Category: हिंदी कविता

  • गीत नवगीत लिखें

    गीत नवगीत लिखें

    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।

    मन के भाव पिरोते जायें, जैसा करें प्रतीत लिखें।

    देख बदलते अंबर के रँग, काव्य तूलिका सदा चले।
    छाया से सागर रँग बदले, लहरें तट से मिलें गले।
    लाल गुलाबी श्वेत श्याम या, नीला धानी पीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    सरगम को कलरव में खोजें, अमराई की गंध मिले।
    गेंदा बेला चंपा जूही, कमल गुलाबी नीर खिले।
    प्रकृति रंग को हृदय बसा कर, वसुधा  के सँग प्रीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    प्रियतम के भावों को पढ़कर, प्यारे कोमल शब्द चुनें।
    जीवन मधुमय रहे हमेशा, श्रृंगारिक से स्वप्न बुनें।
    उम्मीदों से दिल बहलाकर, पीड़ाओं के गीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    मूँगफली लोहड़ी में खाएं, धूम मचायें नृत्य करें।
    खिचड़ी खा संक्रांति मनायें, सूर्य देव को नमन करें।
    सावन भादों सर्दी गर्मी, मौसम की ही जीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    खुल कर जी लें आज ज़िन्दगी, कठिनाई से नहीं डरें।
    कठिन समय का सदा सामना, हिम्मत के सँग वहीं करें।
    काल खंड की सच्चाई को, बिना हुए भयभीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    बिंब उभरते जिनमें नूतन, ऐसे गीत अगीत लिखें।
    ग़ज़ल रुबाई या फिर कविता, भले गीत नवगीत लिखें।


    प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 29 जनवरी 2019

  • अंतरात्मा पर कविता

    अंतरात्मा पर कविता

    मेरा संबंध तुमसे
    अंतरात्मा का है।
    हाँ बाहृा जगत में
    हम पृथक ही सही,
    न दिखे ये रिश्ता
    जग में कहीं
    मन का जुड़ाव
    मन से तो है ।
    मेरा संबंध तुमने
    अंतरात्मा का है।
    भू से अंबर तक
    हर जगह तुम
    मेरी नजरों में हो।
    मेरी हर धडकन में तुम
    जैसे हवा का संचार,
    सांसो के लिये है,
    जल का सिंचन,
    जीवन के लिये है।
    वैसे ही एक से हम,
    और हमारी आत्मा है।
    मेरा संबंध तुमसे,
    अंतरात्मा का है।

    कालिका प्रसाद सेमवाल

  • मेरी तीन माताएँ

    यहाँ माँ पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।

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    माँ पर कविता

    मेरी तीन माताएँ

    नौ मास तक जिसने ओद्र में रखकर,,
    हमें इस संसार में लायी।
    अपनी स्तन का अमृत पिलाकर,,
    इस जग में हमे पहचान दिलाई ।
    हम पूजें तुम्हें सबसे पहले,,
    हे जननी मेरी पहली माँ ।।      

    जिस धरा पे मैंने पहला कदम रखा,,
          डगमगाया ,लड़खड़ाया फिर चलना सीखा ।
          हम जीवन में जो कर्म किये,,
          सबकुछ है इसि मिट्टी  में लिखा।
           तेरी बहुत बड़ी उपकार है मुझ पर,,
           हे धरती धरनी मेरी दुसरी माँ ।।

    जिस माँ ने हमारे पुरी जीवन को,,
    अपनी अमृत समान दूध की  रसपान कराई ।
    इस शरीर का एक एक हिस्सा,,
    उसी की है ये उपकार की काया।
    हे करूणामयी ,ममतामयी माँ,,
    हे गौ माता मेरी तीसरी माँ ।     

    हे जगत जननी मेरी पहली माँ,,
          हे गौ माँ हे धरती माँ ।
          पूजें तुम्हें सारा जगत जहाँ,,
           तुम तीनों सबकी प्यारी माँ ।
          हे न्यारी माँ हे दुलारी माँ ।।।

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

  • ओ तरु तात सुन ले

    ओ तरु तात सुन ले

    ओ!तरु तात!सुन ले
    मेरी वयस और तेरी वयस का अंतर चिह्न ले
    मैं नव अंकुर,भू से तकता
    तेरे साये में पलता
    तू समूल धरा के गर्भ में जम चुका।

    माना ,तेरी शाखा छूती जलद को
    मधुर स्पर्श से पय-नीर पान करती
    पर जिस दिन फैलेगी मेरी शाखाएँ
    घनों को पार कर पहुँचेगी अनंत तक
    और चुनेगी स्वर्णिम दीप-तारक।

    माना ,सहस्त्रों पथिक तेरी छाँह में विश्रांति पाये
    दे आशीष वर्षों तक रहने का,
    पाकर शीतलता
    पर जब फैलेगा मेरा क्षेत्र,
    ढक लेगा मानो सर्व जग को
    उस दिन अनगिनत श्रान्त प्राणी,
    लेंगे गहरी निंद्रा छाँह में
    लब्ध होगी नई स्फूर्ति
    देगें असीस युगों तक रहने का।

    माना, तेरे पुष्पों पर भ्रमर करते गुंजार
    करते रसपान,पाते त्राण
    पर जब तेरे सम होंगे शरीरांग
    उस दिन समस्त खगकुल का होगा बसेरा
    मेरी हरेक डाल बनेगी,
    क्रीड़ास्थल उनका
    हर शीत-आतप ,वृष्टि होगा परित्राण
    अहं ना कर अपनी दीर्घता का
    क्योंकि जिस दिन फैलेगी,
    मेरी विपुलता……
    आकार तेरा बिखर जाएगा
    उस दिन तू अंकुर-सम नजर आएगा।

    ✍–धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई
    जिला-दौसा(राजस्थान)

  • चाहत को तुम पलकों में छुपाया न करो

    चाहत को तुम पलकों में छुपाया न करो

    सुनो न सुनो न ऐसे तड़पाया न करो
    पास बुला के दूर को हटाया न करो
    आख़िर इतना क्यों इतराते रहते हो
    कितनी बार कहा है भाव खाया न करो


    गैरों से हंस हंस के तुम क्यों बातें करते हो
    इस तरह से मुझको तुम जलाया न करो
    कभी कभी चलता है मजबूरी भी होती है
    पर रोज़ रोज़ यूँ देर से तुम आया न करो


    माना कि लड़ने से मोहब्बत गहरी होती है
    पर बिना बात ही बात को बढ़ाया न करो
    दिल दुखता है देख के जब अनदेखा करते हो
    इस तरह से मुझको तुम सताया न करो


    पता है मुझको तुम अपनी मन मर्जी चलाते हो
    ज़िद्द में पर अश्क़ों को बहाया न करो
    दिल जिगर और जान तोहफा है क़ुदरत का
    सब पर इस जागीर को लुटाया न करो


    बिना तुम्हारे हम तो रो रो कर मर जाएंगे
    कसम तुम्हें है दामन यूँ झटकाया न करो
    कर्म भले हों तो रब खुद ब खुद मन जाता है
    बस किसी भी दिल को तुम दुखाया न करो

    पता है तुमको आँखें सब सच सच कह जाती हैं
    ‘चाहत’ को तुम पलकों में छुपाया न करो

    नेहा चाचरा बहल ‘चाहत’
    झाँसी