झूला झूले फुलवा- ताँका संग्रह की समीक्षा

समीक्षा*-
*झूला झूले फुलवा -ताँका संकलन*
*(रमेश कुमार सोनी* )

हाइकु
कविता संग्रह

समीक्षक -ज्योत्स्ना प्रदीप

यज्ञ मन और वातावरण को शुद्ध करने की एक सुखद क्रिया है। यह परम कल्याणकारी होता है ।वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि खेतों के मध्य किए गए यज्ञ के प्रभाव से फसलों की उर्वरक क्षमता कई गुनी बढ़ जाती है ।
ठीक इसी प्रकार मानव के दिल में भी एक यज्ञ प्रज्वलित रहता है…. न जाने कितने विचारों की आहूतियाँ इसमे नित्य पड़ती हैं ।
अग्निहोत्र के इस धुएँ के असर के कारण ही मन की उर्वरक क्षमता में अपार विस्तार होता है और सृजनरुपी फसले,फूल -पौधे लहलहाने लगते है।ठीक ऐसा ही कुछ हुआ है कवि रमेश सोनी जी की रचनाओं के साथ ।
‘झूला झूले फुलवा’ उनका ताँका संग्रह पढ़ने का सौभाग्य मिला।
जापानी साहित्य की विधाओं के अंतर्गत रमेश कुमार सोनी के हाइकु संग्रह – ‘रोली अक्षत’ (छत्तीसगढ़ का प्रथम हिंदी हाइकु संग्रह ) एवं ‘ पेड़ बुलाते मेघ ‘ और छत्तीसगढ़ी में – ‘ हरियर मड़वा ‘ (विश्व का प्रथम छत्तीसगढ़ी ताँका संग्रह ) प्रकाशित हो चुके है।
इनका हिंदी ताँका संग्रह ‘झूला झूले फुलवा ‘मेरी आँखों के सामने है। ‘झूला झूले फुलवा’ ताँका संग्रह छत्तीसगढ़ की भी पहली ‘ ई बुक ‘ है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार
प्रकाशित हुई है।जापानी साहित्य की विधा ताँका बहुत ही ख़ूबसूरत विधा है।इसकी महक अब हिंदी साहित्य को भी सुवासित कर रही है। ताँका को 5,7,5,7,7 वर्ण के क्रम से 5 पंक्तियों में लिखा जाता है।
‘झूला झूले फुलवा’संग्रह के ग्यारह विविध खंडों –1-झूला झूले फुलवा, 2-पिया साँवरे, 3- तराशने का दर्द, 4-माटी का पुतला, 5- रिश्तेदारियाँ, 6-प्रेम- रंग भिगोए, 7-कोरोना का खौफ, 8-हमर छत्तीसगढ़, 9- आँसू सूखे हैं 10-यादें छेड़तीं और 11-नई दुनिया , में कुल -344 ताँका हैं ।
*पहला भाग -झूला झूले फुलवा*
संकलन के प्रथम भाग को प्रकृति के सौंदर्य के विभिन्न रंगों से रमेश सोनी ने बड़ी सुंदरता से सजाया है।मानव के मन में भी एक कोमल प्रकृति बसती है । जब मन की कोमल प्रकृति और ब्रह्मांड में निहित पावन सौंदर्य का अभिसार होता है तो परिणाम अद्भुत ही होगा ।कुछ ताँका पढ़ने के बाद लगा जैसे प्रकृति में वो सारे शुभ -कार्य होते हैं जो मानव की जिजीविषा को सजीव बनाते हैं। विवाह भी ऐसा ही शुभ बंधन है।कितना मनोहारी दृश्य है!
गुलमोहर की छाँव में लाल कार्पेट, ढोल बजाते मेघ,पलाश- दूल्हा
प्रकृति मानों मंगल विवाह की तैयारी में हो । इस अनोखे ब्याह में भला कौन न शरीक़ होगा?फुलवा भी कमर लचकाती पिया को रिझाने आ गई। मांगलिक कर्मों मेंमग्न मंगल – विवाह के कुछ शुभकारी दृश्य का आनन्द प्रस्तुत ताँका में निहित है-

लाल कार्पेट/गुलमोहर-छाँव/ बड़ी लुभाती/धूप विश्राम पाती/साँझ घर को चली।

किसकी शादी? /धूप रंग जमाती /बूँदें बरसी /मेघ ढोल बजाते /सियार के बाराती।

रक्षक काँटें /महारानी -सी बैठी /ओस गुलाबी /पालकी बैठ चली /महारानी सजाने ।

केले के पत्ते /दावत में बुलाते /भूख बढ़ती /परंपरा निभाने /मिटे, गिला ना करें ।

फागुन छाया /रंग बाँटते खड़ा /पलाश दूल्हा /लाली का लाल देख /जग लाल हो गया ।

आम्र-मंजरी /मधु ऋतु का दौर /कूके कोकिल /स्वीकारो ब्याह -पाती /महुआ झूमे गाए ।

मेघ सावनी /लचके कमरिया /दैय्या रे दैय्या /झूला झूले फुलवा /पिया रिझाने आती।

रमेश सोनी के ताँका में प्रकृति का कहीं सधवा-सौंदर्य झलकता तो कहीं विधवा का मार्मिक वेश। सुख और दुःख दोनों ही समाहित है जीवन में । यथार्थ को उकेरते, सुन्दर बिम्ब से सजे कुछ सजीव चित्र –

हरी वसुधा /पकी जब कपास /विधवा वेश /रेशे नोचे जाएँगे /तब पल्लू ढकेंगे ।

हरी घास का /वर्षा भर यौवन /फिर बेचारी /प्रकृति का सन्देशा /सुख -दुःख ज़िन्दगी।

परिंदे गाते /सुख-चैन के गीत /सुकून देने /बाज़ , चील झपटे /मुफ़्तखोर कबीले ।

पुष्प – सुगंध /पतझड़ तरसे /बड़ा बेदर्दी /रूखा-सूखा -सा पिया /काँटों में दिल फँसा।

कुछ ताँका प्रकृति के कोमल हृदय
की झाँकी प्रस्तुत करते है ।कर्मठ नन्ही गौरैया हर स्थिति में एक ही भाव में जीती है । सुख -दुःख से परे कुछ सन्देशप्रद ताँका –

नन्ही गौरैया पौष/ सावन, जेठ सब में राजी/कर्म-सन्देश बाँटे/ निडर हो हर्षाती।

पौष बेचता /धूप के नर्म शॉल /धरा मुस्काती /ओस के भाव बेचे /धुँध, मुफ़्त में लेती ।

पतझर लुटेरे से डरती पत्तियाँ ,सुदामा सा पेड़,धूप की कूची जैसे मोहक ताँका कवि की कल्पनाशक्ति के अद्भुत उदाहरण हैं –

छिपा है कहीं /पतझर लुटेरा /नंगा करने /हरी वादियाँ डरी /सुहागिनों का बैरी ।

पेड़ ही जानें /निराहार का दर्द /पतझर में /पत्ते क्या झर गए /सुदामा बना गए ।

धूप की कूची /भित्तचित्र पेड़ों के /रोज़ बनाती /सदा से ही अधूरी /छोटी- बड़ी हो जाती।

प्रकृति का सौंदर्य मानव को किसी अलग ही अलौकिक जग में ले जाता है। कभी -कभी इसका उग्र रूप इतना भयंकर हो जाता है कि यथार्थ के सुख से अचानक ही पलायन करना पड़ता है असहाय मानव को!

जल प्रलय /डुबोके मारे मेघ /प्यासे मरे हैं /घर, रिश्ते, सपने /लाशें गिनती धरा ।

एक ओर प्राकृतिक आपदा तो दूसरी ओर गाँव के विस्थापन की
पीड़ा मन को कुरेदती है –

सहा है मैंने /विस्थापन गाँव का /सुन रे बाँध /फटेगी छाती तेरी /देख जेठ की बारी ।

जल प्रलय /डुबोके मारे मेघ /प्यासे मरे हैं /घर, रिश्ते, सपने /लाशें गिनती धरा।

*दूसरा भाग*- *पिया साँवरे*
इस भाग में कवि ने प्रेम की रागिनी के स्वरों को नई लय प्रदान की है।पावन -प्रेम प्रभु की सबसे प्यारी अभिव्यक्ति है।ऐसा प्रेम प्रिय को मदमस्त कर देता है । उसे मलंग होकर झूमने को विवश भी कर देता है –

