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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०नरेन्द्र कुमार कुलमित्रके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • बेपरवाह लोग पर कविता

    बेपरवाह लोग पर कविता

    ये उन लोगों की बातें हैं
    जो लॉकडाउन,कर्फ़्यू, धारा-144
    जैसे बंदिशों से बिलकुल बेपरवाह हैं

    जो हजारों की तादात में
    कभी आनन्द विहार बस स्टेंड दिल्लीमें
    यकायक जुट जाते हैं
    तो कभी बांद्रा रेल्वे स्टेशन मुम्बई में
    अचानक इकट्ठे हो जाते हैं

    ये कोई एकजुट संगठित ताकत नहीं है
    किसी सोची-समझी साज़िश का हिस्सा भी नहीं है
    इनके कोई एजेंडे या
    कोई ख़ास मक़सद और मांग भी नहीं है

    ये इतने मासूम लोग हैं
    जिनके जीवन संचालन में
    ‘रणनीति’ और ‘योजना’ जैसे शब्द भी नहीं है

    ये वो लोग हैं
    जिनके जीवन में
    ‘संकल्प’ और ‘संयम’
    बेईमानी भरे शब्द लगते हैं

    ये वो लोग हैं
    जिनका जीवन
    केवल भूख से
    पीछा छुड़ाने में खप जाता है
    पर ‘भूख’ कभी नहीं जाता है

    ये वो लोग है
    जो सदियों से
    ‘भूख’ की बीमारी से
    लड़ते आ रहे हैं

    ये वो लोग हैं
    जिनके लिए
    ‘कोरोना’ से ज़्यादा ज़रूरी है
    भूख की लड़ाई।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • काम बोलता है पर कविता

    काम बोलता है पर कविता

    वह बचपन से ही
    कुछ करने से पहले
    अपने आसपास के लोगों से
    बार-बार पूछता था
    …यह कर लूं ? …वह कर लूं ?

    लोग उन्हें हर बार
    चुप करा देते थे
    माँ से पूछा-पिता से पूछा
    दादा-दादी और भाई-बहनों से पूछा
    पूछा पूरे परिवार से
    सारे सगे संबंधियों से
    दोस्त-यार और शिक्षकों से भी पूछा

    किसी ने भी उसे जवाब में
    करने या न करने के संबंध में
    कुछ भी नहीं कहा

    आज वह बड़ा हो गया है
    अब वह किसी से कुछ भी नहीं पूछता
    सब कुछ अपने मन से करता है

    लोग उसकी करनी देख
    कुछ भी नहीं बोल पाते
    रहते हैं बिलकुल मौन

    लोग अब उन्हें सब कुछ करते हुए
    आश्चर्य भरी निगाहों से
    सिर्फ देखते हैं

    अब वह बोलता कुछ भी नहीं
    पूछता कुछ भी नहीं
    बस कर्मलीन
    काम करता है चुपचाप
    आज उसका काम बोलता है।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • मानसिकता पर कविता

    मानसिकता पर कविता

    आज सब कुछ बदल चुका है
    मसलन खान-पान,वेषभूषा,रहन-सहन और
    कुछ-कुछ भाषा और बोली भी

    आज समाज की पुरानी विसंगतियां, पुराने अंधविश्वास
    और पुरानी रूढ़ियाँ
    लगभग गुज़रे ज़माने की बात हो गई है
    आज बदले हुए इस युग में-समाज में
    अब वे बिलकुल भी टिक नहीं पाती

    अब काम पर जाते हुए
    बिल्ली का रास्ता काट जाना
    बिलकुल अशुभ नहीं माना जाता
    हो गई है निहायत ही सामान्य घटना

    हम ख़ुद को एक सांविधानिक राष्ट्र
    और सभ्य समाज का अंग मानने लगे हैं
    इतना ही नहीं गाहे-बगाहे अधिकारों की बात करने लगे हैं

    आज जितना हम बदले हैं
    जितना हमारा समाज बदला है
    जितने हमारे तौर-तरीके बदले हैं
    पर उतनी नहीं बदली है
    हमारी पुरानी स्याह मानसिकता

    हम बस पुरानी विसंगतियों, पुराने अंधविश्वासों
    और पुरानी रूढ़ियों पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ाकर
    अपनी सुविधानुसार गढ़ लिए हैं नए-नए रूप

    आज भी कुछ आँखों में
    बड़े ज़ोर से चुभती है
    लिंग और जातिगत समानता की बातें

    आज भी सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक नज़र आते हैं
    धर्म की दुहाई देने वाले तथाकथित धार्मिक लोग

    आज भी मानवीय तर्कों और उसूलों पर जीने वाले लोग
    अधार्मिक और नास्तिक करार दिए जाते हैं

    आख़िर क्यूँ “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ”
    स्त्री उत्थान और स्त्री विमर्श की सच्चाई
    नारों और किताबों से निकलकर
    कभी व्यावहारिक धरातल पर क़दम नहीं रख पाती ?

