Category: दिन विशेष कविता

  • 13 अप्रैल जलियाँवाला बाग की वेदी पर कविता

    जलियाँवाला बाग की वेदी पर कविता

    नहीं लिया हथियार हाथ में

    ● माखनलाल चतुर्वेदी

    नहीं लिया हथियार हाथ में, नहीं किया कोई प्रतिकार,

    ‘अत्याचार न होने देंगे’, बस इतनी ही थी मनुहार ।

    सत्याग्रह के सैनिक थे ये सब सहकर रहकर उपवास,

    वास बंदियों में स्वीकृत था, हृदय-देश पर था विश्वास ।

    मुरझा तन था, निश्चय मन था, जीवन ही केवल धन था,

    मुसलमान हिंदूपन छोड़ा, बस निर्मल अनापन था ।

    मंदिर में था चाँद चमकता, मसजिद में मुरली की तान,

    मक्का हो चाले वृंदावन, होते आपस में कुरबान ।

    सूखी रोटी दोनों खाते, पीते थे रावी का जल,

    मानो मल धोने को पाया, उसने अहा उसी दिन बल ।

    गुरु गोविंद तुम्हारे बच्चे, अब भी तन चुनवाते हैं।

    पथ से विचलित न हों, मुदित, गोली से मारे जाते हैं।

    गली-गली में अली-अली की गूँज मचाते हिल-मिलकर,

    मारे जाते कर न उठाते, हृदय चढ़ाते खिल-खिलकर।

    कहो करें क्या, बैठे हैं हम, सुनें मस्त आवाजों को,

    धो लेवें रावी के जल से, हम इन ताजे घावों को ।

    रामचंद्र मुखचंद्र तुम्हारा, घातक से कब कुम्हलाया,

    तुमको मारा नहीं वीर, अपने को उसने मरवाया ।

    जाओ – जाओ जाओ प्रभु को, पहुँचाओ स्वदेश-संदेश,

    ‘गोली से मारे जाते हैं भारतवासी हे सर्वेश !’

    रामचंद्र तुम कर्मचंद्र सुत बनकर आ जाना सानंद,

    जिससे माता के संकट के बंधन तोड़ सको स्वच्छंद ।

    चिंता है होवे न कलंकित, हिंदू धर्म, पाक इसलाम,

    गावें दोनों सुध-बुध खोकर या अल्ला, जय-जय घनश्याम ।

    स्वागत है सब जगतीतल का, उसके अत्याचारों का,

    अपनापन रखकर स्वागत है, उसकी दुर्बल मारों का ।

    हिंदू-मुसलिम ऐक्य बनाया, स्वागत उन उपहारों का,

    पर मिटने के दिवस रूप धर आवेंगे त्योहारों का ।

    गोली को सह जाओ प्रिय अब्दुल करीम बन जाओ,

    अपनी बीती खुदा तक, अपने बनकर पहुंचाओ।

  • 7 अप्रैल स्वास्थ्य दिवस पर कविता

    उन आदतों को

    o आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    बिस्तरों को छोड़ दो, सुबह की नींद तोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य नष्ट हो, उन आदतों को छोड़ दो ।

    सूर्य के उदय से पूर्व, सैर करने जाइए।

    शौच से निपट के, दाँत साफ करके आइए ॥

    इससे पहले चाय-नाश्ते की बात छोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य….

    सैर ही नहीं सवेरे नित्य कसरत करो।

    योग आसनों से रोग नित शरीर के हरो।

    जल से नहाओ, ड्राइबाथ लेना छोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य…

    पूरी, पराठे व बिस्कुटों को भूल जाइए।

    दूध, दही, छाछ, चने अंकुरित भी खाइए। ।

    तेज मिर्च, मसालों के माल खाना छोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य…

    खाओ तीन बार किंतु नाक तक भरो नहीं।

    स्वाद से चखो परंतु स्वाद पर मरो नहीं।

    नाक-भौं सिकोड़ने की आदतों को छोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य…

    बिस्तरों को छोड़ दो, सुबह की नींद तोड़ दो।

    जिनसे स्वास्थ्य नष्ट हो, उन आदतों को छोड़ दो ॥

  • 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कविता

    8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कविता

    1857 में 8 मार्च को न्यूयॉर्क में कपड़ा मिलों की कामकाजी महिलाओं ने अधिक वेतन व काम के घण्टे 15-16 से घटाकर 10 घण्टे करने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। चुकीं यह विश्व की महिलाओं का यह प्रथम प्रदर्शन था, इस लिए इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रुक में मनाया जाता है उनकी एकता के लिए.