पिया के नाम /गाढ़ी रची मेहंदी /कभी ना छूटी /जन्मों -जन्मों का साथ /प्यार का आवाँ पके ।

बसी है प्यारी /दिल में छवि तेरी /सँवार लिया /तेरी यात्रा का स्थान /सदा पावन रखा।

पिया साँवरे/पधारो म्हारे देश /नज़रे ताँकें/मलंग होना चाहूँ /चार दिन के लिए ।

सैंया, बलमा/प्यार लेता बलैंया /हुआ बलवा/दौड़ी आती फुलवा/’धर्म ‘- बैर भुनाते ।

प्रेम को समझना आसान कहाँ? प्रेम से सराबोर इन ताँका में भी एक विचित्र सा रस उपज रहा है गहरे अर्थ में पके ताँका,जिसका स्वाद आप भी लीजिए –

आसान कहाँ?/प्रेम को समझना /पालें वह जाने /ठोस द्रव ना गैस/खट्टा,मीठा ना खारा।

जब हृदय ही प्रिय को दे दिया तो कैसा उर -स्पंदन! प्रेम के अतल को छूते कुछ अद्भुत स्वर –

प्यार जो रोया /उनींदा सिरहाना /मुश्किल जीना /दिल तुम्हारे पास /स्पंदन भेजा करो ।

समाता नहीं /खाली दिल में कुछ /तुम ही बाकी /कंदराओं में बैठी /अहिल्या सी ताकती।

लिपि, न अंक /वक़्त समझाता है /इश्क़ की बातें /ज़िन्दगी के साथ भी /मरने के बाद भी ।

*तीसरा भाग*-तराशने का दर्द

मानव सुख- दुःख, दर्द आँसू और ख़ुशी की अनुभूतियों की एक मूर्ति है परन्तु सुन्दर मूर्ति बनने के लिए एक पत्थर को भी पीड़ा से गुज़रना पड़ता है फिर मानव कैसे अछूता रह सकता है इस पीड़ा से ?पैदा होने के बाद, छठी से लेकर अर्थी तक पीड़ाएँ उसका पीछा नहीं छोड़ती!सबके साथ होते हुए भी उसे अपने दुःख -दर्द अकेले ही भोगने पड़ते हैं । अंत में माटी में मिलना ही मानव जीवन की नियति है -यह प्रभावशाली ताँका गज़ब की गहरी सोच लिए हैं -क्षणभंगुरता की कथा समाई है इस छोटे से ताँका में –

पत्थर सहे /तराशने का दर्द /मूर्ति हो गया /पीड़ा सुनता रहा /पुनः पत्थर हुआ ।

कुछ ताँका सुन्दर बिम्ब के आभरण से सजे मानों पाठक के मन में उजाला फैला रहे हों –
शौक के हाट,दुखों के दिन अंगद पाँव जैसे, सुख नेवले, दुःख सपोला….नेत्रों के समक्ष चित्र उतर आये ये पढ़कर –

शौक के हाट /सुख दुःख बेचते /जीवन मेला /छठी से अर्थी तक /भीड़ में भी अकेले ।

दुःखों के दिन /अंगद पाँव जैसे /हिलते नहीं /यादें बनके बैठे /सुख में भी उभरे।

दुःख- दर्द समय सीमा से परे हैं जात- पात,अमीर -ग़रीब से दूर –

दर्द आवारा /भोर देखे ना साँझ /सिर चढ़ता /झोपड़ी या महल /कष्ट रहा टहल ।

सुख नेवले की तरह है जो दुःख के सर्प को हरा देता है मगर दुःख का साँप डसने की ताक में हमेशा रहता है –

सुख नेवला/दुःख सँपोला डरा/
ड्योढ़ी से लौटा/वन , बागों में छिपा/डसने को ताकता।

जग में एक रिश्ता ऐसा भी है जो शीत रुपी दुःख को पास आने नहीं देता ।ममता के ताप से प्रकाशित माँ का रिश्ता –

