें खुश साथ साथ में,हँसे मेरी बात बात में। बसे हो श्वांस श्वांस में न बिछुडे जन्मसात में बसे हो — – – –
केवरा यदु “मीरा “ राजिम (छ0ग)
जन्मदिन प्रियतम का
प्रियतम प्राण अधार है,सुरसरगम सब साज। जन्मदिवस पे मैं करूँ,ये रुचि का शुभकाज।
पावन पुन्य पुनीत पल,प्रणय प्रीत प्रतिपाल। जन्मदिवस है आपका,प्रियतम हो खुशहाल।
स्त्री पर कविता ( Stree Par Kavita ): चैत्र नवरात्रि हिन्दु धर्म में नवरात्रि का बहुत महत्व है। चैत्र नवरात्रि चैत्र (मार्च अप्रेल के महीने) में मनाई जाती है, इसे चैत्र नवरात्रि कहा जाता है। नवरात्रि में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-आराधना की जाती है। चूकी दुर्गा माँ भी एक स्त्री है तो नारी शक्ति पर एक कविता
नारी पर कविता
नारी पर सुन्दर कविता
आँखों से आंसू बहते हैं पानी पानी है नारी।
दुनियां की नज़रों में बस इक करूण कहानी है नारी।।
युगों -युगों से जाने कितने कितने अत्याचार सहे।
अबला से सबला तक आयी हार न मानी है नारी।।
ब्रह्मा विष्णु गोद खिलाए नाच नचाया नटवर को।
अनुसुइया है कौसल्या है राधा रानी है नारी।।
एक नही दो नही महज़ इस के किरदार अनेकों हैं।
कभी लक्षमी कभी शारदे कभी भवानी है नारी।
महफ़िल में रौनक है इससे गुलशन में बहार है ये।।
सारी दुनियां महा समंदर और रवानी है नारी।।
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जयपाल प्रखर करुण
रवानी–धारा, गति, प्रवाह
स्त्री की उड़ान – माला पहल
वर्षा की फुहार में छप छप करती मैं। गगन में उड़ान भरती हूँ मैं।
नयनों में भविष्य के सपने संजोती, धरा से पंखों में हवा हूँ भरती।
तारों ने भरी मन्द मुस्कान, और ग्रहों ने दिया सम्मान। बादलों ने कहा तुम हो महान।
सुनहरे है मेरे अनगिनत सपने, दृढता से बुने है मैंने इतने।
गगन को छू लेने की तमन्ना, कोई न कर सके मेरा सामना।
विश्व को दिखाऊँ मैं मेरी महत्ता, हिला सके न कोई मेरी सत्ता।
अजर अमर हो मेरी गाथा, गौरव से ऊँचा हो भारत का माथा।
माला पहल – मुंबई ।
शक्ति की प्रतिमूर्ति स्त्री
तुम अष्टभुजा तुम सरस्वती तुम कालरात्रि तुम भगवती हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति
ज्ञान का भंडार खोलती शंकराचार्य का दंभ तोड़ती जब बनती तुम भारती
युद्ध क्षेत्र में कदम रखती दुष्टों का संहार करती जब वीरांगना लक्ष्मीबाई तुम बनती
राजनीति की राह अपनाती सारी दुनिया भी हिल जाती जब तुम इंदिरा बन जाती
सुदूर नभ में अंतरिक्ष यान उड़ाती एक नया वैज्ञानिक आयाम बनाती जब तुम कल्पना सुनीता बन जाती
सर्वगुण से संपन्न करती सारी इच्छा पूर्ति करती मां के रूप में जब हमसे मिलती
हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति । हे स्त्री! तुम शक्ति की प्रतिमूर्ति ।
-आशीष कुमार
दहेज पर कविता
दे देते हैं वो अपनी औलाद तुझे फिर भी ना आई शर्म आंखो में बेशर्मी की हाय लेकर दिल में पैसे की आस लेकर फिर मांग रहा दहेज।
आसान है क्या?
अपने कलेजे के टुकड़े को
कन्यादान कर देना।
छाती से लिपट कर सोती
मां की गोद में
अब वो रो रही । मां की पल्लू खोज रही । दिया दर्द तूने ।
अपने दकनायनुसी सोच से मारता रहा , गिराता रहा झुकाता रहा और दहेज मांगता रहा।
रो रही है मां हो रहा है दुख उस बाप को जिसने पाई – पाई करके दे दिया अपना धन सारा। नहीं शर्म है,अब तुझमें अब बढ़ गई है लालच तेरी।
तू तौल रहा है
पैसे की तराजू में अरे ! तुझे उन्होंने अपना अपना सब दिया है।। फिर भी मांग रहा दहेज।
नारी हूं या कठपुतली
क्या अस्तित्व है मेरा कोई बताओ ना मुझे? नारी हूं या कठपुतली कोई समझाओ ना मुझे?
कोशिश करते हो हरदममुझे नीचे गिराने के लिए।वस्त्र फाड़ देते हो सरेआममुझे नीचे दिखाने के लिए।कोई बताओ ना मुझे? कोई समझाओ ना मुझे?
