Author: मनीभाई नवरत्न

  • जीवन विद्या पर कविता

    जीवन विद्या पर कविता

    जीवन रूपी विद्या, होती है सबसे अनमोल ।
    जानके ये विद्या, तू जीवन के हर भेद खोल।।

    आया कैसे इस दुनिया में , समझ तू कौन है?
    इस प्रश्नों के उलझन में, “मनी “क्यों मौन है ?
    समझ कर इस रहस्य को,जानो अपना रोल।
    जानके ये विद्या को, तू जीवन के भेद खोल।।

    स्वयं में हैं घुटन और,परिवार में होती टूटन ।
    प्रकृति में प्रदूषण ,लाया समाज में विघटन।
    फिर भी शिक्षित होने का पीट रहे हैं ढोल ।
    जानके ये विद्या को, तू जीवन के भेद खोल।।

    मान रहे मान्यता को , जानने से कोसों दूर ।
    आखिर क्या भय तुझे ? जो इतना मजबूर ।
    संप्रदाय को धर्म समझ,भूल गये मेलजोल ।
    जानके ये विद्या को,तू जीवन के भेद खोल।।

    पदार्थ,प्राण और युवा में , ज्ञान तेरी इकाई।
    सूक्ष्म रूप में तो सब है ,आपस में भाई-भाई।
    गोल परमाणु से बनी ,धरती की रचना गोल।
    जानके ये विद्या को,तू जीवन के भेद खोल।।

    जब जानेंगे हम जीवन हैं ,शरीर में वास करें।
    फिजूल संग्रह को छोड़, प्रकृति विकास करें।
    प्रकृति विनाशकर ,बोलते विकास के बोल ।
    जानके ये विद्या को ,तू जीवन के भेद खोल।।

    मूल्य समझें,चरित्र जानें,नैतिक व्यवहार रहे ।
    जीने दें फिर जीयें ,ये जीवन और विचार रहे।
    प्रकृति रक्षक हम , ना दे इसे जहर का घोल ।
    जानके ये विद्या को , तू जीवन के भेद खोल।

    मनीभाई नवरत्न

  • मैं तेरा बीज – पिता पर विशेष

    papa aur beti

    मैं तेरा बीज – पिता पर विशेष

    मैं तेरा बीज – पिता पर विशेष
    हे पिता!
    मैं तेरा बीज हूँ।
    माँ की कोख में
    जो अंकुरित हुया ।
    जब-जब भुख लगी माँ,
    तेरे धरा का रसपान किया।
    गोदी में बेल की भांति
    लिपटा और भरपूर जीया।

    तेरे खाद-पानी से पिता
    पौधा से बना पेड़।
    मेरे आँखो में सदा बसा रहा
    माली की छवि में एक ईश्वर।

    आँधी-तूफान से आज
    मैं लड़ लूँगा थपेड़े सहते।
    सह ना पाऊँ तेरा तिरस्कार।
    आदी हो चुका मैं,
    पाने को तेरा प्यार॥

    मजबूत हैं आज मेरी डालियाँ।
    खिल उठेंगे तेरे लिये कलियाँ।
    समेट लूँगा तुझे अपनी छाया में
    क्षुधा मिटाऊँगा तेरे,
    अपने कर्मफल से।
    (रचयिता:- मनी भाई)

  • देख रहा हूँ कल – मनीभाई नवरत्न

    देख रहा हूँ कल

    सोते हुए जो “कल” को मैंने देखा था।
    वह महज सपना था ।
    आज इस पल फिर से
    देख रहा हूं “कल” मैं जागते हुए ।
    हां !यही अपना रहेगा।
    इस पल साथ हैं मेरे तीन दोस्त
    “जोश जुनून और जवानी “।
    और इन्ही के संग मुझे गढ़नी है
    नित नूतन कहानी ।
    कल कुछ बोलता नासमझ से
    निशानी थी बालपन की।
    आज मेरी वाणी में धार है
    ला सकती है तूफान क्रांति की ।
    फिर भी गंभीर हूं मैं अब हर बात पे।
    चाहे खेलता कोई अपनी जज्बात से ।
    मुझे मालूम है कि
    जिस दिन भी टूटेगी धैर्य का धागा ।
    पूरा का पूरा आमूलचूल परिवर्तन
    होकर ही रहेगा इस दुनिया में ।
    क्योंकि आज इस पल फिर से
    देख रहा हूं “कल” मैं जागते हुए।

    . मनीभाई नवरत्न

  • छत्तीसगढ़ी गीत : हमर देश के हमर राज

    छत्तीसगढ़ी गीत : हमर देश के हमर राज
    1 नवम्बर छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस 1 November Chhattisgarh State Foundation Day

    छत्तीसगढ़ी गीत : हमर देश के हमर राज

    हमर देश के हमर राज ,रखबो जेकर लाज गा।
    दीदी भई जम्मो रे संगी, करथे जेकर बर नाज गा।
    चिरई चिरकुन हामन जइसे,रिकिम-रिकिम के रंग बोली।
    बागे बगीचा मा जइसे ,करत राथे हंसी ठिठोली ।
    हमर मिलइ-जुलइ के देखे, झपटे सके ना बाज गा।
    दीदी भई जम्मो रे….. गांव शहर एके बरोबर गली गली हर टिपटाप।
    बढ़िया अकन के बने राहे ,देश राज दूनों के खापे खाप।
    अटाये झन खेत म किसान के अनाज गा।
    दीदी भई जम्मो रे .. .

    हमर देश के रहैया मन पल्लै हावे होशियार ।
    मानथे नीति नियम ला माँगथे अपन अधिकार ।
    दिनोंदीन बगरत हावे शिक्षा के धाज गा।
    दीदी भई जम्मो रे . . . . कतकी हावे देश विरोधी जगह-जगह मा खुतयाय।
    मौका पाके घात लगाये अपन आदमी ला डरवाय।
    लहू-लुहान होगे रे संगी , हमारे देश आज का।
    दीदी भई जम्मो रे. . . .
    हमर देस के हमर राज, रखबो जेकर लाज गा ।

  • ये मजहब क्यों है – एकता दिवश पर कविता

    एकता दिवश पर कविता
    31 अक्टूबर राष्ट्रीय एकता दिवस 31 October National Unity Day

    ये मजहब क्यों है – एकता दिवश पर कविता

    ये मजहब क्यों है?
    ये सरहद क्यों है?
    क्यों इसके खातिर,
    लड़ते हैं इंसान ?
    क्यों इसके खातिर,
    जलते हैं मकान ?
    क्यों इसके खातिर,
    बनते हैं हैवान ?
    क्यों इसके खातिर,
    आता नहीं भगवान ?
    क्या करेंगे ऐसे मजहब का,
    जिसमें अपनों का चीत्कार है?
    क्या करेंगे ऐसे सरहद का,
    जिसमें खून की धार है?
    क्यों न सबका एक मजहब हो?
    क्यों न सबका एक सरहद हो?
    ये अखिल धरा हो एक परिवार।
    दया,प्रेम,सत्य,अहिंसा हो स्वीकार।
    चलो समझें, मजहब का आधार।
    चलो तोड़ दें,सरहद की दीवार।

    (रचयिता:-मनी भाई