माता ने बुना /जिंदगी का स्वेटर /शीत भगाने /दुःख पास ना आता /सुख गर्माए खड़ा ।

*चौथा भाग- माटी का पुतला*
भागवत गीता के चिन्तन- मनन का सार है संकलन का यह भाग ।
मानव माटी का एक पुतला ही तो है ।यह देह नश्वर है परन्तु मानव मन इस सत्य से पलायन करना चाहता है।वो तो उस खेल में व्यस्त है जो उसे विनाश की ओर ले जाता है लेकिन वो ये भूल जाता है कि सबसे बड़ा समय ही है जो कभी -कभी शकुनी बनकर इस शतरंजी दुनिया को हैरान -परेशान कर देता है –

उनकी चालें /गोटियाँ हम सभी /वक़्त शकुनि /शतरंजी दुनिया /महाभारत होगा ।

माटी- पुतला/रचे सृजनकार /स्वांग रचता/खेल दिखाके लौटा
झूठी है सब माया ।

मानव जीवन की अंतिम परिणति मोक्ष है। वैतरणी को पार कराने के लिए प्रभु हैं न उस पार –

लौटता वही /मन -जहाजी- पंछी /प्रभु जो भजे /वैतरणी के पार /मोक्ष दिलाने खड़े ।

*पाँचवां भाग*- *रिश्तेदारियाँ*
कवि का कोमल मन बहुत व्यथित है पावन रिश्तों की टूटन से!जिन रिश्तों को कभी इस जग में पूजा जाता था आज उन रिश्तों की दुर्दशा तो देखिए-माता पिता पर लिखे ये भावपूर्ण ताँका
आपके नैनो को सजल करने में सक्षम हैं –

कोने पड़ी माँ /गुमसुम पहेली /बड़ी हवेली /कुत्तों से रिश्ता जुड़ा /प्यार, सम्मान रोए ।

रिश्तों की जीभ /मरणासन्न पिता /चुए -टपके /वसीयत ताकते /मरे,तो माल बाँटें ।

नारी पर अत्याचार आज भी हो रहा है चाहे वो दहेज़ को लेकर हो या फिर लिंग -भेद को लेकर –

चूल्हा था रोया /सूखी लकड़ी सी मैं /ज्वाला- सी जली /दहेज़ ने जलाया /सावन सुबकता

नए कसाई/लिंग भेद मशीन /मजबूर माँ /कोख में मारे कन्या /दरिंदों की दुनिया।

बेटियाँ भोली /कौन घर अपना /बूझ ना पाती /एक घर से डोली /दूसरी से अर्थी उठी ।

अगर एक ओर नारी दुखी होती है तो ये दुःख उसे मज़बूत भी करते हैं । दुःख को गौरव में बदलने की तासीर भी रखती है वो । एक शहीद की विधवा आज इतिहास
रचने का हौसला रखती है –

सैन्य वर्दी में /शहीद की विधवा /शत्रु काँपते /जौहर फीका पड़ा /इतिहास रचेगी ।

नारी स्वयं में एक प्रकृति है । उसमे सब कुछ समाया है पर उसका उचित स्थान उसे पुरुष कहाँ दे पाया?नारी – अस्तित्व पर एक बड़ा सवाल करता छोटा सा ताँका आपके कलेजे में प्रश्नों के कई काँटें चुभो देगा –

सब तुममें /पेड़ पहाड़, नदी /तुम किसमे /प्रश्न में काई लगी / उत्तर डर कर भागे ।

*छठा भाग*- *प्रेम रंग भिगोए*

इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसे किसी से प्रेम न हो!
प्रेम के अनूठे रंग की चमक पाठक के मन को भी रंग देगी । इससे भला कौन बचेगा?-

पहचाना क्या /रँगी -पुती है काया /पिया जी चीन्हे /प्रीत का रंग पक्का /बची ना फगुनवा ।

कोई ना बचे /फागुन रंगरेज़
रंग बरसे /पिया गली में भीगा /
मन नशीला हुआ ।

रंग श्याम का हो तो फिर दूसरे रंग की गुंजाइश ही कहाँ रहती है!-

होली का हल्ला /ढूँढे सखी मोहल्ला / लिये नगाड़े /श्याम कौन रंगेगा ? /चढ़ा ना रंग दूजा ।