तुमने मुझे महज़ चीज जाना शौक अपने पूरा करने के लिए। मार देते हो मेरे सपने को अपने को ही ऊपर बढ़ाने के लिए। कोई बताओ ना मुझे? कोई समझाओ ना मुझे?
अब पहचान बनाने दो मुझे, कुछ करके दिखाने दो मुझे । तेरे जैसे ही, दुनिया अपनी अपनी जहान बनाने दो ना मुझे। अब बताओ ना मुझे?अब समझाओ ना मुझे?
काजल साह
नारी मांसल पिंड नहीं
जब भी कोई चीख़ दफ़न होती है आसमां के सीने में। तड़पकर मरती है जब भी कोई गूँज धरती के किसी कोने में । आ खड़े होते हैं हम संवेदनहीन मूक चौराहों पर नारी अस्मिता का प्रश्न लिये हाथो में और ढूँढने लगते हैं जवाब मोमबत्ती के धुँधले मरते प्रकाश में ।
क्या कभी कोई जवाब मिल पाया? नहीं, कभी नहीं, मिलेगा भी नहीं कैसे मिलेगा ? कैद जो है, हमारे ही अपने अंतस् में न जाने कब से और हम ढूँढते हैं उसे भीड़ की आँख में । आह हमारा ये कृत्य अपनी ही लाश पर अपना नृत्य….
यदि सच में, हाँ सच में फ़िक्र है हमें नारी सम्मान की परवाह यदि तरुणी मुस्कान की तो छाँटना होगा शैवाल हवस का सोच के सरवर से बोने होंगे बीज संस्कार के फिर से मन की जमीन में तोड़ना होगा तिलिस्म व्यभिचार का काटने होंगे पंख भोगी बाज के
नारी मांसल पिंड नहीं सृजन का गीत है सृष्टि पर सृष्टि की जीत है ये बात हर माँ को घुट्टी में पिलानी होगी बहिन को राखी में पिरोनी होगी
कराना होगा ध्यान पिता को निज पगड़ी का दिखानी होगी भाई को कॉलर अपनी कमीज की
तब निश्चय ही फूटेगा अंकुर नारी सम्मान का होगा मस्तक फिर ऊँचा नारी स्वाभिमान का ।
अशोक दीप
मुझे इंसाफ चाहिए
रो रही हूँ मैं खुद की जिंदगी पर। दर्द सह रही हूँ जिंदगी भर। फाड़ गये मेरे वस्त्र उन दरिंदो ने, अपने शौक पूरा करने के लिए। मां ने पाला था
मुझे बड़े प्यार से। पिता ने किया था मेरी सारी इच्छओ को पूरा। डर सा लग रहा हैं अब मुझे गिरकर फिर से उठने में। फिर भी मैं उठूंगी । दरिदों को सजा दूंगी। मैं इंसाफ़ लूंगी। हर बेटी को सीख दूंगी। ना डरना है, तुझे किसी से खड़ा होना है , अपने पैरों पर। मुझे इंसाफ मिलेगा और तुझे भी अपने हक के लिए लड़ना तो होगा।
काजल साह
खोल दिये पावों की अनचाहे बेड़ियां
अब नहीं रुकूंगी, नित आगे बढूंगी मैंने खोल दिए हैं , पावों की अनचाहे बेड़ियां। जो मुझसे टकराए , मैं धूल चटाऊंगी हाथों में डालूंगी , उसके अब हथकड़ियां।। (१) अब धुल नहीं मैं , ना चरणों की दासी। अब तो शूल बनूंगी अन्याय से डरूँगी नहीं जरा सी। क्रांति की ज्वाला हूँ मैं, समझ ना रंगीनी फुलझड़ियाँ ।। मैंने खोल दिए हैं , पावों की अनचाहे बेड़ियां…… …….. अब नहीं रुकूंगी, नित आगे बढूंगी ।। (२) दूर रही इतने दिनों तक, अपने वजूद की सदा तलाश थी । तेरे फैसले ,विचार मुझ पर थोपे कभी ना जाना, मुझे क्या प्यास थी ? अब मौका मिला, बंधन मुक्ति का ख्वाहिश नहीं अब मोती की लड़ियां ।। मैंने खोल दिए हैं , पावों की अनचाहे बेड़ियां….. अब नहीं रुकूंगी, नित आगे बढूंगी ।। (३) घर में सजी रही वस्तु बन, सपनों का गला घोंटा चारदीवारी में । पीड़ित हो सामाजिक सरोकार से , सती हो गई सिर्फ घरेलू जिम्मेदारी में । क्या पहचान नहीं उन्मुक्त गगन में? किस बात में कम हैं हम लड़कियां? मैंने खोल दिए हैं , पावों की अनचाहे बेड़ियां…… ………. अब नहीं रुकूंगी, नित आगे बढूंगी ।।
मनीभाई”नवरत्न
ऐ बाबुल! बिटिया को भेजें क्यों ससुराल
ऐ बाबुल! बिटिया को भेजें क्यों ससुराल ? देख ले बिटिया की ,क्या हो गई है हाल ? ऐ बिटिया !कभी तो जाना होगा पिया के द्वार। दुनिया की रीत को, कर ले स्वीकार।।
विदाई करना ही था तो क्यों? इतना प्यार दिया। बस इतना समझ ले दुनिया से तुझको हार लिया।। ऐ बापू! बनूंगी तेरी ढाल । बिटिया को भेजे क्यों ससुराल ? पल में पराया हुआ यह घर संसार। याद आएंगे सखियां मुझको बार-बार।।
कैसे बीतेंगे महीने कैसे बीतेंगे साल । बिटिया को भेजें क्यों ससुराल? हमारी अमानत थी तू ,हमारी है चाहत । कैसे मिल पाएंगे तुझ बिन, मन को राहत। मेरी बेटी बनकर ही, जन्म लेना हर बार । कभी तो जाना होगा ….
