Tag: Poem on 5 June World Environment Day

  • वृक्षारोपण पर कविता

    वृक्षारोपण पर कविता

    poem on trees
    poem on trees

    गिरा पक्षी के मुहं से दाना
    बस वही हुवा मेरा जनम!
    चालिस साल पुराना हु मै
    जरा करना मुझ पे रहम!!

    आज भी मुझको याद है
    वह बिता जमाना कल!
    पहली किरण लि  सुर्य की
    था बहुत ही सुहाना पल!!

    जब था मै नया-नया तो
    था छोटा सा आकार!
    धिरे-धिरे बड़ा हुआ तो
    फिर बड़ा हुआ आकार!!

    झेलनी पड़ी बचपन मे मुझे
    ढेर सारी कठनाईया!
    सब पत्तो को खां जाती थी
    चरवाहो की बकरिया!!

    कई बार मेरी जान बची
    बताउ जाते-जाते!
    जो जानवर मुझे देखते
    बस मुझको ही थे खाते!!

    धिरे धिरे मेरा कद बढ़ा
    बड़-बड़ा होता गया!
    तब कही मेरे दिल से
    जानवरो का भय गया!!

    अब विशाल वृक्ष हो गया हु मै
    अब नही जानवरो का भय!
    अब जानवरो,और मनुष्यो को
    मै खूद देता हु आश्रय!!

    अब मै सतत मनुष्यो को
    प्राण-वायू देता हु!
    ऎसा करके खूद को मै
    भाग्यशाली समझता हु!!

    अब मै निरंतर मनुष्यो को
    करता हु सेवा प्रदान!
    छांया,फल,फूल और,लकड़ी
    मै सब करता हु दान!!

    पर ना समझे ये मानव की, जो
    इतना सब कुछ बांटता है!
    खूदगर्जि मे लेकर कुल्हाडी
    हमे बेरहमी से कांटता है!!

    पेड़ लगाओ-पेड़ बचाओ
    ””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””

    कवि-धनंजय सिते(राही)

  • मै भी एक पेड़ हूं मत काटो

    मै भी एक पेड़ हूं मत काटो

      (१)
    गली गली में मै हूं, छाया तुम्हे देता हूं।
    खेतों की पार में हूं, वर्षा भी कराता हूं।
    शीतल हवा देता हूं ,चुपचाप मै रहता हूं।
    देखो भाई मत काटो,मै भी एक पेड़ हूं।।
                      (2)
    मीठा फल देता हूं , खट्टा फल देता हूं।
    कार्बोहाइड्रेट देता हूं,विटामिन भी देता हूं। 
    मै कुछ नहीं लेता, सिर्फ तुम्हे मै देता हूं। 
    देखो भाई मत काटो,मै भी एक पेड़ हूं।।
                      (3)
    मै ही औषधि देता,जीवन को बचाता हूं।
    अमृत का रसपान कराता,नई जान देता हूं।
    मुझ पर रहम करो ,खुशियां मै देता हूं।
    देखो भाई मत काटो,मै भी एक पेड़ हूं।।
                       (4)
    पेड़ खूब लगा लो,हरियाली मै देता हूं।
    रक्षा  कर लो, धरा को सुंदर बनाता हूं।
    पृथ्वी पर अब जीने दो, शुद्ध वायु देता हूं।
    देखो भाई मत काटो,मै भी एक पेड़ हूं।।


    रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर”

    पीपरभवना,बिलाईगढ़,बलौदाबाजार (छ.ग.)

    मो.  ‌8120587822

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • धुआँ घिरा विकराल

    धुआँ घिरा विकराल

    बढ़ा प्रदूषण जोर।
    इसका कहीं न छोर।।
    संकट ये अति घोर।
    मचा चतुर्दिक शोर।।
    यह भीषण वन-आग।
    हम सब पर यह दाग।।
    जाओ मानव जाग।
    छोड़ो भागमभाग।।
    मनुज दनुज सम होय।
    मर्यादा वह खोय।।
    स्वारथ का बन भृत्य।
    करे असुर सम कृत्य।।
    जंगल किए विनष्ट।
    सहता है जग कष्ट।।
    प्राणी सकल कराह।
    भरते दारुण आह।।
    धुआँ घिरा विकराल।
    ज्यों उगले विष व्याल।।
    जकड़ जगत निज दाढ़।
    विपदा करे प्रगाढ़।।
    दूषित नीर समीर।
    जंतु समस्त अधीर।।
    संकट में अब प्राण।
    उनको कहीं न त्राण।।
    प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।
    सकल विश्व अब त्रस्त।।
    अन्धाधुन्ध विकास।
    आया जरा न रास।।
    विपद न यह लघु-काय।
    शापित जग-समुदाय।।
    मिलजुल करे उपाय।
    तब यह टले बलाय।।
    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • धरती हमको रही पुकार

