Author: कविता बहार

  • शांति पर कविता -नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    शांति पर कविता 

    हम कैसे लोग हैं
    कहते हैं—
    हमें ये नहीं करना चाहिए
    और वही करते हैं
    वही करने के लिए सोचते हैं
    आने वाली हमारी पीढियां भी
    वही करने के लिए ख़्वाहिशमंद रहती है
    जैसे नशा
    जैसे झूठ
    जैसे अश्लील विचार और सेक्स
    जैसे ईर्ष्या-द्वेष
    जैसे युद्ध और हत्याएं
    ऐसे ही और कई-कई वर्जनाओं की चाह

    हम नकार की संस्कृति में पैदा हुए हैं
    हमें नकार सीखाया जाता है
    हमारे संस्कार नकार में गढ़े गए हैं
    हम उस तोते की तरह हैं
    जो जाल में फंसा हुआ भी
    कहता है जाल में नहीं फँसना चाहिए
    हमारा ज्ञान, हमारी विद्या,हमारे सीख या तालीम
    सब तोता रटंत है,थोथा है,खोखला है
    सच को स्वीकार करना हमने नहीं सीखा
    जितने शिक्षित हैं हम
    हमारी कथनी और करनी के फ़ासले उतने अधिक हैं
    हम पढ़े-लिखे तो हैं
    पर कतई 
    कबीर नहीं हो सकते

    युद्धोन्माद से भरे हुए कौरवों के वंशज
    युद्ध को समाधान मानते हैं
    उन्हें लगता है
    युद्ध से ही शांति मिलेगी
    युद्ध करके अपनी सीमाओं का विस्तार चाहते हैं
    उन्हें नहीं पता कि
    युद्ध विस्तार-नाशक है
    युद्ध सारा विस्तार शून्य कर देता है
    युद्ध एक गर्भपात है
    जिससे विकास के सारे भ्रूण स्खलित हो जाते हैं
    समय बौना हो जाता है
    इतिहास लँगड़ा हो जाता है
    और भविष्य अँधा हो जाता है

    अब हास्यास्पद लगते हैं 
    विश्व शान्ति के सारे संदेश
    मजाक-सा लगता है
    सत्य और अहिंसा को अस्त्र मान लेना
    अब
    नोबेल शांति का हकदार वही है
    जो परमाणु बंम इस्तेमाल का माद्दा रखते हैं
    अब
    लगता है कई बार
    धनबल और बाहुबल के इस विस्तार में
    आत्मबल से भरे हुए उसी अवतार में
    फिर आ जाओ इक बार
    शांति के ओ पुजारी !

    —- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

  • सुंदर विश्व बनाएं-डॉ नीलम

    सुंदर विश्व बनाएं


    मानव के हाथों में कुदाल
    खोद रहा 
    अपने पैरों से रहा 
    अपनी जडे़ निकाल

    अपने अपने झगडे़ लेकर
    करता नरसंहार है
    विश्व शांति के लिए बस
    बना संयुक्त राष्ट्र है

    निःशस्त्रिकरण की ओट में
    अपने घर में आयुध भंडार भरे
    परमाणु की धौंस जता कर
    कमजोरों पर वार करें

    कितनी कितनी शाखाएँ खोलीं
    पर विश्व ना सुखी हुआ
    एक देश कुपोषित होता
    दूजा महामारी से मरता
    थे उद्देश्य बहुत स्पष्ट
    विश्व शांति के लिए
    पर अपने-अपने व्यापार में सब
    बस लाभ के लिए लडे़

    एक बार फिर से सबको
    पन्ने खंगालने होंगे
    क्या क्या करने होंगे बदलाव
    फिर से देखने होंगे

    परिवर्तन जरुरी अब हो गया
    हर राष्ट्र परिपक्व हो गया
    बड़ गयीं जरुरते हर एक की
    सबको समानता की आस है

    भूख मानव की पेट की नहीं
    जमीन के टूकडे़ पर वो लड़ रहा
    अपनी अपनी अस्मिता की चाहत में वो अड़ रहा

    देकर जिसका जो दाय है
    सबको संतुष्ट करना चाहिए
    व्यर्थ अपने ही हाथों 
    ना अपना सर्वनाश करना चाहिए

    चलो फिर एक बार 
    फिर से कदम बढा़एँ
    विश्व जो हो रहा 
    टुकड़े-टुकड़े
    उसको फिर जोड़ 
    सुंदर विश्व बनाएं।

         डा.नीलम
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  • संयुक्त राष्ट्र पर कविता- दूजराम साहू

    संयुक्त राष्ट्र पर कविता

    आसमान छूने की है तमन्ना, 
    अंधाधुंध हो रहे अविष्कार! 
    चूक गए तो विनाशकारी
    सफलता में जीवन उजियार! ! 

