Author: कविता बहार

  • साधना पर कविता

    साधना पर कविता

    करूँ इष्ट की साधना,
    कृपा करें जगदीश।
    पग पग पर उन्नति मिले,
    तुझे झुकाऊँ शीश।।

    योगी करते साधना,
    ध्यान मगन से लिप्त।
    बनते ज्ञानी योग से,
    दूर सभी अभिशिप्त ।।

    जो मन को हैं साधते,
    श्रेष्ठ उसे तू जान।
    दुनिया के भव जाल में,
    फँसे नहीं वो मान।।

    करो कठिन तुम साधना,
    दृढ़ता से धर ध्यान।
    मन सुंदर पावन बने,
    संग मिले सम्मान।।

    मानव कर्म सुधार चल,
    वही साधना जान।
    हृदय शुद्ध कर नित्य ही,
    करले गुण रसपान।।

    ~ मनोरमा चन्द्रा “रमा”
    रायपुर (छ.ग.)

  • मनोरम छंद विधान- बाबूलाल शर्मा

    मनोरम छंद विधान

    • मापनी – २१२२ २१२२
    • चार चरण का छंद है
    • दो दो चरण सम तुकांत हो
    • चरणांत में ,२२,या २११ हो
    • चरणारंभ गुरु से अनिवार्य है
    • ३,१०वीं मात्रा लघु अनिवार्य
    • मापनी – २१२२, २१२२
    hindi vividh chhand || हिन्दी विविध छंद
    hindi vividh chhand || हिन्दी विविध छंद

    कल

    काल से संग्राम ठानो!
    साहसी की जीत मानो!
    आज आओ मीत सारे!
    काल-कल बातें विचारे!

    सोच ऊँची बात मानव!
    भाव होवें मान आनव!
    आज है तो कल रहेगा!
    सोच कैसे जल बचेगा!

    पुस्तकों से नेह जोड़ो!
    वेद ग्रंथो को न छोड़ो!
    भारती की आरती कर!
    मानवी मन भाव ले भर!

    कंठ मीठे गीत गाना!
    आज को करलें सुहाना!
    आज है तो मानले कल!
    वायु नभ ये अग्नि भू जल!

    चेतना मानव पड़ेगा!
    आज से ही कल जुड़ेगा!
    दूर दृष्टा सृष्टि पालक!
    काल-कल के चक्र चालक!

    आलसी क्यों हो पड़े जन!
    आज ही कल खो रहे मन!
    रुष्ट जन मन को मनाओ!
    आज ही कल को जगाओ!
    . °°°°°°°°°
    आनव~मानवोचित

    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान

  • महँगाई पर दोहे

    महँगाई पर दोहे

    महँगाई की मार से , हर जन है बेहाल।
    निर्धनभूखा सो रहा,मिले न रोटी दाल।।1।।


    महँगाई डसती सदा,निर्धन को दिनरात।
    पैसा जिसके पास है,होती उसकी बात।।2।।


    महँगाई में हो गया , गीला आटा दाल।
    पूँछे कौन गरीब को,जिसका है बेहाल।।3।।


    सुरसा के मुख सी बढ़े,महँगाई की मार।
    देखो तो चारों तरफ , होता हाहाकार।।4।।


    महँगी हर इक चीज है,बढ़े हुए है भाव।
    डर जाते सब देखके, महँगाई के ताव।।5।।


    आटा चावल दाल सब,हुए सभी हैं दूर।
    महँगाई के दौर में,खुशियां चकनाचूर।।6।।


    सभी ओर होने लगी, महँगाई की बात।
    ओर विषय भूले सभी,लगे रहो दिनरात।।7।।


    महँगाई के राज में , स्वप्न गए सब भूल।
    भर जाए बस पेट ही,बाकी सभी फिजूल।।8।।


    निर्धन निर्धन हो रहा ,धनी बना धनवान।
    महँगाई के दौर में, टूट गए अरमान।।9।।


    प्याज टमाटर छू रहे , आसमान से भाव।
    चूल्हा अब कैसे जले , महँगाई के दाँव।।10।।

    ©डॉ एन के सेठी
    बाँदीकुई(दौसा)राज

  • ऋतुराज बसंत पर दोहे

    ऋतुराज बसंत पर दोहे

    माघ शुक्ल बसंत पंचमी Magha Shukla Basant Panchami
    माघ शुक्ल बसंत पंचमी Magha Shukla Basant Panchami

    धरती दुल्हन सी सजी,आया है ऋतुराज।
    पीली सरसों खेत में,हो बसंत आगाज।।1।।


    कोकिल मीठा गा रही,भांतिभांति के राग।
    फूट रही नव कोंपलें , हरे भरे हैं बाग।।2।।


    पीली चादर ओढ़ के, लगती धरा अनूप।
    प्यारा लगे बसंत में, कुदरत का ये रूप।।3।।


    हरियाली हर ओर है , लगे आम में बौर।
    हुआ शीतअवसान है,ऋतु बसंत का दौर।।4।।
    ????
    फैल रहा चहुँ और है, बिखरा पुष्प पराग।
    निर्मल जल से पूर्ण हैं,नदियाँ ताल तड़ाग।।5।।


    प्रकट हुई माँ शारदे,ऋतु बसंत के काल।
    वीणापुस्तकधारिणी, वाहन रखे मराल।।6।।


    फूल फूल पर बैठता,भ्रमर करे गुंजार।
    फूलों से रस चूसता,सृजन करे रस सार।।7।।


    कुदरत ने खोला यहाँ, रंगों का भंडार।
    अद्भुत प्रकृति की छटा,फूलों काश्रृंगार।।8।।


    सुंदर लगे वसुंधरा, महके हर इक छोर।
    दृश्य सुनहरा सा लगे,ऋतु बसंत मेंभोर।।9।।


    नया नया लगने लगा,कुदरत का हर रूप।
    ऋतु बसंत के काल मे,लगे सुहानी धूप।।10।।

    ©डॉ एन के सेठी

  • संवेदना पर कविता -अमित दवे

    संवेदना पर कविता

    कथित संवेदनाओं के ठेकेदारों को
    संवेदनाओं पर चर्चा करते देखा।

    संवेदनाओं के ही नाम पर संवेदनाओं का
    कतल सरेआम होते देखा।।

    साथियों के ही कष्टों की दुआ माँगते
    सज्जनों को शिखर चढते देखा।।

    खेलों की बिसातों पे षड्यंत्रों से
    अपना बन जग को छलते देखा।।

    वाह रे मेरे हमदर्दों हमदर्दी की आड में
    तुमको क्या क्या न करते देखा?

    बस करो अब ओ जगत् के दोगलों
    चरित्र दोहरा जग ने आँखों से देखा।।

    सादर प्रस्तुति
    ©अमित दवे,विवेक