वक्त पर कविता

वक्त पर कविता

पलटी खाता वक्त बेवक्त,
मुंह बिचका के चिढ़ाता है।
किया धरा पानी फिराता,
वक्त ओंधे मुंह गिराता है।।

सगा नहीं किसी का वक्त,
हर वक्त चलता रहता है।
कभी धूप कभी छांव सा,
स्वरूप बदलता रहता है।।

कच्ची धूप ओस की बूंद,
प्रकृति को निहलाती है।
तेज़ धूप झुलसाती तपन,
अंत में ख़ुद ढल जाती है।।

वक्त का मारा हारा मानव,
हताश निराश हो जाता है।
हिम्मत धैर्य रखनेवाला ही,
बुरे वक्त पर विजय पाता है।।

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