वृक्षारोपण पर कविता
गिरा पक्षी के मुहं से दाना
बस वही हुवा मेरा जनम!
चालिस साल पुराना हु मै
जरा करना मुझ पे रहम!!
आज भी मुझको याद है
वह बिता जमाना कल!
पहली किरण लि सुर्य की
था बहुत ही सुहाना पल!!
जब था मै नया-नया तो
था छोटा सा आकार!
धिरे-धिरे बड़ा हुआ तो
फिर बड़ा हुआ आकार!!
झेलनी पड़ी बचपन मे मुझे
ढेर सारी कठनाईया!
सब पत्तो को खां जाती थी
चरवाहो की बकरिया!!
कई बार मेरी जान बची
बताउ जाते-जाते!
जो जानवर मुझे देखते
बस मुझको ही थे खाते!!
धिरे धिरे मेरा कद बढ़ा
बड़-बड़ा होता गया!
तब कही मेरे दिल से
जानवरो का भय गया!!
अब विशाल वृक्ष हो गया हु मै
अब नही जानवरो का भय!
अब जानवरो,और मनुष्यो को
मै खूद देता हु आश्रय!!
अब मै सतत मनुष्यो को
प्राण-वायू देता हु!
ऎसा करके खूद को मै
भाग्यशाली समझता हु!!
अब मै निरंतर मनुष्यो को
करता हु सेवा प्रदान!
छांया,फल,फूल और,लकड़ी
मै सब करता हु दान!!
पर ना समझे ये मानव की, जो
इतना सब कुछ बांटता है!
खूदगर्जि मे लेकर कुल्हाडी
हमे बेरहमी से कांटता है!!
पेड़ लगाओ-पेड़ बचाओ
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कवि-धनंजय सिते(राही)