    धरती हम को रही पुकार ।

    समझाती हमको हर बार ।।

    काहे जंगल काट रहे हो ।
    मानवता को बाँट रहे हो ।
    इससे ही हम सबका जीवन,
    करें सदा हम इससे प्यार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    बढ़ा प्रदूषण नगर नगर में ।
    जाम लगा है डगर डगर में ।।
    दुर्लभ हुआ आज चलना है ,
    लगा गन्दगी का अम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    शुद्ध वायु कहीं न मिलती है ।
    एक कली भी न खिलती है ।।
    बेच रहे इसको सौदागर ,
    करते धरती का व्यापार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    पशुओं को बेघर कर डाला ।
    काट पेड़ को हँसता लाला ।।
    मौसम नित्य बदलता जाता ,
    नित दिन गर्मी अपरम्पार ।।

    धरती  हमको रही पुकार ।।

    आओ मिलकर पेड़ लगायें ।
    निज धरती को स्वर्ग बनायें ।।
    हरा – भरा अपना जीवन हो ,
    बन जाये सुरभित संसार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    परयावरण बचायें हम सब ।
    स्वच्छ रखें घर आँगन सब ।।
    करे सुगंधित तन मन सबका ,
    पंकज कहता बारम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    डाँ. आदेश कुमार पंकज
    विभागाध्यक्ष गणित शास्त्र
    रेणुसागर सोनभद्र
    उत्तर प्रदेश
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • विनाश की ओर कदम

    विनाश की ओर कदम

    नदी ताल में  कम  हो  रहा  जल
    और हम पानी यूँ ही बहा  रहे हैं।
    ग्लेशियर पिघल रहे  और  समुन्द्र
    तल   यूँ ही  बढ़ते  ही जा रहे  हैं।।
    काट कर सारे वन  कंक्रीट के कई
    जंगल  बसा    दिये    विकास   ने।
    अनायस ही विनाश की ओर कदम
    दुनिया  के  चले  ही  जा  रहे   हैं ।।
    पॉलीथिन के  ढेर  पर  बैठ  कर हम
    पॉलीथिन हटाओ का नारा दे रहे हैं।
    प्रक्रति का  शोषण कर   के  सुनामी
    भूकंप  का  अभिशाप   ले   रहे  हैं ।।
    पर्यवरण प्रदूषित हो रहा है  दिन रात
    हमारी आधुनिक संस्कृति के कारण।
    भूस्खलन,भीषणगर्मी,बाढ़,ओलावृष्टि
    की नाव बदले में  आज हम खे रहे हैं।।
    ओज़ोन लेयर में छेद,कार्बन उत्सर्जन
    अंधाधुंध दोहन का ही दुष्परिणाम है।
    वृक्षों की कटाई  बन  गया  आजकल
    विकास  प्रगति   का   दूसरा  नाम  है।।
    हरियाली को  समाप्त करने  की  बहुत
    बडी  कीमत चुका रही   है  ये  दुनिया।
    इसी कारण ऋतुचक्र,वर्षाचक्र का नित
    असुंतलन आज  हो  गया  आम  है ।।
    सोचें  क्या दे  कर  जायेंगे  हम   अपनी
      अगली     पीढ़ी    को   विरासत   में ।
    शुद्ध जल और वायु  को ही   कैद  कर
    दिया है जीवन  शैली की  हिरासत में।।
    जानता  नहीं   आदमी   कि   कुल्हाड़ी
    पेड पर  नहीं  पाँव   पर  चल   रही  है।
    प्रकृति  नहीं  सम्पूर्ण  मानवता  ही नष्ट
    हो जायेगी इस दानव सी हिफाज़त में।।
    रचयिता
    एस के कपूर श्री हंस
    बरेली
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद