आओ गिलहरी बनें
सागर पर जब सेतु बना था,
गिलहरी ने क्या काम किया था
जहां-जहां भी दरार रहती,
उसने उसको मिटा दिया था
वैसे तो वह छोटी सी थी,
राम कार्य में समर्पित थी
रेती उठाकर चल पड़ती थी,
अथक निरंतर प्रयासरत थी
प्रभु ने जब उसको था देखा,
हाथ घुमाया बन गई रेखा
युगों युगों से स्मरण कराती,
सेवा उसकी याद दिलाती
आज हो रहा फिर नवसृजन,
गीता पहुंचेगी अब जन मन
एक गिलहरी की है जरूरत,
अहर निश जो रहे कर्मरत
क्यों ना बनूं मैं स्वयं गिलहरी,
कृष्ण कार्य में हो ना देरी
योग पताका ऊंची लहरे,
यही भाव हो मन में गहरे
अपने अस्तित्व को भुलाकर,
एक दूजे का हाथ थाम कर
चलो चलें इस योग मार्ग पर,
सेवारत गिलहरी से बनकर।
– *डॉ. संजय जी मालपाणी*
(राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष, गीता परिवार)