नारी कल्याणी
माया है संसार यहाँ है सत नारी। जन्माती है, पूत निभाती वय सारी। बेटी माता पत्नि बनी वे बहिना भी। रिश्ते प्यारे खूब निभे ये कहना भी।
होती है श्रृद्धा मन से ही जन मानो। नारी सृष्टी सार रही है पहचानो। नारी का सम्मान करे जो मन मेरे। हो जाए कल्याण हमेशा तन तेरे।
नारी है दातार सदा ही बस देती। नारी माँ के रूप विचारें जब लेती। नारी पृथ्वी रूप सदा ही सहती है। गंगा जैसी धार हमेशा बहती है।
माताओ ने पूत दिए हैं जय होते। सीमा की रक्षाहित वे जो सिर खोते। पन्ना धायी त्याग करे जो जननी है। होगा कैसा धीर करे जो छलनी है।
होती हैं वे वीर हमारी बहिने तो। भाई को भेजे अपना देश बचे तो। बेटी का तो रूप सदा ही मन जाने। होती है ईश्वर यही भारत माने।
पन्नाधायी रीत निभाती तब माता। बेटा प्यारा ओढ़ तिरंगा घर आता। पत्नी वीरानी मन सिंदूर लुटाती। पद्मा जैसे जौहर की याद दिलाती।
राखी खो जाती बहिनें ये बिलखाती। नारी का ही रूप तभी तो सह जाती। दादी नानी की कहनी है मनबातें। वीरो की कुर्बान कथाएँ सब राते।
नारी कल्याणी धरती के सम होती। संस्कारों के बीज सदा ही तन बोती। माता मेरा शीश नवाऊँ पद तेरे। बेटी का सम्मान करें ओ मन मेरे।
नारी कल्याणी जननी है अभिलाषी। बेटी का सम्मान करो भारत वासी। कैसे भूलोगे जननी को यह बोलो। नारी भारी त्याग सभी मानस तोलो।
आजादी का बीज उगाया वह रानी। लक्ष्मी बाई खूब लड़ी थी मरदानी। अंग्रेजों को खूब छकाया उसने था। नारी का सम्मान बढ़ाया जिसने था।
सीता राधा की हम क्या बात बताएँ। लक्ष्मी दुर्गा की सब को याद कथाएँ। गौरा गंगा भारत की शान दुलारी। नारी कल्याणी सब की है हितकारी।
बाबू लाल शर्मा “बौहरा
सत्य की खोज में नारी
अगर सत्य की खोज में छोड़ती घर द्वार एक कमसिन बेबस जिज्ञासु नार तो क्या ,बन पाती वो महात्मा बुद्ध न जाने कितने होते उसके भीतर बाहर युद्ध ही युद्ध कटाक्ष,लाँछन,कर्ण भेदी ताने होते। गैर तो गैर,अपने भी उसके बेगाने होते। हाथ में पछतावा, आँखों मे आँसू, ढूंढती निगाहें होती। बचे जीवन मे बस उसके लिए, काँटों भरी राहें होती। सँग रहती,तो सबकी शर्ते होती, अलग थलग दिन रात वो रोती। ज़रा हो जाती और पछता कर बोलती,यही सत्य है, तू अबला थी,है और रहेगी, बस सत्य में यही तथ्य है।
रजनी श्री बेदी
नारी हूँ पर कब तक मै पीर सहूं
नारी हूँ कोई वस्तु नहीं कब तक मै पीर सहूं। कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक……… बेटियों की इज्जत लुटना,रोज रोज की बात, रावण दुशासन बैठेअब दरबार लगाके घात।
फाँसी ही सजा इन्हें हो,कब तक हालात सहूं कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक………. सात वर्ष की बेटी को,हवस के शिकार बनाते भूखे भेड़िये मासूमों को,क्यों इतना तड़पाते।
लहूलुहान हो रही बेटियाँ माँहूँ कैसे पीर सहूं कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक…. बीच सभा में चीर हरण,चुप थे भीष्म,धृतराष्ट्र पंचपति बैठे थे मौन,द्रौपदी करते रही पुकार नहीं द्रोपदी आज की नारी, क्यों कर मैं ये जुल्म सहूं।
कब तक मैं खामोश रहूँ,कब तक….. रघुवर के संग वन वन ड़ोली पत्नी व्रत धर्म निभाती। सुख दुख की बनी संगिनी, पिय संग हँसती गाती।
धोबी के उलाहने मात्र से, वापस क्यूँ वनवास सहूं। कब तक मैं खामोश रहूँ…कब तक….. मीरा थी प्रेम दीवानी,कृष्ण प्रेम में जीती थी राणा के हाथों से,जहर का प्याला पीती थी हूँ कान्हा की प्रेम दीवानी, मैं क्योंकर विषपान करूँ।
कब तक मैं खामोश रहूँ…..कब तक….. मैं रानी,झाँसी वाली,बलिदानों की बात कहूँ बाँधपीठ निजपुत्र,समरक्षेत्र में कूद पड़ूं आज नारियाँ अंबर को नापे, क्यूँ जौहर की बात कहूँ।
कब तक मैं खामोश रहूँ….कब तक… बहन बेटियों की इज्जत को, तार तार नर जो करता है। अपनी माँ के कोख को वह, खुद बदनाम वो करता है।
सरे राह जलवाऊँ उनको, क्यों कर यह दुष्कृत्य सहूं। कब तक मैं खामोश रहूँ, कब तक……..