    विज्ञान वरदान ही नहीं, अभिशाप भी है, 
    कहीं नेकी करता तो कहीं पाप भी है! 
    उन्नति में लग जाए तो
    कर दे भव से पार ! 
    चूक गए तो विनाशकारी
    सफलता में जीवन उजियार ! ! 

    निर्माण के इस पावन युग पर, 
    होड़ मची है निर्माण की! 
    दुश्मनों के छक्के छुड़ाने, 
    सुलगा दी बाजी जान की, 
    सुखोई, राफेल ताकतवर,  
    पावरफुल मिसाइल ब्रम्होस हथियार! 
    चूक गए तो विनाशकारी, 
    सफलता में जीवन उजियार!! 

    मंडराती ख़तरा हर पल जहाँ पर
    कैसे ये बादल छट पायेंगे? 
    जल-ज़मीन-जंगल जीवन में
    कहीं तो न विष-ओला बरसायेंगे! 
    दुष्प्रभाव कहीं भी कम नहीं है, 
    गले की हड्डी बन रही है 
    विध्वंसकारी औजार ! 
    चूक गए तो विनाशकारी, 
    सफलता में जीवन उजियार!! 

    जल दूषित,थल दूषित,
    दूषित होता आसमान! 
    हथियारों के घमंड में, 
    बैरी होता सारा जहान!! 
    संयुक्त राष्ट्र मिल चिंतन करे, 
    कम हो हथियारों का अविष्कार! 
    चूक गए तो विनाशकारी , 
    सफलता में जीवन उजियार! ! 

    ???????

     दूजराम साहू
     निवास -भरदाकला
     तहसील- खैरागढ़
     जिला- राजनांदगांव (छ. ग. ) 
      8085334535
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  • घर वापसी- राजेश पाण्डेय वत्स

    घर वापसी

    नित नित शाम को, 
    सूरज पश्चिम जाता है। 
    श्रम पथ का जातक 
    फिर अपने घर आता है। 

    भूल जाते हैं बातें 
    थकान और तनाव की ,
    अपने को जब जब
    परिवार के बीच पाता है। 

    पंछियों की तरह चहकते
    घर का हर सदस्य,
    घर का छत भी 
    तब अम्बर नजर आता है। 

    कल्प-वृक्ष की ठंडकता भी 
    फीकी सी लगने लगे 
    शीतल पानी का गिलास
    जब सामने आता है। 

    सबके आँगन खुशी झूमें 
    हर सुबह हर शाम, 
    राम जानें मन में मेरे, 
    विचार ऐसा क्यों आता है?

    वत्स महसूस कर 
    उस विधाता की मौजूदगी,
    हर दिवस की शाम 
    जो शुभ संध्या बनाता है। 

    –राजेश पान्डेय वत्स
    कार्तिक कृष्ण सप्तमी
    2076 सम्वत् 21/10/19
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  • वक़्त से मैंने पूछा-नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    वक़्त से मैंने पूछा     

    वक़्त से मैंने पूछा
    क्या थोड़ी देर तुम रुकोगे ?
    वक़्त ने मुस्कराया
    और
    प्रतिप्रश्न करते हुए
    क्या तुम मेरे साथ चलोगे?
    आगे बढ़ गया…।

    वक़्त रुकने के लिए विवश नहीं था
    चलना उसकी आदत में रहा है 
    सो वह चला गया
    तमाम विवशताओं से घिरा 
    मैं चुपचाप बैठा रहा
    वक्त के साथ नहीं चला
    पर
    वक्त के जाने के बाद
    उसे हर पल कोसता रहा
    बार-बार लांक्षन और दोषारोपण लगाता रहा
    यह कि–
    वक्त ने साथ नहीं दिया
    वक्त ने धोखा दिया
    वक्त बड़ा निष्ठुर था,पल भर रुक न सका

    लंबे वक्त गुजर जाने के बाद
    वक्त का वंशज कोई मिला
    वक्त के लिए रोते देखकर
    मुझे प्यार से समझाया
    अरे भाई!
    वक्त किसी का नहीं होता
    फिर तुम्हारा कैसे होता?
    तुम एक बार वक्त का होकर देखो
    फिर हर वक्त तुम्हारा ही होगा।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
         9755852479
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