वतन का नमक
इस जहां से सुकून,हमने कभी पाया तो है
चमन का कोई गुल,हिस्से मेरे आया तो है
लफ़्ज मेरे लड़खड़ाये,सामने तूफां पाकर
फिर भी तरन्नुम में , गीत कोई गाया तो है
तख़्त पर बैठे हमने,तपन के दिन बिताये
जरा-सा प्रेम का,बादल कभी छाया तो है
मंजिलों रोज ही बनते,गमों के आशियाने
दरकते खण्डहरों को,हमनेभी ढाया तो है
इस खुले आसमां तले,दिन क्यों गुजारूं?
सिर छिपाने को , दरख़्तों का साया तो है
दिल तड़फता रहा , बड़ा बेचैन-सा होकर
बेसहारे को दुआ , ये कही से लाया तो है
गंवाया तो करूँ क्यों , अफ़सोस आज मैं
इस वतन का नमक,आज तक खाया तो है
✍––धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई,दौसा(राज.)