केवरा यदु “मीरा”
अबला जागो
अबला जागो,जागने की बारी है””तुम्हारी बता दो,की तुम्ही से,ये सृष्टि है सारी।
सिर्फ़ शब्दों में है,नारी महान् काश दिल से भी हो,उसका सम्मान भाषण देने वाले”नारियों” के हक़ में बाहर भले हैँ,अंदर शैतान
कितनी ही औरतेँ हैें,आज भी ग़ुलाम क़फ़स में देह और कफ़न में जान हर रिश्ते में नारी का,देखो ना ये जहाँ ,ना वो जहान
पिता के घर,वो पराया धन है ससुराल में इसकी,गिरवी जान जिस दिन निकले ,दोगले जीवन से नारी उसी दिन मनाये”नारी दिवस”महान
RAJNI SHREE BEDI
नारी शक्ति को बधाई
परन्तु उन नारियों को नहीं जो बेटी और बहु में फर्क समझती हैं जो हर दूसरी नारी को पुरुष की तुलना में कमज़ोर और पुरुषों की सेवक मात्र समझती हैं जो महिलाओं के पहनावें से उनके चरित्र का आंकलन करती हैं उन्हें तो बिल्कुल नहीं जो दहेज के मापदंड पर बहुओं का भविष्य निर्धारित करती हैं उन नारियों को मैं क्या बधाई दूँ जो अब तक पुरुष प्रधान मानसिकता में ही जी रही हैं मेरी बधाई उस महिला शक्ति को है जो जेट विमान लेकर शत्रु के घर मे घुसकर उसको मारती है जो पति के धोखा देने पर टूट के बिखरती नहीं अपितु बढ़ चढ़ कर अपनी काबिलियत प्रस्तुत करती है वो नारी जो आज वैज्ञानिक है अध्यापिका है संगीतकार है नृत्यांगना है नाटककार है इत्यादि जो हर वो कार्य करने में सक्षम है जो पुरुष कर सकता है वो नारी जो प्रत्येक नारी की भावनाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करें वो नारी जो उत्पीड़न का खुल के विरोध कर सके वो नारी जो माँ है वो माँ जो सिर्फ एक नए जीवन को जन्म ही नहीं देती बल्कि अच्छे संस्कारों से अपनी संतान को धर्म और कर्म का उचित मार्ग दिखाती है मेरी बधाई हर उस नारी को है जो ईश्वर के दिये इस जीवन को अपनी मौलिकताओं और अपनी महत्वाकांशाओं के अनुरूप जीने को लालायित है यकीनन आज उस नारी को बधाई देती हूँ इक परिवार और समाज में प्रेम के अंतरंग रूपों को बिखेरती है मां, बहन,पत्नी, बेटी,सास, बहु, दादी ,नानी, बुआ, चाची, ताई, मासी, मामी होने के साथ साथ एक ज़िम्मेदार नागरिक भी है जिसकी ‘चाहत’ पारिवार और समाज तक ही सीमित न हो जो राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत भी हो वह नारी जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में राष्ट्र का गौरव बढ़ाती है ऐसी नारी शक्ति को मेरा नमन व हार्दिक बधाई।
नेहा चाचरा बहल ‘चाहत‘
औरत पर कविता
औरत जानती है विस्तार को देखती है संसार को कभी नन्ही सी बिटिया बनकर कभी किसी की दुल्हन बनकर कभी अपनी ही कोख में एक नयी दुनिया को लेकर!
नन्ही बिटिया से दादी-नानी का सफर, तय करती है इस उम्मीद के साथ बदलेगा समाज का नजरिया शायद कभी गणतंत्र में…….? अभिशप्त काल कोठरी में पड़ी, अनगिनत सवालों में जकड़ी, सारा जीवन अवरोधों और वंचनाओं में कट जाता है तपस्या और महानता कह समाज गौरवान्वित होता है!
