अब गरल है जिंदगी.
शौक कहाँ साहेब,तब जरूरतें होती थीं,
रुपया बड़ा,आदमी छोटा,
पूरी न होने वाली हसरतें होती थीं!
मिठाइयों से तब सजते नहीं थे बाज़ार,
आये जब कोई,पर्व-त्योहार,
पकवानों से महकता घर,
भरा होता माँ का प्यार!
तब आसमान में जहाज देख
आँगन में सब दौड़ आते ,
आज हर बच्चा उड़ रहा है,
पानी में कागज की नाँव?
अचरज कर रहा है!
क्या क्या याद करें,
कविता लम्बी हो जायेगी,
अब समय कहाँ पढ़े कोई,
सीधे डस्टबीन में जायेगी!
ज़िंदगी नर्तकी सी
उंगलियों पर नाच रही है,
छलावा है सबकुछ,
कहीं भी सच नहीं है,
इमोजी भेजते हैं,
हंसने-मुस्कुराने का,
आंसू पोछने वाला भी
अब कहीं नहीं है!
बस!मुखौटे की तरह,
हो गई है ज़िंदगी,
तब सरल थी,
अब गरल है जिंदगी…….!!!