    परन्तु उस समय के श्रम संघों ने भी नापसन्द किया। परिणामस्वरूप यह आन्दोलन असफल रहा, किन्तु यह आन्दोलन पुलिस द्वारा कुचलने के बावजूद महिला संघर्ष के इतिहास में अमिट छाप छोड़ गया।

    आज नारी का स्वत:

    आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    आज नारी का स्वतः सम्मान जागा है।

    अस्मिता का आज फिर अभिमान जागा है।

    अब निरक्षरता ने होगी शीश पर ढोनी।

    हर कदम पर एक आशा की फसल बोनी ।

    कर्म के पथ में अथक संधान जागा है।

    अस्मिता का आज फिर अभिमान जागा है ॥

    सजग होती शक्ति से संसार नत होगा।

    कर्तव्य के उत्थान से अधिकार नत होगा ॥

    त्याग की झंकार से बलिदान जागा है।

    अस्मिता का आज फिर अभिमान जागा है।

    बातियाँ ये नित्य निज तल जलाएँगी।

    तम हरेंगी सत्यपथ वो जगमगाएँगी ॥

    ज्योति में रवि-रश्मि का आह्वान जागा है

    अस्मिता का आज फिर अभिमान जागा है।

    किरण को कोई कहीं क्या रोग पाया है ?

    उसे ज्ञानाभाव ने बंदी बनाया है ।

    विस्मरण में आत्मबल का ज्ञान जागा है।

    अस्मिता का आज फिर अभिमान जागा है ।

  • 23 दिसम्बर किसान दिवस पर कविता

    तुझे कुछ और भी दूँ !

    रामअवतार त्यागी

    तन समर्पित, मन समर्पित

    और यह जीवन समर्पित

    चाहता हूँ, देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ!

    माँ ! तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन

    किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन,

    थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब

    स्वीकार कर लेना दयाकर वह समर्पण!

    गान अर्पित, प्राण अर्पित

    रक्त का कण-कण समर्पित

    चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !

    माँज दो तलवार को, लाओ न देरी

    बाँध दो कसकर कमर पर ढाल मेरी

    भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी

    शीश पर आशीष की छाया घनेरी

    स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित

    आयु का क्षण-क्षण समर्पित

    चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

    तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,

    गाँव मेरे, द्वार घर आँगन क्षमा दो,

    आज बाएँ हाथ में तलवार दे दो,

    और सीधे हाथ में ध्वज को क्षमा दो !

    ये सुमन लो, यह चमन लो

    नीड़ का तृण-तृण समर्पित

    चाहता हूँ देश की धरती तुझ कुछ और भी दूँ !