औरत आशाभरी नजरों से, समाज के बदलने का इंतजार करती है, थककर आंखें मूंद लेती है, फिर जन्म लेती है बेटी, वही कहानी शुरू होती है, मगर…….. इस बार…….. इंदिरा के स्वाभिमान सी, कल्पना की उड़ान सी, गौरवान्वित कर राष्ट्र को ‘प्रेरणा’ बन जाती है समूचे नारी जाति की बदल देती है तकदीर, आजाद हिंदुस्तान में आजाद कर नारी को, बना जाती है नयी तस्वीर! अब औरत जीती है विस्तार को देखती है संसार को, जिज्ञासा से नहीं,विश्वास भरी आंखों से…..
डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
नारी
बदलती चमन की फिजाँ नारियां। हँसीं हैं बनाती ज़हां नारियां।1
नहीं काम कोई शुरू हो सके। न करती कभी वो जो हां नारियां।2
मिलेकाम जो भी वो अद्भुत करें । सदा छोड़ती हैं निशां नारियां।3
नहीं बात कोई कभी मन रखें। नयन से है करतीं बयां नारियां।4
सफलताऐं चूमें कदम जब धरें। बहुत खूबी रखती यहाँ नारियाँ।5
सहे गम हजारों पता ना चले नहीं खोलती हैं जुबां नारियां।6 प्रवीण त्रिपाठी
नारी तुम प्रारब्ध हो
नारी तेरी आँसु टपके, और सागर बन जाए। युगों-युगों से सारी सृष्टि, तुझसे जीवन पाए।।
संस्कार की धानी बन तुम, करती हो ज्ञान प्रदान। ममता की थपकी लोरी से, माँ देती हो वरदान।।
जब भी कोई संकट आया, छोंड़ के मोह का बन्धन। अपनें कलेजे के टुकड़े को इस देश में किया अर्पण।।
इतनें सारे कष्टों कैसे, तुम अकेले सह जाती हो। पीकर अपनें सारे आँसु, बाहर से मुस्काती हो।।
नारी तुम प्रारब्ध हो, हो अंतिम विश्वास। तुम्हे छोड़ ना बन पायेगा कोई भी इतिहास।।
उमेश श्रीवास”सरल”
मैं स्त्री हूँ
मैं एक शायर की लिखी शायरी हूँ एक कवि की लिखी कविता हूँ कामिनी हूँ मैं, दामिनी भी हूँ दुर्गा ,सीता,सावित्री पार्वती ,लक्ष्मी,सरस्वती हूँ मैं
मैं ब्रह्मांड का सृजन करने वाली हूँ मैं करुणा भी हूँ, रण चण्डी भी हूँ मैं कहानी हूँ, गजल भी हूँ मेरी उज्ज्वलता ये चांदनी है घने केश ये श्यामवर्णी जलद है
उषाकाल मेरे अधरों की लालिमा है ये नदी आकाश-पट का लहराता अंचल है माला के मोती ये सितारे है मस्तक टीका ये पर्वत है सूर्य बिंदी ,चन्द्र आइना है
निर्झर भुजाएं,सागर पद है मैं वनों -सी खुशहाली हूँ इस धरती की माली हूँ मैं माँ,भगिनी,आत्मजा हूँ तो जीवनसंगिनी भी हूँ घर की इज्जत हूँ,महकती फुलवारी हूँ मान,सम्मान,स्वाभिमानी हूँ दया का सागर………मैं स्त्री हूँ
धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई
नारी सम्मान पर कविता
करते हो तुम बातें, नारी के सम्मान की, गाते हो तुम गाथायें, नारी के बलिदान की। क्या तुमने कभी अपने, घर की नारी को देखा है, घर की चौखट ही जिसके, जीवन की लक्ष्मण रेखा है।
सपने जिसके सारे, पलकों में ही खो जाते, इच्छाएँ जिसके पूरे, कभी भी न हो पाते। आज भी वो अबला है, कोख में मारी जाती है, अपने सपनों को करने साकार, जन्म तक न ले पाती है। बोलो समाज के प्रतिनिधि, दम्भ किस बात का भरते हो, जब अपनी जननी-भगिनी की, रक्षा ही ना करते हो।।
मधुमिता घोष
मैं ना केवल एक स्त्री हूँ
मैं ना केवल एक स्त्री हूँ
ऐसे न देखो मुझे , कि मैं केवल एक स्त्री हूँ , मुझमें माँ , बहन , बेटी , और गृह – लक्ष्मी का रूप , भी निहार लो।माथे पर मर्यादा का आँचल , आँखों में ममता का सागर , हाथों में सेवा का गागर , हो सके तो इनसे अपना , जीवन सँवार लो ।
आस्था रखती हूँ मानवता में , अटूट संबंध है दयालुता से , तप ही मेरा सर्वोत्तम गहना , इस गहने से तुम भी अपना , सहज श्रृंगार लो ।
हृदय भी है धड़कने वाला , अच्छा – बुरा समझने वाला , अनादर की अधिकारिणी , न थी कभी , न हूँ अभी , अपनी भूल सुधार लो ।
पिता , पुत्र , और भाई सम , जब तुम्हें देख सकती हूँ मैं , तब तुम क्यों भ्रमित होते हो ? करोगे सदा सम्मान मेरा , अडिगता का प्रण , स्वीकार लो ।
– गीता द्विवेदी
कभी दुर्गा कभी काली
कभी तो दुर्गा है, कभी वो काली है, नारी अँधेरी रात में, चाँद सी उजाली है। नारी कभी बेटी है, कभी बहन का फर्ज़ निभाई है, नारी कभी बहु है, कभी माँ हो होकर माँ का मातृत्व लायी है।
