तुम धरा की धुरी
नारी तुम धरा की धुरी
तुम बिन सृष्टि अधूरी
मूरत तुम नेह स्नेह, वात्सल्य
तुम ममतामयी, तुम करुणानिधि ।
माँ, बहन, बेटी और पत्नी
तुम हर रूप की अवतारी
चली हर कदम पुरुष के साथ
बन जीवन रथ की धुरी ।
त्याग व प्रेम की सूरत सी
तुम मूरत हो प्यारी
तुम से शुरू तुम पर ही खत्म
तुम हो इस भू पर बगिया क्वारी ।
तुम छली गई बार बार हर बार
दबी तुम ठरके की ठेकेदारी से
जब चाहे अस्मिता कुचलते रहे
तुल्य समझ स्व भोग की वस्तु से ।
वेदना व पीड़ा सहकर भी
दर्द आँचक में समेटकर
चली तुम पुरुष के संग संग
पद चिन्हों को तराश कर ।
अजीब विडंबना हैं हे नारी
तुम भव भव से हारी
एक हाथ पूजें धन लक्ष्मी को
दूसरा हाथ गृहलक्ष्मी पर भारी ।
करते रहे तुम कन्यापूजन
कोख़ की कन्या का अंत भारी
लूटते रहे अस्मत बालिकाओ की
नभ पर गूंजी चित्कार दर्द भरी ।
कोई नहीं समझा पीड़ परायी
नारी तेरी बस यही हैं कहानी
जीवन की विभीषिका में
युगों से जौहर तुम रचाती रही ।
नारी तुम नारायणी, तुम ही हो दूर्गा
चलो तुम करके सिंह सवारी
वध करो तुम महिषासुर का
एक बार बन जाओ माँ काली ।
वार करो तुम प्रहार करो
अबला से बन जाओ सबला
बचाओ अपने आत्म सम्मान को
सर्वनाश कर दो उन जालिमों का ।।