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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०नरेन्द्र कुमार कुलमित्रके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • नाम पर कविता

    नाम पर कविता

    अक़्सर मुझे
    मेरे कानों में
    सुनाई दे जाती है
    मेरे नाम से पुकारती हुई
    मेरी दिवंगत माँ की आवाज़
    और घर के दूसरे कमरे में सो रहे
    बाबूजी की पुकार

    माँ की पुकार सुन
    महज़ अपना वहम समझकर
    मौन संतुष्ट हो जाता हूँ

    पर जब जब बाबूजी के
    पुकारने की आवाज़ आती है
    मेरे कानों में,
    हड़बड़ाकर चला जाता हूँ
    उनके कमरे में
    और पूछता हूँ-
    क्या हुआ बाबूजी..?
    बाबूजी सिर हिलाते हुए
    कहते हैं-कुछ नहीं

    पत्नी से पूछता हूँ-
    कि आख़िर मुझे
    मेरे नाम की पुकार
    क्यों सुनाई देती है बार-बार
    पत्नी कहती है-कुछ नहीं
    आपके कान बजते हैं !

    – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • मित्रों तोड़ो मौन पर कविता

    मित्रों तोड़ो मौन पर कविता

    जब-जब निर्वात-मौन
    सम्प्रेषणहीन होकर
    पड़ा होता है लाचार
    तब-तब
    वाणी का स्वर
    माध्यम बनकर
    जोड़ता है
    दिलों के दो पुलों को

    जब-जब बर्फ़ीला-मौन
    जम जाता है
    माइनस डिग्री पर
    तब-तब
    बर्फ़-सी जमी मौन के कणों को
    अपनी ऊष्मा से
    पिघलाती है
    ध्वनि-मिश्रित साँसों की गर्मी

    जब-जब अपाहिज-मौन
    रुक जाता है-ठहर जाता है
    चलने में होता है असमर्थ
    तब-तब
    शब्दों की बैशाखी
    थामकर मौन की ऊँगली
    पग-पग आगे
    बढ़ाता है ज़बान तक

    मित्रों ! तोड़ो मौन
    हमेशा ज़रूरी होता है
    चट्टानी-मौन को तोड़ने के लिए
    हथौड़े-संवादों का प्रहार।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585247

  • थूकना और चाटना पर कविता

    थूकना और चाटना पर कविता

    उसके मुँह के सारे थूंक
    अब सूख चुके हैं

    ढूंढ-ढूंढकर वह
    पहले थूंके हुए जगहों पर जाकर
    उन थूंको को चाटकर
    फिर से गीला कर रहा है अपना मुँह

    उन्हें अपने किए ग़लती
    का एहसास हो चुका है अब

    बेहद पछतावा है उसे
    कि आखिर बात-बात पर
    क्यूं थूंका करता था ?

    आख़िर उसे ही अब
    अपना ही थूंका हुआ
    चाटना पड़ रहा है

    बड़ी मुसीबत है उसके सामने
    कि कब-कब और कहाँ-कहाँ अपना थूंका हुआ चाटे
    कि कब-कब और कहाँ-कहाँ खुद पर दूसरों को थूंकने से रोके।

    लोग थूकते ही जा रहे हैं
    आज वह थूंको से घिरा हुआ है
    थूंको से भरा हुआ है
    थूंको में डूबा हुआ है

    अब सूख चुके हैं
    उसके मुँह के सारे थूंक
    जो वक्त-बेवक़्त थूंका करता था दूसरों पर।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • कितना कुछ बदल गया इन दिनों…

    कितना कुछ बदल गया इन दिनों…

    देशभक्ति कभी इतनी आसान न थी
    सीमा पर लड़ने की जरूरत नहीं
    घर की चार दीवारी सीमा में
    बाहर जाने से ख़ुद को रोके रहना देशभक्ति हो गई

    ऑफिस जाने की जरूरत नहीं
    बिना काम घर में बैठे रहना ही
    आपकी कर्तव्यनिष्ठा,त्याग और समर्पण का प्रमाण हो गया

    मलूकदास जी
    बड़े ही मर्मज्ञ और दूरदर्शी संत थे
    इसी समय के लिए उसने पहले ही कहा था-
    ”सबके दाता राम”
    हे संत कवि हम तो अज़गर भी नहीं हैं
    और पंछी भी नहीं
    आख़िर कब तक दाताराम के भरोसे जिंदा रहेंगे?

    माता-पिता,पत्नी और बच्चों की वर्षों पुरानी
    परिवार को समय न देने की शिकायत दूर हो गई
    न जाने कितने दिनों बाद
    परिवार के साथ गपियाया
    बच्चों के साथ खेला
    पत्नी को छेड़ा
    समझ नहीं आ रहा कि ये अच्छे दिन है या बुरे दिन

    अब तक देख लिया नई और पुरानी उन सारी फ़िल्मों को
    जो समयाभाव के कारण अनदेखी रह गई थी

    अक़्सर मेरे पिताजी कहते थे
    भीड़ के साथ नहीं चलना
    भीड़ से बचना
    भीड़ से रहना दूर
    भीड़ में पहचान खो जाती है
    अस्तित्व मिटा देती है भीड़
    पिताजी आप सहीं थे,हैं और रहेंगे भी
    भीड़ अपना हिस्सा बना लेती है
    पर कभी साथ नहीं देती

    अजीज़ दोस्त सारे
    दोस्ती के ग़ैर पारंपरिक तरीकों से तौबा कर
    अस्थायी तौर पर थाम लिए हैं पारंपरिक तरीकों का दामन

    समाजिक उत्थान,आर्थिक विकास,राजनीतिक गहमागहमी की बातें गौण हो गई
    और सूक्ष्म,अदृश्य की बातें सरेआम हो रही

    वाह्य धर्म और कर्म पर अल्पविराम लग गया
    सारे अनुष्ठान, सारी प्रार्थनाएं  और नमाज़ अंतर्मुख हो गईं

    ”मोको कहाँ ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में”
    कबीर को बांटने वाले कबीर के दर्शन पर जीने लगे

    सुना था जो हँसता है उसे एक दिन रोना है
    नियति के इस बटवारे में
    एक दिन
    मुझे रोना है
    तुम्हें भी रोना है
    सब को रोना है
    हाँ सब कोरोना है।

     — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
         9755852479

  • आलसी पर कविता

    आलसी पर कविता


    मेरे अकेले में भी कोई आसपास होता है।
    तुम नहीं हो पर तुम्हारा आभास  होता है।1।

    बिखर ही जाता है चाहे कितना भी संवारो
    बस खेलते  रहो जीवन एक ताश होता है।2।

    जरूरतमंद तो आ ही जाते हैं बिना बुलाए
    आपकी जरूरत में आए वही ख़ास होता है।3।

    दिनभर भीड़ में शामिल होने के बाद रोज
    मन मेरा हर शाम  जाने क्यूँ उदास होता है।4।

    जागो उट्ठो और नए जीवन का आगाज़ करो
    वरना सोया हुआ शख़्स महज़ लाश होता है।5।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479