नारी अपने संघर्षों से कभी नहीं घबराई है, नारी अपने पति हेतु अमर प्रेम बन आयी है। नारी का सम्मान करोगे तो मान जहाँ में पाओगे, नारी का अपमान किया तो, मिट्टी बन भूतल में धंस जाओगे।
नारी तुम ऐसा काम करो, जग में कुछ अपना नाम करो, न कर सको गर कोई बात नहीं, पर अपना तो आत्म सम्मान करो। शास्त्रों में भी है लिखा, “यत्र नारस्य पूज्यन्ते रम्यन्ते तत्र देवता”, नारी तुम ये याद रखो चंडी बनकर संहार करो, जो बुरी नज़र से हो देखता।
समय आ गया अब नारी, ना अत्यचार आगे बढ़ाओ, ना बनोगी अबला-बेचारी, प्रत्यन्चा ये वेदी पर चढ़ाओ।
-प्रिया शर्मा
नारियां
बदलती चमन की फिजाँ नारियां। हँसीं हैं बनाती ज़हां नारियां।1
नहीं काम कोई शुरू हो सके। न करती कभी वो जो हां नारियां।2
मिलेकाम जो भी वो अद्भुत करें । सदा छोड़ती हैं निशां नारियां।3
नहीं बात कोई कभी मन रखें। नयन से है करतीं बयां नारियां।4
सफलताऐं चूमें कदम जब धरें। बहुत खूबी रखती यहाँ नारियाँ।5
सहे गम हजारों पता ना चले नहीं खोलती हैं जुबां नारियां।6
प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली
नारी पर कविता – रमेश कुमार सोनी
सिर पर भारी टोकरा टोकरे में है – भाजी , तरकारी झुण्ड में चली आती हैं सब्जीवालियाँ
भोर , इन्हीं के साथ जागता है मोहल्ले में ; हर ड्योढ़ी पर मोल – भाव हो रहा है उनके दुःख और पसीने का ।
लौकी दस और भाजी बीस रुपए में वर्षों से खरीद रहे हैं लोग , सत्ता बदली , युग बदला, लोग भी बदल गए लेकिन उनका है
वही पहनावा और वही हँसी – बोली ; घर के सभी सदस्यों को चिन्हती हैं वे हाल – चाल पूछते हुए दस रुपए में मुस्कान देकर लौट जाती हैं ।
शादी – ब्याह के न्यौते में आती हैं आलू , प्याज , साबुन , चाँवल और पैसों के भेंट की टोकरी लिए ,
कहीं छोटे बच्चे को देखी तो ममता उमड़ आती है सब्जी की टोकरी छोड़ दुलारने बैठ जाती हैं ;
मेरे मोहल्ले का स्वाद इन्ही की भाजी में जिंदा है आज भी औरतों का आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है रसोई तक उनकी गंध पसर जाती है
ये बारिश में नहीं आती हैं उग रही होती हैं अपनी खेतों और बाड़ियों में सबके लिए थोड़ी – थोड़ी सी
अँखुआ रहे हैं – आकाश , हवा , पानी इनकी भूमि सी कोख में सबके लिए थोड़ी – थोड़ी सी …. ।
रमेश कुमार सोनी कबीर नगर – रायपुर,छत्तीसगढ़
क्यूंकि नारी हूँ मैं
नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं कभी सिसकती , कभी तड़पती हूँ मैं बंधनों में रहकर भी संवरती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी घर के आँगन का चाँद हो जाती हूँ मैं कभी मर्यादाओं में रहकर भी संवरती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी किसी कविता का विषय हो निखरती हूँ मैं और कभी जिन्दगी की ग़ज़ल बन संवरती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
क्यूं करूं खुद को व्यथित मैं कभी माँ , कभी बहन बनकर निखरती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी चाँद बनकर घर को रोशन करती हूँ मैं कभी बाहों का आलिंगन हो संवरती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
क्यूं कर घूरती हैं निगाहें मुझको सजती हूँ, संवरती हूँ , खुद से मुहब्बत करती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
मातृत्व की छाँव तले खुद को पूर्ण करती हूँ मैं कभी वात्सल्य की पुण्यमूर्ति हो जाती हूँ कभी मातृत्व के स्पर्श से खुद को अभिभूत करती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी देवी कह पूजी जाती हूँ मैं कभी क़दमों तले रौंदी जाती हूँ मैं कभी नारी के एहसास से गर्वित हो जाती हूँ मैं कभी पुरुषों के दंभ का शिकार हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
जन्म लेती हूँ , घर में लक्ष्मी होकर बाद में बोझ हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