    आख़िर क्यूँ सभ्य और सुशिक्षित समाज में ‘दहेज’
    ठेंगा दिखाते हुए स्टेटस सिंबल बनकर
    आज भी अस्तित्ववान बना हुआ है ?

    कन्या के भ्रूण को निकाला जा सकता है
    यह आसान तरीका और विकृत ज्ञान
    तथाकथित सभ्य और सुशिक्षित समाज के सिवाय
    भला किस अनपढ़ के पास है ?

    दरअसल सच्चाई तो यही है
    कि आधुनिकता के इस ज़माने में
    हमारी विसंगतियां, हमारे अंधविश्वास
    और हमारी रूढ़ियाँ भी आधुनिक हो गई हैं

    आज भले ही आधुनिक हैं हम
    बावजूद इसके तनिक भी नहीं बदली है
    बल्कि उतनी ही पुरानी है
    हमारी-तुम्हारी स्याह मानसिकता ।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    975585247

  • मगर पर कविता

    मगर पर कविता

    जब तक तारीफ़ करता हूँ
    उनका होता हूँ
    यदि विरोध में
    एक शब्द भी कहूँ
    उनके गद्दारों में शुमार होता हूँ

    साम्राज्यवादी चमचे
    मुझे समझाते हैं
    बंदूक की नोक पर
    अबे! तेरे समझ में नहीं आता
    जल में रहता है
    और मगर से बैर करता है

    अच्छा हुआ
    वे पहचान गए मुझे
    मैं पहचान गया उन्हें

    हक़ीक़त तो यही है
    न कभी मैं उनका था
    न कभी वो मेरे थे।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • जंगल पर कविता

    जंगल पर कविता

    अब धीरे-धीरे सारा शहर
    शहर से निकलकर घुसते जा रहा है जंगल में
    आखिर उसे रोकेगा कौन साथी…?
    शहर पूरे जंगल को निग़ल जाएगा एक दिन
    आने वाली हमारी पीढ़ी हमसे ही पूछेगी
    खो चुके उस जंगल का पता
    हम क्या जवाब देंगे उन्हें
    शहर की ओर इशारा करते हुए कहेंगे
    यही तो है बाकी बचा तुम्हारे हिस्से का जंगल
    हमारे जवाब से कतई संतुष्ट नहीं होगी हमारी भावी पीढ़ी
    वह बार-बार पूछेगी जंगल के सारे सवाल
    और हम हर बार एक झूठ को दबाने के लिए बोलेंगे कई-कई झूठ
    आखिरकार मजबूर होकर करना ही पड़ेगा कड़वे सच पर यक़ीन उन्हें
    यह जो शहर है बस यही तो है जंगल
    हम ही तो है इस जंगल के जंगली जानवर
    सभ्य शहर में रहते हुए भी कहलाएंगे जंगली
    और सुसंस्कृत होते हुए भी कहलाएंगे जानवर
    धनबल और बाहुबल से युक्त होंगे जंगल के राजा
    बहुमंजिला गुफा होगा उसका निवास स्थान
    शोषित-पीड़ित जनता ख़रगोश और हिरणों की तरह सतत सेवा में रहेंगे उपलब्ध
    कुछ चतुर चालाक लोमड़ी भी होंगे जो राजा को अपनी चतुराई से करेंगे ख़ुश
    और बेवकूफ जनता को फ़साएंगे अपनी चालाकियों से बार-बार
    तब आने वाली हमारी नस्लें स्कूलों में पढ़ेंगी
    जंगल का समानार्थी शब्द होता है शहर
    वे इसके अभेद अर्थों से पूर्णतः सन्तुष्ट हो चुके होंगे
    फिर आने वाली पीढी कभी नहीं पूछेगी जंगल का सवाल।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479