*सातवाँ भाग* – *कोरोना का* *खौफ़*
इसमे कवि ने कोरोना के उस रूप को अपने ताँका में उतारा है जिससे सम्पूर्ण विश्व आतंकित है । बीते साल, कई दिलों का सालता संताप कोरोना! इसके खौफ़ ने सारे जग को हिला कर रख दिया- -मगर हौसला हर दर्द
समाप्त कर देता है –

खौफ कोरोना /हौसलों से डरता /
ड्योड़ी पे खड़ा /लाँघने डरे मर्द /दुबकी है दुनिया ।

कोरोना ने लोगों के ज़िन्दगी काम -काज घर -बार पर बहुत पीड़ादायी असर डाला है –

गृहस्थी बोहे /गाँव की भूखी यात्रा /छालों को चूम /मार्ग पवित्र हुए /बिवाई के रक्त से ।

मानव के हाथ में क्या है? उम्मीद को ही ज़िन्दा रख सकता है –

लाशें गिरती / कब्रे कम पड़ती /जेबें ठंडी हैं /नौकरी के भी लाले /सिर्फ़ उम्मीद ज़िन्दा।

*आठवाँ भाग* – *हमर* *छत्तीसगढ़*
छत्तीसगढ़ के गौरव का
गुणगान करते ताँका कवि का अपनी माटी के प्रति पावन प्रेम को दर्शा रहे है –

धान कटोरा /मोर छत्तीसगढ़/बासी का जोर /सबसे है बढ़िया /सिर उठा के खड़ा ।

कृषक पर्व /हरेली -पुस पुन्नी /गेंड़ी दौड़ाते /धान की कोठी भरी /दान की मुठ्ठी खुली

गम्मत नाचा /करमा ददरिया /लोग सीखते /संस्कृति जिन्दा यहाँ /खुमरी ताने खड़ा ।

छतीसगढ़ का दूसरा रूप जिसकी कवि को फ़िक्र है –

तेंदू के पत्ते /बीड़ी बनने टूटे /धुआँ ज़िन्दगी /फ़िक्र कहाँ उड़ते /नशे में घर उड़े।

बस्तर खेती /बन्दूक गोले उगे / हिंसा बाज़ार /महुआ तेंदू डरे /परदेशी के डेरे ।

*नवाँ भाग* – *आँसू सूखे हैं*

इसमे कवि ने दुखी और निर्धन लोगों के हृदय की वेदना को बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। ये सभी ताँका संतप्त- उर की सूनी रागिनी के सजल स्वर हैं –

ख़ून का घूँट /बच्ची रोटी को रोती /मुफ़्त धतूरा /पीकर सोये सभी /भूख बची ना प्यास ।

आँसू सूखे हैं /कब्रिस्तान का पेड़ /गिनती भूला /शवों को निपटाते /कर्फ्यू क्यों लगता है?

विजय रथ युद्ध में हार- जीत /श्मशान बीच /सर्वनाश हो होता /ख़ुशी से ज़्यादा दुःख ।

पसली गिन /अंक सीखते बच्चें /घूरे में पले /रोज़ भोर ढूँढते /कचरे में ज़िन्दगी ।

सपने संग /नींद बिक भी जाती /बड़े बाज़ार /नींद रोटी सौतन /बारी -बारी मिलती ।

*दसवाँ भाग* *-यादें छेड़तीं*

मानव जीवन में प्रेम एक सुन्दर उपहार है। मगर ये मिले या न मिले.. स्मृतियों का जनक ज़रूर बन जाता है! स्मृतियाँ कभी
पतझड़ तो कभी बसंत के भेष में आती हैं । ये झूठी नहीं है… बनावट से दूर मोती सी सच्ची हैं इसलिए इन्हें कभी ‘डिलीट ‘ भी नहीं किया जा सकता ! यादों पर लिखे कुछ अमूल्य मोती से चमकते ताँका की चमक देखते ही बनती है –

यादों की पर्त /जमाता रहा वक़्त /दिल जो भरा /’नो एंट्री ‘लगा बैठा /डिलीट नहीं होता ।

स्मृति का वन /पतझड़- बसंत /शर्माते आते /खिले, झरे लौटते /सुगंध बिखेरते ।

यादों के अश्रु /बनते अफ़साने /ढूँढ बहाने, आँखें छिपा के बोलें /वो झूठ नहीं जानें।

