“घर-घर में गणराज” परमानंद निषाद द्वारा रचित एक कविता है जो गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की महिमा और उनकी पूजा के महत्व को दर्शाती है। यह कविता गणेश उत्सव की खुशी, भक्ति, और सांस्कृतिक समृद्धि को प्रकट करती है।
*घर-घर में गणराज (दोहा छंद)*
आए दर पे आपके, कृपा करो गणराज।
हे लम्बोदर दुख हरो, मंगल करिए काज।१।
पहली पूजा आपकी, होता है गणराज।
गणपति सुन लो प्रार्थना, रखना मेरी लाज।२।
गौरी लाल गणेश जी, तीव्र बुद्धि का ज्ञान।
पालक को जग मानते, देते नित सम्मान।३।
घर-घर में गणराज हे, पधारिए प्रभु आज।
जल्दी आओ नाथ तुम, मूषक वाहन साज।
एक दन्त गणराज हे, लेते मोदक भोग।
हे गणेश रक्षा करो, मिले सदा सुख योग।५।
करे निवेदन आपसे, हाथ सदा प्रिय जोड़।
पार लगाना आप ही, चाहे जो हो मोड़।६।
*परमानंद निषाद”प्रिय”*
आइए इस कविता के भावार्थ और प्रमुख बिंदुओं पर नजर डालते हैं:
- भगवान गणेश की महिमा:
- कविता में भगवान गणेश की महिमा का वर्णन किया गया है। उन्हें विघ्नहर्ता, बुद्धि, और समृद्धि का देवता माना जाता है। उनकी पूजा हर कार्य की शुरुआत में की जाती है ताकि सभी विघ्न दूर हों।
- गणेश चतुर्थी का उत्साह:
- “घर-घर में गणराज” शीर्षक से ही स्पष्ट होता है कि गणेश चतुर्थी के दौरान हर घर में गणेश जी की स्थापना और पूजा की जाती है। इस दौरान भक्तों में विशेष उत्साह और उल्लास देखा जाता है।
- समुदाय और सामाजिक एकता:
- कविता इस बात को भी उजागर करती है कि गणेश उत्सव के दौरान समाज में एकता और भाईचारे की भावना प्रबल होती है। लोग एकत्र होकर पूजा-अर्चना करते हैं और सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं।
- संस्कृति और परंपरा:
- गणेश चतुर्थी हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। यह पर्व भारतीय संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
- भक्ति और आराधना:
- कविता में भक्तों की भक्ति और भगवान गणेश के प्रति उनकी अटूट आस्था का वर्णन किया गया है। इस दौरान भजन-कीर्तन और आरती के माध्यम से गणेश जी की आराधना की जाती है।
परमानंद निषाद की कविता “घर-घर में गणराज” गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की महिमा और समाज में उनके प्रति श्रद्धा को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करती है। यह कविता गणेश उत्सव की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्वता को उजागर करती है और इस पर्व के माध्यम से समाज में खुशी और समृद्धि के संदेश को फैलाती है।