मानसिकता पर कविता
आज सब कुछ बदल चुका है
मसलन खान-पान,वेषभूषा,रहन-सहन और
कुछ-कुछ भाषा और बोली भी
आज समाज की पुरानी विसंगतियां, पुराने अंधविश्वास
और पुरानी रूढ़ियाँ
लगभग गुज़रे ज़माने की बात हो गई है
आज बदले हुए इस युग में-समाज में
अब वे बिलकुल भी टिक नहीं पाती
अब काम पर जाते हुए
बिल्ली का रास्ता काट जाना
बिलकुल अशुभ नहीं माना जाता
हो गई है निहायत ही सामान्य घटना
हम ख़ुद को एक सांविधानिक राष्ट्र
और सभ्य समाज का अंग मानने लगे हैं
इतना ही नहीं गाहे-बगाहे अधिकारों की बात करने लगे हैं
आज जितना हम बदले हैं
जितना हमारा समाज बदला है
जितने हमारे तौर-तरीके बदले हैं
पर उतनी नहीं बदली है
हमारी पुरानी स्याह मानसिकता
हम बस पुरानी विसंगतियों, पुराने अंधविश्वासों
और पुरानी रूढ़ियों पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ाकर
अपनी सुविधानुसार गढ़ लिए हैं नए-नए रूप
आज भी कुछ आँखों में
बड़े ज़ोर से चुभती है
लिंग और जातिगत समानता की बातें
आज भी सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक नज़र आते हैं
धर्म की दुहाई देने वाले तथाकथित धार्मिक लोग
आज भी मानवीय तर्कों और उसूलों पर जीने वाले लोग
अधार्मिक और नास्तिक करार दिए जाते हैं
आख़िर क्यूँ “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ”
स्त्री उत्थान और स्त्री विमर्श की सच्चाई
नारों और किताबों से निकलकर
कभी व्यावहारिक धरातल पर क़दम नहीं रख पाती ?
आख़िर क्यूँ सभ्य और सुशिक्षित समाज में ‘दहेज’
ठेंगा दिखाते हुए स्टेटस सिंबल बनकर
आज भी अस्तित्ववान बना हुआ है ?
कन्या के भ्रूण को निकाला जा सकता है
यह आसान तरीका और विकृत ज्ञान
तथाकथित सभ्य और सुशिक्षित समाज के सिवाय
भला किस अनपढ़ के पास है ?
दरअसल सच्चाई तो यही है
कि आधुनिकता के इस ज़माने में
हमारी विसंगतियां, हमारे अंधविश्वास
और हमारी रूढ़ियाँ भी आधुनिक हो गई हैं
आज भले ही आधुनिक हैं हम
बावजूद इसके तनिक भी नहीं बदली है
बल्कि उतनी ही पुरानी है
हमारी-तुम्हारी स्याह मानसिकता ।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
975585247