ताउम्र सहेजती हूँ रिश्तों को मैं पल भर में परायी हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी जीती हूँ पायल की छन – छन के साथ कभी “निर्भया” बन बिखर जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी मेरी एक मुस्कान पर दुनिया फ़िदा हो जाती है कभी यही मुस्कान जिन्दगी की कसक बन जाती है कभी संवरती हूँ, सजती हूँ, कभी बिखरती हूँ नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी लक्ष्मी बाई , दुर्गावती हो पूजी जाती हूँ मैं कभी आसमां की सैर कर कल्पना, सुनीता हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी दहेज़ की आंच में तपती हूँ कभी सती प्रथा का शिकार हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी इंदिरा बन संवरती हूँ कभी प्रतिभा की तरह रोशन हो जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
कभी अपनों के बीच खुद को अजनबी सा पाती हूँ मैं कभी सुनसान राह पर लुटती हूँ, कभी घर के भीतर ही नोची जाती हूँ मैं नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
मेरा तन मेरे अस्तित्व पर पड़ता है भारी मेरा होना मेरे जीवन के लिए हो रहा चिंगारी क्या कर उस परम तत्व ने रचा मुझको क्यों कर “निर्भया” कर दिया लोगों ने मुझको.
क्यूं कर नहीं स्वीकारते मेरे अस्तित्व को क्यूं नहीं नसीब होती खुले आसमां की छाँव मुझको क्यूँ कर मुझसे मुहब्बत नहीं है उनको क्यूंकि नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं , नारी हूँ मैं
नारी पर कविता
है निरा निरादर नारी का, जहां माता का सम्मान नहीं। रुष्ट रूह रमती हरदम, बसते वहां भगवान नहीं।।
नौ महीने तक दुख सुख पा के, कोख में जिसको ढोया था। सुला के सूखा, गीले सोई, मल मूत्र हाथों धोया था।। क्यों भूल गया सुत कर्म भला, जो मां का था एहसान नहीं…
बड़ा फर्ज निभाया है मां ने, कुछ फर्ज तुम्हारा भी होगा। जो कर्ज दूध का चढ़ा पड़ा, वही कर्ज उतारा भी होगा।। जब गई गरज और मिटा मर्ज, तो बन जाते अनजान वही…
मां यज्ञ हवन की समिधा सी, शनै: शनै: सब वार गई। जीत की देहरी चढ़कर वो, अपनों से ही हार गई।। वृद्धाश्रम या घर का कोना, रह गई है पहचान यही…
काश याद बचपन लौट आए, वही मां का दर्श दिखाई दे। सीने में दर्द दफन बेशक, चेहरे का हर्ष दिखाई दे।। बस मन से इज्जत मांगे मां, चाहती कोई गुणगान नहीं…
आज पर्यावरण असंतुलन हो चुका है . पर्यावरण को सुधारने हेतु पूरा विश्व रास्ता निकाल रहा हैं। लोगों में पर्यावरण जागरूकता को जगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा संचालित विश्व पर्यावरण दिवस दुनिया का सबसे बड़ा वार्षिक आयोजन है। इसका मुख्य उद्देश्य हमारी प्रकृति की रक्षा के लिए जागरूकता बढ़ाना और दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों को देखना है।
मुख्य बिन्दु :-
केवरा यदु मीरा के दोहे
1.. वायु प्रदूषण कर रहा, पर्यावरण बिगाड़। मानव है तो रोप ले, बड़ पीपल के झाड़।। 2.. गंग पतित है पावनी, मानव कैसा खेल। पर्यावरण बिगाड़ता, भरता कचरा मैल।। 3.. पानी तो अनमोल है, व्यर्थ न बहने पाय। पर्यावरण बचाय लो, पंछी प्यास बुझाय।। 4.. देखो तो ओजोन में, बढ़ता जाता छेद। पर्यावरण दूषित हो, खोल रहा है भेद।। 5.. पीपल बरगद पेड़ को,कर पितुवत सम्मान। पर्यावरण सुधार लो , होंगे रोग निदान।। 6.. नीम पेड़ है आँवला, औषधि का भंडार। पर्यावरणी शुद्धता, मिलती शुद्ध बयार।। 7.. नहीं आज पर्यावरण, सब दूषित हो जाय। पेड़ लगायें नीम का, रोग पास ना आय।। 8.. गोबर के ही खाद से,अन्न फसल उग जाय। पर्यावरणी शुद्धता, जीवन सुखी बनाय।। 9.. पलक झपकते ये जगत ,कर देगा बरबाद। दूषित हो पर्यावरण, रखना इक दिन याद।। 10.. पावन पुन्य सुकर्म से,करलो पर उपकार। छेड़ो ना पर्यावरण , सुखी रहे परिवार।। 11.. परम पुनीत प्रसाद है, पर्यावरण प्रदान। पावन इस वरदान को, व्यर्थ न कर इंसान।। 12.. पर्यावरण सुधारना, चाहे सब दिन रात। आपा धापी दौड़ में, कभी बने ना बात।। 13.. पर्यावरण बचाइये, ये है बहु अनमोल। रखियो इसे सँभाल के, मानव आँखे खोल।। 14.. पवन अनल जल औ मही,सुन्दर है वरदान। पर्यावरण सँवार के, कर इनकी पहचान।। 15.. परम मनोहर जन्म को ,सुख में चाह बिताय। पर्यावरणी रोक ले, नित नव पेड़ लगाय।। रचना:- श्रीमती केवरा यदु मीरा राजिम,जिला-गरियाबंद(छ.ग.)