    श्रम के देवता किसान

    • वीरेंद्र शर्मा

    जाग रहा है सैनिक वैभव, पूरे हिन्दुस्तान का,

    गीता और कुरान का।

    मन्दिर की रखवारी में बहता ‘हमीद’ का खून है,

    मस्जिद की दीवारों का रक्षक ‘त्यागी’ सम्पूर्ण है।

    गिरजेघर की खड़ी बुर्जियों को ‘भूपेन्द्र’ पर नाज है,

    गुरुद्वारों का वैभव रक्षित करता ‘कीलर’ आज है।

    धर्म भिन्न हैं किंतु एकता का आवरण न खोया है,

    फर्क कहीं भी नहीं रहा है पूजा और अजान का।

    गीता और कुरान का,

    पूरे हिन्दुस्तान का।

    दुश्मन ने इन ताल-तलैयों में बारूद बिछाई है,

    खेतों-खलियानों की पकी फसल में आग लगाई है।

    खेतों के रक्षक-पुत्रों को, मां ने आज जगाया है,

    सावधान रहने वाले सैनिक ने बिगुल बजाया है।

    पतझर को दे चुके विदाई, बुला रहे मधुमास हैं,

    गाओ मिलकर गीत सभी, श्रम के देवता किसान का।

    गीता और कुरान का,

    पूरे हिन्दुस्तान का।

    सीमा पर आतुर सैनिक हैं, केसरिया परिधान में,

    संगीनों से गीत लिख रहे हैं, रण के मैदान में।

    माटी के कण-कण की रक्षा में जीवन को सुला दिया,

    लगे हुए गहरे घावों की पीड़ा तक को भुला दिया।

    सिर्फ तिरंगे के आदेशों का निर्वाह किया जिसने,

    पूजन करना है ‘हमीद’ जैसे हर एक जवान का।

    गीता और कुरान का,

    पूरे हिन्दुस्तान का।

    खिलते हर गुलाब का सौरभ, मधुवन की जागीर है,

    कलियों और कलम से लिपटी, अलियों की तकदीर है।

    इसके फूल-पात पर, दुश्मन ने तलवार चला डाली,

    शायद उसको ज्ञान नहीं था, जाग गया सोया माली ।

    गेंदे और गुलाबों से सब छेड़छाड़ करना छोड़ो,

    बेटा-बेटा जागरूक है, मेरे देश महान् का ।

    गीता और कुरान का,

    पूरे हिन्दुस्तान का।

  • 16 दिसम्बर कारगिल विजय दिवस पर कविता

    जीत मरण को वीर

    ● भवानी प्रसाद तिवारी

    जीत मरण को वीर, राष्ट्र को जीवन दान करो,

    समर-खेत के बीच अभय हो मंगल-गान करो।

    भारत माँ के मुकुट छीनने आया दस्यु विदेशी,

    ब्रह्मपुत्र के तीर पछाड़ो, उघड़ जाए छल वेशी।

    जन्मसिद्ध अधिकार बचाओ, सह-अभियान करो,

    समर खेत के बीच, अभय हो, मंगल-गान करो।

    क्या विवाद में उलझ रहे हो हिंसा या कि अहिंसा ?

    कायरता से श्रेयस्कर है छल-प्रतिकारी हिंसा ।

    रक्षक शस्त्र सदा वंचित है, द्रुत संधान करो,

    समर-खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    कालनेमि ने कपट किया, पवनज ने किया भरोसा,

    साक्षी है इतिहास विश्व में किसका कौन भरोसा ।

    है विजयी विश्वास ‘ग्लानि’ का अभ्युत्थान करो,

    समर खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    महाकाल की पाद भूमि है, रक्त-सुरा का प्याला,

    पीकर प्रहरी नाच रहा है देशप्रेम मतवाला ।

    चलो, चलो रे, हम भी नाचें, नग्न कृपाण करो,

    समर खेत के बीच, अभय हो मंगल-गान करो।

    आज मृत्यु से जूझ राष्ट्र को जीवन दान करो,

    रण खेतों के बीच अभय हो मंगल-गान करो।

    सबकी प्यारी भूमि हमारी

    कमला प्रसाद द्विवेदी

    सबकी प्यारी भूमि हमारी, धनी और कंगाल की ।

    जिस धरती पर गई बिखेरी, राख जवाहरलाल की ॥

    दबी नहीं वह क्रांति हमारी, बुझी नहीं चिनगारी है।

    आज शहीदों की समाधि वह, फिर से तुम्हें पुकारी है।

    इस ढेरी को राख न समझो, इसमें लपटें ज्वाल की ।

    जिस धरती पर … ॥१॥

    जो अनंत में शीश उठाएं, प्रहरी बन था जाग रहा।

    प्राणों के विनिमय में अपना, पुरस्कार है माँग रहा।

    आज बज गई रण की श्रृंगी, महाकाल के काल की ।

    जिस धरती पर… ॥२॥

    जिसके लिए कनक नगरी में, तूने आग लगाई है।

    जिसके लिए धरा के नीचे, खोदी तूने खाई है।

    सगर सुतों की राख जगाती, तुझे आज पाताल की।

    जिस धरती पर … ॥ ३॥

    रण का मंत्र हुआ उद्घोषित, स्वाहा बोल बढ़ो आगे ।

    हर भारतवासी बलि होगा, आओ चलो, चढ़ो आगे।

    भूल न इसको धूल समझना, यह विभूति है भाल की।

    जिस धरती पर… ॥४..

    बज उठी रण-भेरी

    ● शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

    मां कब से खड़ी पुकार रही,

    पुत्रों, निज कर में शस्त्र गहो ।

    सेनापति की आवाज हुई,

    तैयार रहो, तैयार रहो ।

    आओ तुम भी दो आज बिदा, अब क्या अड़चन, अब क्या देरी ?

    लो, आज बज उठी रण-भेरी ।

    अब बढ़े चलो अब बढ़े चलो,

    निर्भय हो जय के गान करो।

    सदियों में अवसर आया है,

    बलिदानी, अब बलिदान करो।

    फिर मां का दूध उमड़ आया बहनें देतीं मंगल-फेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।

    जलने दो जौहर की ज्वाला,

    अब पहनो केसरिया बाना |

    आपस की कलह-डाह छोड़ो,

    तुमको शहीद बनने जाना ।

    जो बिना विजय वापस आये मां आज शपथ उसको तेरी !

    लो, आज बज उठी रण-भेरी।