*ग्यारहवाँ भाग -नई दुनिया*

इस भाग में आधुनिक परिवेश का सजीव चित्रण कवि ने बड़ी ही
शालीनता से किया है। समय के बदलाव की पीर कभी-कभी मन को अधीर कर देती है।गाँव -शहर सब बदल रहे हैं।गाँव पहले जैसे कहाँ रहे!अपनी परम्पराएँ,संस्कृति रिश्ते- नाते,खेल तमाशे… सब कुछ बदल गया!

गाँव जो चला /छोटी पगडंडी से /शहर की ओर /गुमशुदा हो गए /खेत,संस्कृति,रिश्ते ।

रिश्ता हो गया /चौपाल का मॉल से /वैश्विक ग्राम /गाँव बाबुल रोए/क्या थे जी, क्या हो गए।

पहले जैसी बातें भला अब कहाँ रहीं ।कौन खेल देखेगा जब सभी को खेलना आ गया आज के इंसान पर तीखा प्रहार करता ये ताँका देखिए –

लौट ही गई /मदारी डुगडुगी /भीड़ ना जुटी /सभी मदारी हुए /तमाशा कौन देखे?

शहर में भी कौन सा सुख है?चारों ओर आँसू,साज़िशें,दुःख, नारी -शोषण…ये सब भला नेक हृदय कवि को कहाँ जँचेगा!

ढाता शहर /साज़िशों का शहर /साज़िशें जाएँ कहर /डकैती, बलात्कार /क्या संध्या क्या पहर ?

फूलों की बातें/माली, भौरें जो करें /मान भी जाता,/बाज़ार जो करता /दिल को जँचा नहीं ।

न्याय माँगने /मोमबत्ती की रैली /दरिंदे हँसे /रोज़ नये चेहरे /आँसू वही पुराने।

लोग एकाकी /न्यूक्लियर फैमिली /वैश्विक गाँव /युग मोबाइल का /भूले सिर उठाना ।

गाँव और शहर बदल रहे हैं। लोग बदल रहे हैं । मगर एक स्थान से दूसरे स्थान को जोड़ने वाले मील के पत्थर निडर योद्धा की तरह आज भी डटे हैं।इंसान बदल गया मगर वो कभी नहीं बदले । वो आज भी राहें आसान कर देते हैं भटकते यात्रियों की –

मील के पत्थर /मौसमों से ना डरे /निडर योद्धा /राह बताते खड़े /यात्रियों से मित्रता।

रमेश सोनी जी ने प्रकृति और मानव- प्रकृति के मिज़ाज़ के लगभग हर रंग -ढंग को अपने ताँका संग्रह में बखूबी समेटा है ।यह एक सुन्दर संग्रह है । विविध रंगों से दमकती यह ई पुस्तक पाठकों को मंत्रमुग्ध सा कर देगी, यह मेरा विश्वास है । साहित्य के उद्यान में सदा ही बहारों और ताज़गी को छूती रहे यह ई ताँका पुस्तक ‘झूला झूले फुलवा’ मंगल-शुभकामनाओं के साथ-

ज्योत्स्ना प्रदीप,मकान नंबर 32 गली नंबर-9 गुलाब देवी रोड, न्यू गुरुनानक नगर,जालंधर
(पंजाब)
[email protected]
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झूला झूले फुलवा – ताँका संग्रह
रमेश कुमार सोनी
भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु ‘
प्रकाशक-अक्षर लीला प्रकाशन,
कबीर नगर,रायपुर -छत्तीसगढ़
पिन -492099, सन-2020
पृष्ठ-114 ,मूल्य- 200/-रु.
उपलब्धता-किंडल अमेज़न साइट पर ।
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0 thoughts on “झूला झूले फुलवा- ताँका संग्रह की समीक्षा”

  1. ज्योत्सना जी विस्तृत एवं सटीक विश्लेषण। बहुत सुंदर। रमेश कुमार सोनी जी एवं आपको हार्दिक बधाई।

  2. पुस्तक जितनी ही सुंदर समीक्षा। बधाई आप दोनों को।

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