नीलम सिंह के दोहे
पर्यावरण बचाइए ,लीजै मन संकल्प। तभी स्वास्थ्य, समृद्धि है ,दूजा नहीं विकल्प।। प्रकृति देती है सदा ,जन जीवन व्यापार। क्षणिक लोभवश ये मनुज,करता अत्याचार।। धुआँ-धुआँ सब हो रहे ,यहाँ नगर अरु गाँव। बात पुरानी सी लगे ,शीतल बरगद छाँव।। नित नित बढ़ती जा रही मानव मन की भूख। हर पल ये ही चाह है ,कैसे बढ़े रसूख।। झूठी है संवेदना ,झूठा है विश्वास। नारे लगने से कभी ,होता नहीं विकास।। त्राहि-त्राहि है कर रही,माँ गंगा की धार। बाँध बनाना बंद कर, करती करुण पुकार।। नीलम सिंह
आज पर्यावरण एक जरूरी सवाल ही नहीं बल्कि ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है लेकिन आज लोगों में इसे लेकर जागरूकत है। ग्रामीण समाज को छोड़ दें तो भी महानगरीय जीवन में इसके प्रति खास उत्सुकता नहीं पाई जाती। परिणामस्वरूप पर्यावरण सुरक्षा महज एक सरकारी एजेण्डा ही बन कर रह गया है। जबकि यह पूरे समाज से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाला सवाल है। जब तक इसके प्रति लोगों में एक स्वाभाविक लगाव पैदा नहीं होता, पर्यावरण संरक्षण एक दूर का सपना ही बना रहेगा।
पर्यावरण पर दोहे
प्रकृति सृजित सब संपदा, जनजीवन आधार। साधे सुविधा सकल जन ,पर्यावरण सुधार।।1।।
जीवन यापन के लिये,शुद्ध हवा जलपान। पर्यावरण रक्षित है ,जीव जगत सम्मान।।2।।
धरती, गगन, सुहावने, पावक और समीर। पर्यावरण शुद्ध रहे , रहो सदा गंभीर।।3।।
विविध विटप शोभा बढी, सघन वनों के बीच। पर्यावरण है सुरक्षित, हरियाली के बीच।।4।।
रहे सुरक्षित जीव पशु, वन शोभा बढ जाय। शुद्ध पर्यावरण रहे, सकल व्याधि मिट जाय।।5।।
बारिद बरसे समय पर, ऊखिले खेत खलिहान। पर्यावरण सुहावना, मिले कृषक को मान।।6।।
पर्यावरण रक्षा हुई, प्रण को साधे शूर। धरती सजी सुहावनी,मुख पर चमके नूर।।7।।
सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथिश्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में इस तिथि को श्री राधाजी का प्राकट्य दिवस माना गया है। श्री राधाजी वृषभानु की यज्ञ भूमि से प्रकट हुई थीं।
राधा पुकारे तोहे
राधा पुकारे तोहे श्याम हाथ जोड़ कर। आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर।। आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर ।
रूठ गई निंदिया श्याम , चैनों करार भी। प्रीत जगाके काहे मुझको बिसार दी। भूल नहीं जाना कान्हा दिल से नाता जोड़ कर।।
आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर ।। आ जाओ—
बाँसुरी बजा के कान्हा फिर से बुलाने आजा। पूनम की रात मोहन रास रचाने आजा। यमुना तट पे बैठी हूँ मैं जाऊँ ना छोड़ कर।।
आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर । आ जाओ–
मधुबन उदास कान्हा यमुना उदास है। रोते हैं ग्वाले तेरे दर्शन की प्यास है । मुड़कर कर न देखा श्याम हमसे नाता जोड़ कर।।
आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर ।। आ जाओ–
नैनों से नीर बरसे कान्हा तेरी याद में । मर न जाऊँ रो रोकर पछताओगे बाद में । कैसे तुम जीते हो मोहन हमसे मुँह मोड़ कर।।
आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर । राधा पुकारे तोहे श्याम हाथ जोड़ कर। आ जाओ मोहन प्यारे मथुरा को छोड़ कर ।। आ जाओ—