कितना कुछ बदल गया इन दिनों…
देशभक्ति कभी इतनी आसान न थी
सीमा पर लड़ने की जरूरत नहीं
घर की चार दीवारी सीमा में
बाहर जाने से ख़ुद को रोके रहना देशभक्ति हो गई
ऑफिस जाने की जरूरत नहीं
बिना काम घर में बैठे रहना ही
आपकी कर्तव्यनिष्ठा,त्याग और समर्पण का प्रमाण हो गया
मलूकदास जी
बड़े ही मर्मज्ञ और दूरदर्शी संत थे
इसी समय के लिए उसने पहले ही कहा था-
”सबके दाता राम”
हे संत कवि हम तो अज़गर भी नहीं हैं
और पंछी भी नहीं
आख़िर कब तक दाताराम के भरोसे जिंदा रहेंगे?
माता-पिता,पत्नी और बच्चों की वर्षों पुरानी
परिवार को समय न देने की शिकायत दूर हो गई
न जाने कितने दिनों बाद
परिवार के साथ गपियाया
बच्चों के साथ खेला
पत्नी को छेड़ा
समझ नहीं आ रहा कि ये अच्छे दिन है या बुरे दिन
अब तक देख लिया नई और पुरानी उन सारी फ़िल्मों को
जो समयाभाव के कारण अनदेखी रह गई थी
अक़्सर मेरे पिताजी कहते थे
भीड़ के साथ नहीं चलना
भीड़ से बचना
भीड़ से रहना दूर
भीड़ में पहचान खो जाती है
अस्तित्व मिटा देती है भीड़
पिताजी आप सहीं थे,हैं और रहेंगे भी
भीड़ अपना हिस्सा बना लेती है
पर कभी साथ नहीं देती
अजीज़ दोस्त सारे
दोस्ती के ग़ैर पारंपरिक तरीकों से तौबा कर
अस्थायी तौर पर थाम लिए हैं पारंपरिक तरीकों का दामन
समाजिक उत्थान,आर्थिक विकास,राजनीतिक गहमागहमी की बातें गौण हो गई
और सूक्ष्म,अदृश्य की बातें सरेआम हो रही
वाह्य धर्म और कर्म पर अल्पविराम लग गया
सारे अनुष्ठान, सारी प्रार्थनाएं और नमाज़ अंतर्मुख हो गईं
”मोको कहाँ ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में”
कबीर को बांटने वाले कबीर के दर्शन पर जीने लगे
सुना था जो हँसता है उसे एक दिन रोना है
नियति के इस बटवारे में
एक दिन
मुझे रोना है
तुम्हें भी रोना है
सब को रोना है
हाँ सब कोरोना है।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479